मुरादाबाद की जामा मस्जिद की तारीख पर बात करें
तो ये पीतल नगरी के नाम से विख्यात मुरादाबाद शहर के पूर्वी छोर पर रामगंगा नदी किनारे स्थित जामा मस्जिद अपने अंदर चार सौ सालों का इतिहास समेटे हैं। इसका विशाल भवन प्राचीन मुगलकालीन स्थापत्य कला व आधुनिक निर्माण शैली का अद्भुत संगम है। मस्जिद परिसर में एक साथ दस हजार लोग नमाज अदा कर सकते हैं। सामने के पार्क व अन्य स्थानों को मिलाकर सत्तर हजार से अधिक लोग विशेष दिनों में यहां नमाज अदा करते हैं। शहर इमाम सैयद मासूम अली आजाद के अनुसार तत्कालीन मुगल शासक शाहजहां के वजीर रुस्तम खां ने सोलह सौ सैंतीस इसवी में रामगंगा नदी के किनारे इस मस्जिद का निर्माण कराया था। उन्होंने मस्जिद की तीन दरों को बनवाया था, इसमें पूरी तरह मुगलकालीन स्थापत्य कला का प्रयोग किया गया था। बाद में किसी कारण से रुस्तम खां यहां से चले गए और यह मस्जिद बंद व वीरान हो गई। कालांतर में शहर के सय्यद आलिम अली दीनी तालीन के लिए दिल्ली गए। वर्ष अठारह सौ अड़तीस में उनके उस्ताद मोहम्मद शाह इशाक देहलवी के निर्देश पर दीनी प्रचार-प्रसार को वो वापस मुरादाबाद आए तब उनकी नजर मस्जिद पर पड़ी। इसके बाद उन्होंने जामा मस्जिद खुलवाई व उसे आबाद कराया। सय्यद आलिम अली ही इस जामा मस्जिद के पहले इमाम बने। ब्रिटिश काल से लेकर अब तक इस मस्जिद में कई दरें, मीनार व गुंबदों का निर्माण कराया गया। शहर इमाम सय्यद मासूम अली आजाद ने बताया अब मस्जिद में तीन से बढ़कर सात दरें हो गई हैं। परिसर में मार्बल लगवाए गए हैं। बड़ा गलियारा, वजू के लिए हौज व वजू खाना का भी निर्माण कराया गया है। मस्जिद के चार विशाल प्रवेश द्वार हैं। इतना ही नहीं मस्जिद के अंदर दो आधुनिक झूमर लैप व गलियारे में तीन लैंप लगे हैं, जो आकर्षण का केंद्र हैं। इसके अलावा पंखा, लाइट्स आदि का भी बेहतरीन इंतजाम मस्जिद में है।केबीसी में अमिताभ बच्चन भी कर चुके हैं इसका जिक्र शायद यह पहली जामा मस्जिद है जिसका निर्माण किसी नदी के तट पर हुआ है। चर्चित टीवी प्रोग्राम 'कौन बनेगा करोड़पति' में प्रस्तोता अमिताभ बच्चन ने एक सवाल पूछा था कि 'देश की वह कौन सी जामा मस्जिद जिसका निर्माण नदी तट पर कराया गया है व किस शहर में स्थित है?'। केबीसी में पूछा गया सवाल भी इस मस्जिद के खास होने की पुष्टि करता है। मस्जिद में फारसी भाषा में शिला पट्टिका लगी है। बताया जाता है कि इसमें निर्माण कराने वाले का नाम, समय आदि का जिक्र किया गया है।एक ही परिवार की नौवीं पीढ़ी कर रही इमामत जामा मस्जिद मुरादाबाद व इदागाह के इमाम एक ही परिवार से रहे हैं। जामा मस्जिद को अठारह सौ अड़तीस में सय्यद आलिम अली जी ने खुलवाकर आबाद कराया था। वो कई सालों तक इमाम रहे। उनके बाद क्रमश: मौलाना सय्यद हासिम अली, सय्यद मुबारक अली, सय्यद दाईम अली, सय्यद फाहिम अली, सय्यद हालिम अली, सय्यद इकराम अली इसके इमाम हुए। इसके बाद डॉक्टर सय्यद कमाल जी इमाम बनाए गए, जिनका इंतकाल उन्नीस सौ सतासी में हुआ। डॉक्टर. सय्यद कमाल के बाद वर्तमान इमाम हाकिम सय्यद मासूम अली आजाद जी को इमाम की जिम्मेदारी सौंपी गई। सय्यद मासूम अली आजाद की माने तो वो परिवार से नौवें इमाम हैं।मुरादाबाद की जामा मस्जिद आज भी अपनी तारीख़, फ़नकारी और रूहानी फ़ज़ा की वजह से न सिर्फ़ मुसलमानों के लिए बल्कि हर मज़हब के लोगों के लिए भी दिलचस्पी का मरकज़ है।मुरादाबाद एक सनअती शहर, कमीशनरी और नगर निगम है जो उत्तर प्रदेश के ज़िला मुरादाबाद में वाके है। यह शहर रामगंगा दरिया के किनारे पर बसा हुआ है और दिल्ली से एक सौ बानवे किलोमीटर (एक सौ उन्नीस मील) और लखनऊ से तीन सौ छप्पन किलोमीटर दूर है। दो हजार ग्यारह की जनगणना के मुताबिक, यह उत्तर प्रदेश का दसवां सबसे ज़्यादा आबादी वाला शहर है और पूरे मुल्क में चौवन वें नंबर पर आता है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बड़े शहरों में से एक है और रोज़गार, तालीम, सनअत, तहज़ीब और इंतेज़ाम का अहम मरकज़ है। इस शहर को "पीतल नगरी" के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहां के मशहूर पीतल के दस्तकारी के सामान पूरी दुनिया में एक्सपोर्ट किए जाते हैं। हाल के दशकों में, यह शहर दूसरी मेटल इंडस्ट्रीज़ जैसे एल्यूमीनियम, स्टील और लोहे के काम का भी अहम मरकज़ बन गया है। अपने चार सदी के वजूद में इस शहर ने कई हुकूमतों का दौर देखा है। पहले यह दिल्ली सल्तनत का हिस्सा था, फिर