गलत कुरान पढ़ने का नुकसान
मानी बदल जाता है: अगर हर्फ़ या ज़बर–ज़ेर बदल दी जाए तो आयत का मतलब बदल सकता है, और यह गुनाह है।
गुनाह का खतरा: सही लफ़्ज़ की जगह गलत पढ़ना जानबूझकर हो तो गुनाह-ए-कबीराह है।
सवाब से महरूम: कुरान सही पढ़ने पर हर हरफ़ पर दस नेकियों का वादा है, लेकिन गलत पढ़ने से यह सवाब कम या ज़ाया हो सकता है।
क्या ऐसे शख़्स को कुरान पढ़ना छोड़ देना चाहिए?
नहीं! कुरान छोड़ना गुनाह है। बल्के सही तरीका यह है कि वह तज्वीद और सही तिलावत सीख कर पढ़े।
✨हदीस से सबूत✨
हदीस-ए-मुबारक:
सहीह बुख़ारी: हदीस 4937
نبی کریم ﷺ نے فرمایا کہ اس شخص کی مثال جو قرآن پڑھتا ہے اور وہ اس کا حافظ بھی ہے ، مکرم اور نیک لکھنے والے ( فرشتوں ) جیسی ہے اور جو شخص قرآن مجید بار بار پڑھتا ہے ۔ پھر بھی وہ اس کے لیے دشوار ہے تو اسے دو گنا
ثواب ملے گا ۔
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अबू-अवाना ने क़तादा (रह०) से रिवायत की, उन्होंने ज़रारा-बिन-औफ़ा (आमिरी) से, उन्होंने सअद-बिन-हिशाम से और उन्होंने हज़रत आयशा (रज़ि०) से रिवायत की, उन्होंने कहा : रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : क़ुरआन मजीद का माहिर, क़ुरआन लिखने वाले बहुत ज़्यादा प्यारे और अल्लाह के फ़रमाँबरदार फ़रिश्तों के साथ होगा और जो इन्सान क़ुरआन मजीद पढ़ता है। लेकिन उसे क़ुरआन को पढ़ने में दिक़्क़त होती है। तो उसके लिये दो अज्र है।सहीह मुस्लिम: हदीस 798
गलत कुरान पढ़ने का नुकसान है कि मानी बिगड़ सकता है और गुनाह हो सकता है।
कुरान छोड़ना हल नहीं है, बल्के दुरुस्त करना और सीखना लाज़मी है।
हदीस के मुताबिक अगर इंसान कोशिश करता है और गलती भी होती है तो अल्लाह उसे दोहरे सवाब से नवाज़ता है।
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रसूलुल्लाह (सल्ल०) बनी अम्र-बिन-औफ़ मैं (क़ुबा में) सुलह कराने के लिये गए इसलिये नमाज़ का वक़्त आ गया। मुअज़्ज़न (बिलाल (रज़ि०) ने) अबू-बक्र (रज़ि०) से आ कर कहा कि क्या आप नमाज़ पढ़ाएँगे? मैं तकबीर कहूँ। अबू-बक्र (रज़ि०) ने फ़रमाया कि हाँ। चुनांचे अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने नमाज़ शुरू कर दी। इतने में रसूलुल्लाह (सल्ल०) तशरीफ़ ले आए तो लोग नमाज़ में थे। आप (सल्ल०) सफ़ों से गुज़र कर पहली सफ़ में पहुँचे। लोगों ने एक हाथ को दूसरे पर मारा (ताकि अबू-बक्र (रज़ि०) नबी करीम (सल्ल०) की आमद पर आगाह हो जाएँ) लेकिन अबू-बक्र (रज़ि०) नमाज़ में किसी तरफ़ तवज्जोह नहीं देते थे। जब लोगों ने लगातार हाथ पर हाथ मारना शुरू किया तो अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) मुतवज्जेह हुए और रसूलुल्लाह (सल्ल०) को देखा। आप (सल्ल०) ने इशारे से उन्हें अपनी जगह रहने के लिये कहा : (कि नमाज़ पढ़ाए जाओ) लेकिन उन्होंने अपने हाथ उठा कर अल्लाह का शुक्र किया कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने उन को इमामत का इज़्ज़त बख़्शा फिर भी वो पीछे हट गए और सफ़ में शामिल हो गए। इसलिये नबी करीम (सल्ल०) ने आगे बढ़ कर नमाज़ पढ़ाई। नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि अबू-बक्र जब मैंने आप को हुक्म दे दिया था फिर आप साबित क़दम क्यों न रहे। अबू-बक्र (रज़ि०) बोले कि अबू-क़हाफ़ा के बेटे (यानी अबू-बक्र) की ये हैसियत न थी कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) के सामने नमाज़ पढ़ा सकें। फिर रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने लोगों की तरफ़ ख़िताब करते हुए फ़रमाया कि अजीब बात है। मैंने देखा कि तुम लोग कसरत से तालियाँ बजा रहे थे। (याद रखो) अगर नमाज़ में कोई बात पेश आ जाए तो सुब्हान अल्लाह कहना चाहिये जब वो ये कहेगा तो उसकी तरफ़ तवज्जोह की जाएगी और ये ताली बजाना औरतों के लिये है।
