मोलाइयत और राफ़िज़ीयत की तफ़सील
इस्लाम में "मोलाइयत" और "राफ़िज़ीयत" दो अहम इस्तिलाहात हैं जो अक़ाइद और फिरक़ों की बुनियाद पर इस्तेमाल की जाती हैं। इनका ताल्लुक तवारीख़े-इस्लाम और मुख़्तलिफ़ मज़ाहिबी नज़रियात से है।
मोलाइयत
تعریف: "मोलाइयत" से मुराद आम तौर पर वो तर्ज़े-फिक्र लिया जाता है जो हज़रत अली (अ.स) से शदीद मुहब्बत और वफ़ादारी पर मबनी हो। ये लफ़्ज़ "मौला" से निकला है, जो रसूलुल्लाह (ﷺ) ने हदीस-ए-ग़दीर में हज़रत अली (अ.स) के लिए इस्तेमाल फ़रमाया था:
इस्तेमाल:
तशय्यु (शिया मसलक) के मानने वालों के लिए इस्तेमाल होता है, जो हज़रत अली (अ.स) को दीन में ख़लीफा और इमाम मानते हैं।
सुन्नी हज़रात में भी कुछ लोग जो अहले-बैत (अ.स) की मुहब्बत में इंतिहा तक पहुँचते हैं, उनके लिए भी ये लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है।
राफ़िज़ीयत
تعریف: "राफ़िज़ीयत" लफ़्ज़ "रफ़ज़" से लिया गया है, जिसका मतलब "छोड़ देना" या "इंकार करना" है। तारीख़ में ये लफ़्ज़ उन लोगों के लिए इस्तेमाल हुआ जो ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन (ख़ास तौर पर हज़रत अबूबक्र और हज़रत उमर) की खिलाफ़त को तस्लीम नहीं करते और सिरफ़ अहले-बैत (अ.स) की इमामत के क़ाइल हैं।
इस्तेमाल:
सुन्नी उलेमा आम तौर पर उन लोगों के लिए "राफ़िज़ी" लफ़्ज़ इस्तेमाल करते हैं जो सहाबा-ए-किराम (र.अ) पर तन्क़ीद करते हैं या उन्हें नहीं मानते।
हदीस की किताबों में "राफ़िज़ी" एक इस्तिलाह के तौर पर भी मौजूद है। जैसे:
इमाम शाफ़ई (रह) फ़रमाते हैं: "अगर अहले-बैत की मुहब्बत राफ़िज़ीयत है तो दुनिया गवाह रहे कि मैं राफ़िज़ी हूँ।"
इमाम अहमद बिन हम्बल (रह) ने कहा: "राफ़िज़ीयत से मुराद सहाबा की तौहीन करना है।"
इस्लामी किताबों में बयान
"अल-बिदाया वान-निहाया" (इब्ने कसीर) – इसमें राफ़िज़ीयत के तसव्वुर को सुन्नी नज़रिये से बयान किया गया है।
"तारीख़ तबरी" (इमाम तबरी) – इस किताब में मोलाइयत और राफ़िज़ीयत के इर्तिक़ा का तज़किरा है।
"अल-ग़दीर" (आलामा अमीनी) – इसमें हदीस-ए-ग़दीर और हज़रत अली (अ.स) की वलायत के तसव्वुर पर रोशनी डाली गई है।
"मिज़ानुल-इतेदाल" (इमाम ज़हबी) – इसमें मोलाइयत और राफ़िज़ीयत से मुताल्लिक़ अस्नाद और रिवायात का जायज़ा लिया गया है।
"नहजुल बलाग़ा" – इसमें हज़रत अली (अ.स) के खुत्बात और अहकामात मौजूद हैं, जिन्हें शिया और सुन्नी दोनों मआतरिफ़ किताब मानते हैं।
कहां इस्तेमाल होते हैं?