मुग़ल हुकूमत के दौर में तरक्की की। सत्रह सौ बयालीस में इसे रोहिलखंड सल्तनत में शामिल कर लिया गया। सत्रह सौ चौहत्तर में पहली रोहिल्ला जंग के बाद, यह अवध के नवाब के क़ब्जे में आ गया। अठारह सौ एक में अवध के नवाब ने इसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हवाले कर दिया। उन्नीस वीं सदी के शुरू में, अंग्रेज़ों ने रोहिलखंड के इलाके को रामपुर रियासत और दो जिलों, बरेली और मुरादाबाद, में तक़सीम कर दिया। मुरादाबाद शहर मुरादाबाद जिले का हेडक्वार्टर बन गया। उन्नीस वीं सदी के आखिरी हिस्से में मुरादाबाद को रेलवे लाइनों से जोड़ा गया। अठारह सौ बहत्तर में मुरादाबाद से चंदौसी तक लाइन बनाई गई और अठारह सौ तिहत्तर में इसे बरेली तक बढ़ा दिया गया। बरेली-मुरादाबाद कॉर्ड अठारह सौ चौरानबे में तैयार हुआ, जिसे अठारह सौ छियासी में सहारनपुर तक बढ़ाया गया। चंदौसी के रास्ते अलीगढ़ तक शाखा लाइन अठारह सौ चौरानबे में खोली गई, जबकि उन्नीस सौ में मुरादाबाद को गाज़ियाबाद से जोड़ा गया। मुरादाबाद, उत्तरी रेलवे के मुरादाबाद डिविज़न का डिविज़नल हेडक्वार्टर भी है। दिल्ली सल्तनत के दौर (बारह वीं सदी से सोलह वीं सदी) में, मुरादाबाद काठेर क्षेत्र का हिस्सा था, और यह काठेरिया राजपूतों का गढ़ माना जाता था। काठेरिया राजपूत अपने मुस्लिम हुक्मरानों के खिलाफ बगावत और अचानक हमलों के लिए मशहूर थे। इसी वजह से हुक्मरान भी इस इलाके पर बार-बार हमले करते और इसे जितना हो सके लूटने और तबाह करने की कोशिश करते थे। बारह सौ से चौदह चौबीस के बीच दिल्ली सल्तनत के अलग-अलग दौर के हुक्मरानों ने इस इलाके पर कई बार हमले किए। हर बार उनका मकसद इस इलाके को पूरी तरह तबाह करना और इसके तमाम बाशिंदों को खत्म कर देना होता था। हालांकि, काठेरिया राजपूत बच निकलते क्योंकि वे जंगलों में छिपने में बहुत माहिर थे। यह खूनी सिलसिला आखिरकार चौदह चौबीस में खत्म हुआ, जब इस इलाके के खिज्र खान, जो उस वक्त खिलजी सल्तनत के लीडर थे, का इंतकाल हुआ। इसके बाद, काठेरिया राजपूतों के एक अहम लीडर, हर सिंह ने दिल्ली सल्तनत की हुकूमत को कबूल कर लिया। इसके बाद करीब दो सदियों तक इस इलाके में कोई अहम घटना नहीं हुई और यहां अमन-चैन कायम रहा। मुगल साम्राज्य (पंद्रह सौ उनतालीस -सत्तर सौ बयालीस)पंद्रह सौ तीस में, कटेहर का इलाका मुग़ल सल्तनत के क़ब्ज़े में आ गया। लेकिन जल्द ही मुग़ल बादशाह हुमायूं सल्तनत पर अपनी पकड़ खो बैठा और यह इलाका सूर सल्तनत के शेर शाह सूरी के हाथों फतह हो गया। इसके बाद यह इलाका सोलह साल तक सूर सल्तनत के तहत रहा, फिर हुमायूं ने इसे दोबारा अपने क़ब्ज़े में ले लिया। मुग़ल सल्तनत के दौरान, मुरादाबाद शहर को चौपला के नाम से जाना जाता था और यह मुग़लपुरा परगना का हिस्सा था, जो आइने-अकबरी के मुताबिक, संभल सरकार के अधीन था। इस इलाके से शाही खज़ाने के लिए तेरह लाख चालीस हजार आठ सौ बारह दम की आमदनी होती थी और मुग़ल फ़ौज को पांच सौ पैदल सिपाही और सौ घुड़सवार मुहैया कराए जाते थे।मुरादाबाद की तारीख़ का सबसे अहम वाक़िया सोलह सौ चौबीस में पेश आया। उस साल रामपुर के एक कटेरिया सरदार राजा राम सिंह ने तराई के इलाके पर हमला किया। कुमाऊं के राजा ने इस मामले की शिकायत मुग़ल बादशाह शाहजहां से की। शाहजहां ने संभल के गवर्नर और अपने जनरल रुसतम खान दक्खनी को इस फसाद को खत्म करने का हुक्म दिया। रुसतम खान ने चौपला पर क़ब्ज़ा किया, राजा राम सिंह को क़त्ल किया, और इस शहर को दोबारा रुसतमनगर के नाम से बसाया। उन्होंने रामगंगा नदी के किनारे एक नया किला और शानदार जामा मस्जिद तामीर कराई और संभल से राजधानी इस नए शहर में मुन्तकिल कर दी। ये जामा मस्जिद नदी के किनारे बनने वाली पहली मस्जिद थी और आज भी मौजूद है, जिसमें सोलह सौ बत्तीस की तारीख़ दर्ज है। शाहजहां को हालांकि रुसतम खान के इन अमलात से ज्यादा खुशी नहीं हुई। उन्होंने रुसतम खान को अपने दरबार में बुलाया और पूछा कि उन्होंने बादशाह के हुक्म से आगे क्यों कदम बढ़ाए और नए शहर का क्या नाम रखा। रुसतम खान ने बादशाह के मूड को भांपते हुए बहुत होशियारी से जवाब दिया कि उन्होंने इस शहर का नाम शाहजहां के बेटे शहज़ादे मुराद बख्श की शान में "मुरादाबाद" रखा है। इस पर बादशाह राज़ी हो गए और रुसतम खान को इस शहर का इंचार्ज रहने दिया। रोहिलखंड राज्य (सत्रह सौ बयालीस -सत्रह सौ चौहत्तर )सत्तर सौ तीस के दशक में, कई अफ़ग़ान