सहीह बुख़ारी: हदीस 684
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इमाम मालिक ने अबू-हाज़िम से और उन्होंने हज़रत सहल-बिन-सअद साइदी (रज़ि०) से रिवायत की कि रसूलुल्लाह ﷺ बनू-अम्र -बिन-औफ़ के हाँ, उन के बीच सुलह कराने के लिये तशरीफ़ ले गए। इस दौरान में नमाज़ का वक़्त हो गया तो मुअज़्ज़न अबू-बक्र (रज़ि०) के पास आया और कहा : क्या आप लोगों को नमाज़ पढ़ाएँगे ताकि मैं तकबीर कहूँ? अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा : हाँ। उन्हों (सहल-बिन-सअद (रज़ि०)) ने कहा : इस तरह अबू-बक्र (रज़ि०) ने नमाज़ शुरू कर दी, इतने मैं रसूलुल्लाह ﷺ आए जब कि लोग नमाज़ में थे, आप बच कर गुज़रते हुए (पहली) सफ़ में पहुँच कर खड़े हो गए। इस पर लोगों ने हाथों को हाथों पर मार कर आवाज़ करनी शुरू कर दी। अबू-बक्र (रज़ि०) अपनी नमाज़ में किसी और तरफ़ तवज्जोह नहीं देते थे। जब लोगों ने मुसलसल हाथों से आवाज़ की तो वो मुतवज्जेह हुए और रसूलुल्लाह ﷺ को देखा तो रसूलुल्लाह ﷺ ने उन्हें इशारा किया कि अपनी जगह खड़े रहें, इस पर अबू-बक्र (रज़ि०) ने अपने दोनों हाथ उठाए और अल्लाह का शुक्र अदा किया कि रसूलुल्लाह ﷺ ने उन को इस बात का हुक्म दिया, फिर इस के बाद अबू-बक्र (रज़ि०) पीछे हट कर सफ़ में सही तरह खड़े हो गए और रसूलुल्लाह ﷺ आगे बढ़े और आपने नमाज़ पढ़ाई। जब आप फ़ारिग़ हुए तो फ़रमाया : ऐ अबू-बक्र ! जब मैंने तुम्हें हुक्म दिया तो अपनी जगह टिके रहने से तुम्हें किस चीज़ ने रोक दिया?" अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा : अबू-क़ुहाफ़ा के बेटे के लिये ज़ेबा नहीं था कि वो रसूलुल्लाह ﷺ के आगे (खड़े हो कर) जमाअत किराए, फिर रसूलुल्लाह ﷺ ने (सहाबा किराम (रज़ि०) की तरफ़ मुतवज्जेह हो कर) फ़रमाया : क्या हुआ ? मैंने आप लोगों को देखा कि आप बहुत तालियाँ बजा रहे थे? जब नमाज़ में तुम्हें कोई ऐसी बात पेश आ जाए (जिस पर तवज्जोह दिलाना ज़रूरी हो) तो सुब्हानल्लाह कहो, जब कोई सुब्हानल्लाह कहेगा तो उस की तरफ़ तवज्जोह की जाएगी। हाथ पर हाथ मारना, सिर्फ़ औरतों के लिये है।
सहीह मुस्लिम: हदीस 421
अगर इमाम साहब क़िरात (सूरह) भूल जाएँ
अगर सिर्फ एक आयत या सूरह भूल जाएँ और चुप हो जाएँ, तो मुक़तदी (पीछे नमाज़ पढ़ने वाले) को चाहिए कि "सुब्हानल्लाह" ज़ोर से कहे।
हदीस: हज़रत सहल बिन सअद (रज़ि.) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
"जब इमाम को नमाज़ में कुछ हो (भूल या गलती हो) तो मर्द ‘सुब्हानल्लाह’ कहें और औरतें ताली (हथेली पर हथेली मारें)"।
📕 (सहीह बुख़ारी: हदीस 684, सहीह मुस्लिम: हदीस 421)
इस से इमाम को याद आ जाता है कि गलती हुई है।
मुक़तदी का तरीका
मुक़तदी को सिर्फ "सुब्हानल्लाह" कहना चाहिए (ज़ोर से, लेकिन इतना कि इमाम को सुनाई दे)।
सीधे अल्फ़ाज़ में इमाम को बुलाना या बोलना नमाज़ को तोड़ देगा, इसलिए सिर्फ यही तरीका सही है।
अगर इमाम साहब क़िरात भूल जाएँ → मुक़तदी "सुब्हानल्लाह" कहे।
अगर पूरी रकअत भूल जाएँ → मुक़तदी "सुब्हानल्लाह" कह कर याद दिलाए, फिर इमाम बाक़ी पूरी करके सज्दा-ए-सहव करे।
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