पाकिस्तान, हिंदुस्तान और ईरान में ये लफ़्ज़ आम मज़हबी मुजालस और बहसों में इस्तेमाल किए जाते हैं।
दीनी किताबों में ये ज़िक्र अक़ाइद के तहत आता है।
सुन्नी उलेमा "राफ़िज़ीयत" को तन्क़ीदी तौर पर इस्तेमाल करते हैं, जबके शिया "मोलाइयत" को अफ़ज़ल समझते हैं।
"मोलाइयत" और "राफ़िज़ीयत" दो मुख़्तलिफ़ मज़हबी इस्तिलाहात हैं जो तारीख़ और अक़ाइद में अपने-अपने मक़ाम रखते हैं। इनका ताल्लुक हज़रत अली (अ.स) की मुहब्बत और सहाबा-ए-किराम (र.अ) के बारे में नज़रियात से है। हर दौर में इनका अलग-अलग इस्तेमाल हुआ है और आज भी ये दीनी और अक़ाइदी बहसों में मौजूद हैं।
अहले सुन्नत वल-जमाअत चारों ख़लीफ़ाओं को बरहक मानती है और किसी एक की मुख़ालिफ़त नहीं करती। "Molaiyat" उन अफ़राद के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो हज़रत अली से ज़्यादा मोहब्बत रखते हैं लेकिन सहाबा और ख़ुलफ़ा की मुख़ालिफ़त नहीं करते, जबकि "Rafziyat" उन लोगों का अक़ीदा है जो सिर्फ़ हज़रत अली को ख़लीफ़ा मानते हैं और बाक़ी ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन को नहीं मानते।
1. मोलाइयत (Molaiyat) की तफ़सील
تعریف:
"मोलाइयत" का ताल्लुक़ उन लोगों से है जो हज़रत अली (अ.स) और उनके अहल-ए-बैत से शदीद मोहब्बत रखते हैं और उनके मुक़द्दस मक़ाम को बहुत ऊँचा मानते हैं। इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल अक्सर उन लोगों के लिए किया जाता है जो अहल-ए-बैत की तअज़ीम को अपने अक़ीदे का अहम हिस्सा मानते हैं।
इस्लामी कुतुब की रोशनी में:
हदीस की किताबों में अहल-ए-बैत की शान में बहुत सी रिवायतें मौजूद हैं।
सहीह मुसलिम में मौजूद है कि रसूलुल्लाह (स.अ.व) ने फ़रमाया: "मैं तुम्हारे दरमियान दो भारी चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ, एक अल्लाह की किताब और दूसरी मेरी इतरत (अहल-ए-बैत), जब तक तुम इन दोनों से वाबस्ता रहोगे गुमराह न होगे।"
तफ़सीर इब्ने कसीर और तफ़सीर तबरी में हज़रत अली (अ.स) की फ़ज़ीलत से मुतअल्लिक़ तफ़सीलात मिलती हैं।
इस्तेमाल की जगह:
मोलाइयत का लफ़्ज़ अकसर शियों और अहल-ए-सुन्नत के उन अफ़राद के लिए भी इस्तेमाल होता है जो अहल-ए-बैत से ग़ैर-मामूली मोहब्बत रखते हैं।
खासतौर पर इंडो-पाक में इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो अहल-ए-बैत की याद में मजालिस, नोहा और मातम को अहम मानते हैं।
2. राफ़ज़ीयत (Rafziyat) की तफ़सील
تعریف:
"राफ़ज़ीयत" का लफ़्ज़ अकसर उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो सहाबा-ए-किराम में से बाज़ अफ़राद का इनकार करते हैं या उन्हें बुरा समझते हैं। इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल अक्सर तनक़ीद के तौर पर किया जाता है।
इस्लामी कुतुब की रोशनी में:
इब्ने तैमिया, इमाम बुख़ारी, और इमाम अहमद बिन हंबल जैसे उलमा ने "राफ़ज़ीयत" की मुख़ालिफ़त की है और इसे ग़लत अक़ीदा करार दिया है।
"अल-बिदाया वन्निहाया" और "फतावा इब्ने तैमिया" में राफ़ज़ीयत से मुतअल्लिक़ तन्क़ीद की गई है।
मुहद्दिसीन के मुताबिक़, राफ़ज़ीयत का लफ़्ज़ उन लोगों के लिए आया जो हज़रत अबू बक्र (र.अ) और हज़रत उमर (र.अ) की ख़िलाफ़त का इनकार करते हैं।
इस्तेमाल की जगह:
ये लफ़्ज़ अकसर अहल-ए-हदीस, अहल-ए-सुन्नत और अहल-ए-तशय्यु के माबैन मबाहस में आता है।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान में अक्सर दीन से मुतअल्लिक़ मज़हबी बहस-मुबाहसे में इसका इस्तेमाल होता है।
कुछ हज़रात इसे शियों के लिए इस्तेमाल करते हैं, मगर तमाम शिया इसका हिस्सा नहीं होते।
नतीजा
"मोलाइयत" और "राफ़ज़ीयत" दो अलग-अलग अल्फ़ाज़ हैं, जो अक़ीदों और तारीख़ से जुड़े हुए हैं। मोलाइयत अहल-ए-बैत से मोहब्बत पर ज़ोर देता है, जबकि राफ़ज़ीयत को अकसर तनक़ीदी नज़र से देखा जाता है। यह दोनों अल्फ़ाज़ इस्लामी तारीख़, कुतुब और फिरक़ों की बहसों में इस्तेमाल किए जाते हैं, खासतौर पर इंडो-पाक के अंदर।
No comments:
Post a Comment