क़बीलों के लोग, जिन्हें मिलाकर रोहिल्ले कहा जाता है, नादिर शाह के हमले के कारण अफ़ग़ानिस्तान से भाग रहे थे। वे बड़ी तादाद में आए और कतहर इलाके के हर हिस्से में बस गए, जिनमें मुरादाबाद भी शामिल था। इन्हीं में से एक अली मोहम्मद ख़ान ने इस इलाके में खासा ज़मीनी इलाका हासिल किया और मुरादाबाद के मुग़ल गवर्नर शेख़ अज़मतुल्लाह की सरपरस्ती में नवाब का दर्जा हासिल कर लिया। उन्होंने सत्रह सौ बयालीस में मुग़ल सल्तनत की सरपरस्ती में रुहेलखंड रियासत की बुनियाद रखी, जिसमें मुरादाबाद जिला, बरेली, रामपुर और अमरोहा शामिल थे। इस इलाके ने रोहिल्लों के दौर में काफी तरक्की की, हालांकि अहमद शाह अब्दाली और मराठाओं के हमलों का सामना भी करना पड़ा। लेकिन अपने आखिरी हमले में मराठाओं ने संभल और मुरादाबाद शहरों को पूरी तरह से लूट कर तबाह कर दिया। ओध राज्य (सत्रह सौ चौहत्तर -अठारह सौ एक )नवाब-ए-अवध, शुजाउद्दौला ने रोहिल्लों से ये वादा किया था कि वो मराठों को पूरे रोहिलखंड के इलाके से निकाल बाहर करेंगे, और इसके बदले उन्हें चालीस लाख की रकम दी जाएगी। नवाब ने अपना वादा निभाया और मराठों को वहां से निकाल दिया, लेकिन आखिरकार रोहिल्ले अपने वादे से मुकर गए और तय की गई रकम अदा नहीं की। इसके बाद नवाब-ए-अवध ने पूरे रोहिलखंड पर अपना हक जताया और इस इलाके के शहरों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। उन्होंने रोहिला नेताओं को अपने असर में लेना शुरू कर दिया, जिनमें मुरादाबाद के गवर्नर भी शामिल थे। आखिरकार, नवाब ने सत्रह सौ चौहत्तर में मीरांपुर कटरा की जंग में रोहिला नेता हाफिज रहमत खान को शिकस्त दी। इस जीत के साथ रोहिलखंड की हुकूमत खत्म हो गई और इसका पूरा इलाका, जिसमें मुरादाबाद भी शामिल था, अवध की हुकूमत में चला गया।
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लेकिन तब तक मुरादाबाद मराठों के हमलों की वजह से पहले ही तबाह हो चुका था। अवध की हुकूमत के दौरान भी इस शहर की हालत और ज्यादा खराब होती चली गई। ब्रिटिश साम्राज्य (अठारह सौ एक -उन्नीस सौ सैंतालीस )ओध राज्य ने ब्रिटिश साम्राज्य के सामने अपनी कर्ज़ों का भुगतान करने के लिए अठारह सौ एक में रोहिलखंड क्षेत्र को ब्रिटिश साम्राज्य को सौंप दिया था। यह कदम ब्रिटिश सैनिकों को ओध राज्य में तैनात रखने और सुरक्षा के बदले में लिया गया था। इसके बाद मुरादाबाद ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन आ गया और इसके इतिहास का एक नया अध्याय शुरू हुआ। ब्रिटिश शासन के तहत शहर की पहले से ही खराब आर्थिक हालत और भी बिगड़ गई, क्योंकि उनकी नीतियाँ ज़मींदारों की स्थिति को पूरी तरह से नजरअंदाज करती थीं और एक नई ज़मींदारी वर्ग बनाने की कोशिश की जाती थी, जिसके लिए नीलामी प्रणाली अपनाई गई थी। ज़मींदार इस स्थिति में अपनी ज़मीनों की रक्षा के लिए ज़बरदस्ती का सहारा लेते थे। वहीं, आम आदमी भी अच्छे हालात में नहीं था। औसत आय और मज़दूरी आधी से भी कम हो गई थी, जो मज़दूर वर्ग में असंतोष पैदा कर रही थी। यह असंतोष अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के रूप में ब्रिटिश शासन के खिलाफ फट पड़ा। अठारह सौ सत्तावन का बगावत अठारह सौ सत्तावन की भारतीय बगावत के दौरान मुरादाबाद उन इलाकों में से एक था जहाँ ब्रिटिश अफसरों को भागना पड़ा और विद्रोहियों ने एक वैकल्पिक सरकार बनाई। दूसरे इलाकों के मुकाबले जहां विद्रोह मुख्य रूप से सिपाहियों और कुछ अव्यवस्थित तत्वों तक सीमित था, मुरादाबाद में जनता (जमीनदारों के साथ-साथ आम लोग भी) ने इसे समर्थन दिया, क्योंकि ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के चलते लोग बहुत परेशान थे। पंद्रह मई अठारह सौ सत्तावन को बीस वीं नेटिव इंफैंट्री के विद्रोही सिपाहियों और उनतीस वीं नेटिव इंफैंट्री की ताकतों के बीच एक भयंकर लड़ाई हुई, जो कलेक्टर जेसी विल्सन के नेतृत्व में थी। एक सिपाही मारा गया, जबकि आठ सिपाही पकड़े गए और उन्हें बंदी बना लिया गया। लेकिन तीन दिन बाद, उन्नीस मई को उनतीस वीं नेटिव इंफैंट्री में भी विद्रोह भड़क उठा और जिला कारागार तोड़कर एक सौ सत्तर बंदी सिपाही और विद्रोही फरार हो गए।आठ मई को बरेली में म्यूटिनी की खबर मुरादाबाद पहुंची, और इसका असर तत्काल हुआ। उनतीस वीं नेटिव इंफैंट्री के सिपाहियों ने ब्रिटिश खजाने पर कब्जा कर लिया और अपने अंग्रेजी अफसरों को चुनौती दी। ब्रिटिश अफसरों और उनके परिवारों को नैनिताल की पहाड़ियों की ओर भागना पड़ा, और जो नहीं भाग सके, उन्हें विद्रोहियों ने मौत के घाट उतार दिया।
नवाब मज्जू खान, जो विद्रोहियों के नेता थे और शेख आज़मतुल्लाह के वंशज थे, मुरादाबाद के नए गवर्नर बने। वह तब तक शासन करते रहे जब तक तेईस जून को असद अली खान ने, जो रामपुर के नवाब यूसुफ अली खान के चाचा थे और ब्रिटिश साम्राज्य की मदद कर रहे थे, उन्हें सत्ता से हटा नहीं दिया। लेकिन नवाब-रामपुर ने मुरादाबाद पर कोई खास नियंत्रण नहीं रखा, क्योंकि शहर में अंग्रेजों और उनके समर्थकों के खिलाफ जनता में गुस्सा और नाराजगी का माहौल था। इस कारण शहर में हिंसा और अराजकता का सिलसिला जारी रहा।इक्कीस अप्रैल अठारह सौ अट्ठावन को अंग्रेज़ एक बड़ी फौज के साथ शहर में वापस आए और आज़ादी के मतवालों को गिरफ़्तार करना शुरू किया। जो भी पकड़ा गया, उन्हें खौफनाक तरीकों से कत्ल किया गया ताकि लोगों में दहशत फैलाई जा सके। कुछ को गोली मार दी गई, कुछ को फांसी पर लटका दिया गया, और कईयों को ज़िंदा चूने की भट्टियों में डाल दिया गया। नवाब मज्जू खान को भी गिरफ्तार करके गोली मार दी गई और उनकी लाश को गलशहीद इलाके में इमली के पेड़ से लटका दिया गया। तीस अप्रैल अठारह सौ अट्ठावन को मुरादाबाद पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा फिर से कायम हो गया।
सिविल डिसऑबेडियंस मूवमेंट और क़्विट इंडिया मूवमेंट मतलब सिविल डिसऑबेडियंस मूवमेंट: यह आंदोलन उन्नीस सौ तीस में महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ शुरू किया। गांधी जी ने अंग्रेजों से कहा कि वे भारतीयों की शोषण वाली नीतियों को बंद करें और उन्हें अपनी आज़ादी दें। इस आंदोलन के दौरान गांधी जी ने नमक कानून को तोड़ने का आह्वान किया, जिसे "नमक सत्याग्रह" कहा गया। इसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध करना था। इस आंदोलन ने भारतीयों के बीच एकजुटता और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गहरी नफरत पैदा की। क़्विट इंडिया मूवमेंट: क़्विट इंडिया मूवमेंट, जिसे उन्नीस सौ बयालीस में महात्मा गांधी ने शुरू किया, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अहम मोड़ था। यह आंदोलन ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ था और इसका मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश सरकार से पूरी तरह से भारत छोड़ने की मांग करना। गांधी जी ने इस आंदोलन में 'भारत छोड़ो' का नारा दिया, और उन्होंने कहा कि अगर ब्रिटिश भारत नहीं छोड़ते तो उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। यह आंदोलन एक ऐसी निर्णायक लड़ाई थी, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीयों की इच्छाशक्ति और संघर्ष की शक्ति दिखाई दी।यह दोनों आंदोलनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महत्वपूर्ण अध्याय थे, जिनमें लाखों भारतीयों ने अपनी जान की परवाह किए बिना ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष किया और आखिरकार देश को स्वतंत्रता मिली।सविनय अवज्ञा आंदोलन को उर्दू में शराफ़त से नाफरमानी की तहरीक कहा जा सकता है। ये तहरीक महात्मा गांधी की क़ियादत में शुरू हुई थी, जिसमें लोगों को कहा गया कि वो ग़ैर इंसाफ़ी कानूनों को मानने से इंकार कर दें, लेकिन ये सब पुरअम्न तरीके से करना है। इसका मकसद अंग्रज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना था।भारत छोड़ो आंदोलन को उर्दू में हिंदुस्तान छोड़ो तहरीक कहा जा सकता है। ये भी गांधी जी की क़ियादत में उन्नीस सौ बयालीस में शुरू हुई थी। इसका मकसद अंग्रज़ी हुकूमत से ये मांग करना था कि वो हिंदुस्तान को आज़ाद छोड़ दें। इस तहरीक में पूरे मुल्क के लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था और ये आज़ादी की जंग का बहुत अहम हिस्सा था।मोरादाबाद ने महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहमति और भारत छोड़ो आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। असहमति आंदोलन की योजना उन्नीस सौ बीस में ओध राज्य कांग्रेस के सम्मेलन में बनाई गई थी, जो मोरादाबाद में हुआ था। इस सम्मेलन में कांग्रेस पार्टी के सभी बड़े नेताओं ने भाग लिया था, जिनमें पंडित नेहरू, सरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट आदि शामिल थे।जब उन्नीस सौ बत्तीस में यह आंदोलन शुरू हुआ, तो मोरादाबाद के लोगों ने भी इसमें भाग लिया और अवैध गिरफ्तारियों और स्वतंत्रता सेनानियों पर होने वाले दमन का विरोध किया। वहीं, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मोरादाबाद में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई, जिसमें पन दरिबा में एक नरसंहार हुआ, जिसमें छह लोग मारे गए और दो सौ से ज्यादा लोग घायल हुए, जब पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं। इसके बाद भी शहर में और विरोध प्रदर्शन हुए और ब्रिटिश शासकों द्वारा आंदोलन को दबाने के लिए अपनाए गए दमनकारी तरीकों के खिलाफ लोगों ने आवाज उठाई। स्वतंत्रता के बाद (उन्नीस सौ सैंतालीस -आज तक) भारत उन्नीस सौ सैंतालीस में स्वतंत्र हुआ, और चूँकि मोरादाबाद उस समय किसी भी रियासत का हिस्सा नहीं था, यह सीधे स्वतंत्र भारत का हिस्सा बन गया। इसके बाद शहर का औद्योगिकीकरण हुआ और लोगों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए यहाँ विकास की दिशा में काम किया गया। यह शहर तीन दशकों तक शांति से रहा। हालांकि,
उन्नीस सौ अस्सी में एक बड़ा हिंदू-मुस्लिम दंगा हुआ, जिसने इस शहर को राष्ट्रीय ध्यान में ला दिया। उन्नीस सौ अस्सी के मुरादाबाद दंगे उन्नीस सौ अस्सी के मोरादाबाद दंगे भारत के मोरादाबाद शहर में अगस्त से नवम्बर उन्नीस सौ अस्सी के बीच हुए थे। तेरह अगस्त को ईद के मौके पर जब एक सुअर स्थानीय ईदगाह में घुस गया, तो वहां के मुसलमानों ने पुलिस से उसे हटाने की गुजारिश की। लेकिन पुलिस ने इसे करने से इनकार कर दिया। इससे पुलिस और मुसलमानों के बीच टकराव हुआ। पुलिस ने बेतहाशा गोलीबारी शुरू कर दी, जिसके चलते कई लोग मारे गए। इसके बाद एक के बाद एक हिंसक घटनाएं हुईं, जिनका रूप धार्मिक हो गया। इसके परिणामस्वरूप लूटपाट, आगजनी और हत्याओं का सिलसिला शुरू हो गया।यह हिंसक घटनाएँ नवम्बर उन्नीस सौ अस्सी तक जारी रहीं। मृतकों की कुल संख्या अभी भी स्पष्ट नहीं है: जस्टिस एम.पी. सक्सेना कमेटी की रिपोर्ट में साम्प्रदायिक दंगों में तिरासी मौतें बताई गईं। हालांकि अनौपचारिक रिपोर्टों में मौतों की संख्या सैकड़ों तक, यहाँ तक कि पच्चीस सौ तक बताई जाती है। दंगों ने शहर की प्रसिद्ध पीतल उद्योग को बुरी तरह प्रभावित किया, जिसके कारण उत्पादन और निर्यात की दर में भारी गिरावट आई। मुरादाबाद में हिंदू-मुस्लिम दंगों का इतिहास रहा है; पहला दंगा अठारह सौ अड़तालीस में हुआ, उसके बाद अठारह सौ बहत्तर में दूसरा। अठारह सौ अस्सी के दशक में शहर में हिंदू मतदाताओं की संख्या ज्यादा थी, लेकिन नगरपालिका के मुस्लिम सचिव हमेशा वार्ड की सीमाओं को इस तरह खींचते थे कि हिंदू एक ही वार्ड में संकेंद्रित हो जाएं, जबकि मुसलमानों को बाकी के पाँच वार्डों में बहुमत मिलता था। नतीजतन, मुसलमानों को नगरपालिका में हमेशा बहुमत हासिल होता था। हिंदूओं द्वारा विरोध किए जाने के बाद, वार्ड की सीमाओं को फिर से खींचा गया और हिंदूओं को नगरपालिका में बहुमत मिला। दोनों समुदायों ने अपनी धार्मिक हितों को साबित करने के लिए प्रशासनिक ताकत का इस्तेमाल किया, जिससे साम्प्रदायिक दुश्मनी बढ़ी। उन्नीस सौ तीस के दशक में, मुस्लिम लीग, जो मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग कर रही थी, मुरादाबाद में लोकप्रिय हो गई। स्थानीय नेता और वकील काजी तसलीम हुसैन ने मुरादाबाद रेलवे स्टेशन के पास स्थित इस्लामिक मुसाफिर खाना को शहर में अलगाववादी राजनीति का केंद्र बना दिया। वहीं हिंदू संगठनों जैसे आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शहर में अखाड़े आयोजित किए और मुसलमानों के खिलाफ प्रचार किया। भारत के विभाजन के बाद, जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस में शहर में बड़े पैमाने पर दंगे भड़क उठे। फिर उन्नीस सौ अठहत्तर में, साम्भल (जो तब मुरादाबाद जिले का हिस्सा था) में हिंदू-मुस्लिम हिंसा फिर से भड़की।मार्च उन्नीस सौ अस्सी में एक दलित लड़की का अपहरण करने के बाद हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ चुका था। वह लड़की बाद में बचा ली गई थी और उसके अपहरणकर्ता को गिरफ्तार कर लिया गया था। जुलाई में, जब लड़की की शादी एक दलित लड़के से होने वाली थी, तो कुछ मुसलमानों ने शादी के जुलूस को मस्जिद के पास तेज़ संगीत बजाने पर रुकवा दिया। यह बहस जल्द ही हिंसक झड़प में बदल गई, जिसके बाद कई घरों को लूटा गया। तेरह अगस्त उन्नीस सौ अस्सी को, एक पालतू सूअर दलित बस्ती से निकल कर ईदगाह के पास आ गया, जहां लगभग पचास हजार मुसलमान ईद की नमाज़ अदा कर रहे थे। मुसलमानों के लिए सूअर को हराम माना जाता था, और उन्हें यह यकीन था कि यह सूअर जानबूझकर हिंदू दलितों द्वारा छोड़ा गया है। उन्होंने एक पुलिस वाले से सूअर को भगाने को कहा, लेकिन उसने मना कर दिया, जिसके बाद एक गर्मा-गर्म बहस छिड़ गई। हिंसा उस समय भड़की जब कुछ मुसलमानों ने पुलिसकर्मियों पर पत्थर फेंके।इस घटना में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के माथे पर पत्थर लगने से वे बेहोश हो गए, और अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) डीपी सिंह को कुछ लोगों ने खींचकर ले जाया, जिनकी बाद में लाश मिली। फिर पुलिस ने बेतहाशा गोलियां चलानी शुरू कर दीं।जब तक पुलिस बल को और ताज़ी मदद के तौर पर (PAC) की टुकड़ी के साथ ज़िला मजिस्ट्रेट वहां पहुंचे, कई मुसलमान मारे गए थे। गोलीबारी के बाद भगदड़ मच गई, जिसमें लगभग पचास लोग और मारे गए। मुस्लिम नेता सय्यद शाहबुद्दीन ने इस गोलीबारी की तुलना जलियांवाला बाग़ के नरसंहार से की।
ईदगाह में बची-खुची मुस्लिम भीड़ जल्द ही एक उग्र हुजूम में बदल गई, और उसने दलित बस्तियों में तिजारत और आगजनी की। मुस्लिमों ने शहर के अलग-अलग इलाकों में पुलिसकर्मियों को पीटा, और एक PAC कांस्टेबल को जिन्दा जला दिया। शाम होते-होते, एक मुस्लिम हुजूम ने गलशहीद पुलिस चौकी पर हमला किया, उसे आग के हवाले कर दिया, दो पुलिसकर्मियों को मार डाला और असलहे लूट लिए। इसके बाद पुलिस की तरफ से हिंसक प्रतिकार हुआ। अगले दिन, चौदह अगस्त को, जमात-ए-इस्लामी ने विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के मुस्लिम नेताओं की एक सभा आयोजित की और दंगों की निंदा करने वाला बयान जारी किया। इसके बाद, यह हिंसा धार्मिक रंग ले चुकी थी और मोरादाबाद जिले के ग्रामीण इलाकों तक फैल गई। यह हिंसा अलीगढ़ तक भी पहुँच गई। स्थिति को काबू करने के लिए सेना के जवान तैनात किए गए। दो सितंबर तक मोरादाबाद की स्थिति सामान्य हो गई और सेना की वापसी शुरू हो गई। हालांकि, हिंसा छोटे पैमाने पर नवंबर उन्नीस सौ अस्सी तक जारी रही। सितम्बर में, रक्षा बंधन के दिन एक बड़ा हिंसक वाक़िया हुआ। अक्टूबर के आखिर तक, चाकू मारने और हत्या की एक श्रृंखला में कम से कम चौदह लोगों की जानें गईं।”उन्नीस सौ अस्सी में हुए दंगों के दौरान, जब कांग्रेस के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब राज्य में हिंसा फैल गई। केंद्रीय मंत्री योगेंद्र माकवाना ने इस हिंसा के लिए आरएसएस, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को जिम्मेदार ठहराया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस हिंसा को "विदेशी ताकतों" (जो पाकिस्तान को संदर्भित करती थीं) और "सांप्रदायिक पार्टियों" द्वारा भड़काया गया बताया। टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन ने कहा कि मुसलमानों में "असामाजिक तत्व" हिंसा के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार थे और मुस्लिम नेताओं पर आरोप लगाया कि वे सच्चाई को स्वीकार करने के बजाय आरएसएस को दोषी ठहरा रहे थे। उन्होंने इंदिरा गांधी की "विदेशी हाथ" की थ्योरी को भी सही ठहराया और एक लेख प्रकाशित किया जिसमें उत्तर प्रदेश में पाकिस्तान से आने वाले नागरिकों की संख्या का जिक्र था। बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने मुस्लिम संगठनों को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया। सरकार ने हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति साक्सेना को दंगों की जांच करने के लिए नियुक्त किया। न्यायमूर्ति साक्सेना की रिपोर्ट, जो मई उन्नीस सौ तिरासी
में प्रस्तुत की गई थी, ने मुस्लिम नेताओं और वी. पी. सिंह को हिंसा के लिए दोषी ठहराया। पत्रकार और बीजेपी के सदस्य मोहब्बत जावेद अख़बर ने अपनी किताब *रायट आफ्टर रायट* में लिखा कि यह "हिंदू-मुसलमान का दंगा नहीं था बल्कि यह मुसलमानों का एक ठंडे दिल से किया गया नरसंहार था जिसे सांप्रदायिक पुलिस बल ने जनसंहार की कोशिश को छिपाने के लिए हिंदू-मुसलमान के दंगे का रूप दिया।"
इकॉनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संवाददाता कृष्णा गांधी ने दावा किया कि "अपराधियों का एक समूह, जिसे कुछ एमएल नेताओं का समर्थन था, इन हत्याओं के लिए जिम्मेदार था।" उनके अनुसार, फायरिंग तब हुई जब मुसलमानों ने पुलिसकर्मियों को पीटा, और पुलिस के द्वारा किए गए अत्याचार, उनके अनुसार, मुसलमानों के हमलों का प्रतिक्रिया थी।
उन्नीस सौ तिरासी में दंगे की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन किया गया था, जिसकी अध्यक्षता Allahabad High Court के सेवानिवृत्त जज जस्टिस माथुरा प्रसाद सक्सेना ने की थी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट नवंबर उन्नीस सौ तिरासी में पेश की, लेकिन successive सरकारों ने उसे सार्वजनिक नहीं किया। यह चार सौ छियानवे पन्नों की रिपोर्ट चालीस साल बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश की गई। रिपोर्ट में IUML के नेता डॉक्टर शमिम अहमद खान और उनके समर्थकों को दंगों का जिम्मेदार ठहराया गया। रिपोर्ट के अनुसार पुलिस की तरफ से की गई फायरिंग को आत्मरक्षा में सही ठहराया गया। शमिम खान ने जानबूझकर अफवाहें फैलायीं कि ईद के दिन ईदगाह में सुअर छोड़ दिए गए हैं, जिससे मुस्लिम समुदाय भड़क गया और उन्होंने पुलिस थानों और अन्य समुदायों पर हमला करना शुरू कर दिया।कमिशन ने यह भी कहा कि आरएसएस, बीजेपी या दलित संगठनों का इन दंगों में कोई हाथ नहीं था। मोरादाबाद उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख औद्योगिक शहर है और भारत के सबसे बड़े निर्यात हब में से एक है। यह राज्य सरकार द्वारा उन्नीस सौ निन्यानबे - दो हजार दो के औद्योगिक नीति में घोषित सात औद्योगिक कॉरिडोर में से एक है। शहर की अर्थव्यवस्था का अधिकांश हिस्सा इसके पीतल और धातु शिल्प उद्योग पर निर्भर है, जो धातु के हस्तशिल्प और अन्य सामान अस्सी से अधिक देशों में, जैसे उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया के अन्य हिस्सों में निर्यात करता है। इसके धातु शिल्प उद्योग का हिस्सा भारत के कुल हस्तशिल्प निर्यात का चालीस % से अधिक है।
देश की आजादी के लिए जंग लड़ने वालों में मुरादाबाद के मजीदुद्दीन उर्फ मज्जू खां का नाम हमेशा याद किया जाएगा। देश की आजादी में इन्होंने अपनी कुर्बानी दी थी। अंग्रेजों ने उन्हें बेहद दर्दनाक मौत दी थी। इतिहास के जानकार प्रवक्ता मुशाहिद हुसैन का कहना है कि आजादी की जंग के दौरान चौदह अप्रैल आठ सौ पचपन तक मुरादाबाद में हंगामा खत्म हो गया था। इस बीच पच्चीस अप्रैल को जालिम अंग्रेज जनरल जानसन गौरी फौज और सिख रेजीमेंट के साथ मुरादाबाद पहुंचा। इसके बाद क्रांतिकारियों ने फिर से अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी।इस दौरान अंग्रेज शासकों ने बीस क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करके फांसी पर लटका दिया था।
नवाब मज्जू खां अठारह वीं सदी में रुहेलखंड आए बहादुरों के परिवार से थे। मेरठ में अठारह सौ सत्तावन के गदर में एक व्यक्ति मेरठ के क्रांतिकारी की सूचना लेकर ग्यारह मई, अठारह सौ सत्तावन को मुरादाबाद आया।
===सूचना मिलते ही मुरादाबाद में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू हो गई। अंग्रेजों की सरकार ने बारह मई को अपने अधिकारी जीटीसी विलसन को मुरादाबाद भेजा। अठारह मई को अंग्रेज सेना की पलटन के सत्तर लोगों ने मेरठ से मुरादाबाद आकर आसपास के क्षेत्र में बगावत शुरू कर दी। इसके बाद तीस मई की शाम को बरेली से रेजीमेंट के चार सौ पैंतालीस लोग मुरादाबाद पहुंचे। अगले ही दिन सूबेदार मुहम्मद बख्श उर्फ बख्त खां और तोपखाना व पलटन नंबर अठारह से अड़सठ छावनी बरेली के लोग बागी हो गए। इतना ही नहीं उन्होंने अंग्रेजों को मुरादाबाद से भगा दिया था।हाथी के पैर में बांधकर शहर में घुमाया था नवाब मज्जू खां मेमोरियल कमेटी के अध्यक्ष वकी रसीद ने बताया कि नवाब मज्जू खां रामपुर नवाब की फौज के साथ लड़ते समय पैर में गोली लगने से घायल हो गए थे। यहीं उन्हें गिरफ्तार करके अंग्रेज अधिकारी निकलसन के सामने पेश किया गया। उसने उनके हाथ-पैर व हड्डियां तोड़ने का आदेश दिए। इसके बाद उन्हें ताजा चूने में डाल कर उन पर पानी डाला।इतना ही नहीं जालिमों ने उन्हें हाथी के पैर से बांध कर पूरे शहर में घुमाया। पच्चीस अप्रैल अठारह सौ अट्ठावन को उनकी लाश मुहल्ला गलशहीद में इमली के पेड़ से बांध कर लटका दी गई थी। सबकुछ अंग्रेजों ने लूट लिया। कई दिन तक मज्जू खां की लाश पेड़ पर लटकी रही। जुमे के दिन उनके शव को उतार कर अंग्रेजों ने मैदान में एक तरफ डलवा दिया। इसी बीच हजरत शाह मुकम्मल शाह रहमतुल्लाह अलैह के मजार की तरफ से दो लोग पहुंचे। उन्होंने मस्जिद पत्तन शहीद के पीछे उनके शव को दफन किया। हर साल पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी पर डीएम उनकी मजार पर चादरपोशी के लिए आते हैं। अंग्रेजों का नवाब मज्जू खां पर तक सीमित नहीं रहा। उनके बेटे अमीरुद्दीन, बहनोई शब्बीर अली खां और रफीउद्दीन खां पर भी अठारह सौ अट्ठावन में मुकदमा चलाकर उन्हें गोली मारकर शहीद कर दिया था। मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर मुरादाबाद के शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की फोटो गैलरी लगाई गई है. जबकि रेलवे स्टेशन पर आने वाले यात्री भी शहीदों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में दिलचस्पी दिखा रहे हैं.इन लोगों की लगाई गई फोटो स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में वैध हरिप्रसाद शर्मा, मास्टर राम कुमार, प्रोफेसर रामसरन चौधरी, शिव स्वरूप सिंह, पंडित मनुदत्त शास्त्री, राधा कृष्ण पूर्वी, हिकमत उल्ला खान, दाऊ दयाल खन्ना, मुनिदेव त्यागी, ख्यालीराम शास्त्री, रामअवतार दीक्षित, इफ्तिखार हुसैन फरीदी, हरिशंकर गर्ग, सहित अमर सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के फोटो रेलवे स्टेशन की गैलरी में लगाए गए हैं. रेलवे स्टेशन पर आने वाले यात्री भी शहीदों एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के बारे में दिलचस्पी दिखा रहे हैं.हमारी आजादी की बुनियाद में कई शहीदों का खून मिला है। उन्हीं में से एक नाम है मौलाना किफायत अली काफी मुरादाबादी। वह जंगे-आजादी के सच्चे योद्धा थे। उन्होंने अठारह सौ सत्तावन की क्रांति में भाग लिया था। छह मई अठारह सौ अट्ठावन को आजादी के इस दीवाने को मुरादाबाद की जेल के गेट पर फांसी दे दी गई थी। मौलाना सैय्यद किफायत अली काफी मुरादाबाद के एक रसूखदार परिवार से ताल्लुक रखते थे, लेकिन वतन की मोहब्बत ने उन्हें का मुजाहिद बनाकर अंग्रेजों के विरोध में खड़ा कर दिया था।उन्होंने इंकलाब की ऐसी लौ जलाई जिसने गुलामी के अंधेरे को मिटाने का काम किया। इतिहासकार लिखते हैं कि मौलाना किफायत साहब कलम के सिपाही भी थे। उन्होंने तारजुमा-ए-शैमिल-ए-त्रिमीज़ी, मजूमूआ-ए-चहल हदीस, व्याख्यात्मक नोट्स के साथ, खय़बान-ए-फ़िरदौस, बहार-ए-खुल्ड, नसीम-ए-जन्नत, मौलुद-ए-बहार, जज्बा-ए-इश्क, दीवान-ए-इश्क आदि किताबें लिखीं। जंगे आजादी के आंदोलन को चलाने में जिन उल्मा-ऐ-किराम का नाम आता है उनमें सबसे पहला नाम हजरते अल्लामा फजले हक खैराबादी का है। उनके बाद हजरत सैयद किफायत अली काफी का नाम आता है।उन्होंने अठारह सौ सत्तावन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ फतवा जारी करके मुसलमानों को जेहाद के लिए खड़ा किया। इसकी मंजिल सिर्फ आजाद भारत थी। वह जनरल बख्त खान रोहिल्ला की फौज में शामिल होकर दिल्ली आये। बाद में बरेली और इलाहाबाद तक गुलामी से लड़ते रहे। मुरादाबाद को अंग्रेजों से आजाद कराने के बाद मौलाना किफायत ने नवाब मजूद्दीन खान के नेतृत्व में अपनी सरकार बनाई। इसमें उन्हें सदरे-शरीयत बनाया गया व नवाब साहब को हाकिम मुकर्रर किया गया। इनके साथ अब्बास अली खान को तोपखाने की जिम्मेदारी सौंपी गई।डिस्ट्रिक गजेटियर (मुरादाबाद) में लिखा है कि मुसलमानों ने जिले भर में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ खुलकर आवाज बुलंद की। उधर, अंग्रेज हार चुके मुरादाबाद को जीतने के लिए रणनीति बनाने में जुटे थे। इस बात से बाखबर हो अंग्रेज अफसर जनरल मोरिस ने फौज के साथ इक्कीस अप्रैल अठारह सौ अट्ठावन को मुरादाबाद पर हमला किया। हमले में नवाब मजुद्दीन शहीद हो गए और जो अंग्रेजी हुकूमत के हत्थे चढ़ गए उनमें से अधिकांश को फांसी पर चढ़ा दिया गया। तीस अप्रैल को मौलाना किफायत अली काफी को गिरफ्तार किया गया। इसके बाद जंगे आजादी की मशाल जलाने वाले इस इंकलाबी को छह मई अठारह सौ अट्ठावन को जेल के गेट पर फांसी पर लटका दिया गया। जेल के गेट पर लगा पत्थर आज भी उनकी शहादत की गवाही दे रहा है। जेलर मृत्युंजय पांडेय ने बताया कि जेल में इस घटना का कोई प्रमाण फिलहाल मौजूद नहीं है। केवल जेल के गेट पर लगा पत्थर ही उनकी शहादत का गवाह है। अठारह सौ सत्तावन की पहली जंग-ए-आज़ादी मुरादाबाद जिले (जो आज के उत्तर प्रदेश में है) में उस वक्त शुरू हुई, जब तेरह मई अठारह सौ सत्तावन को मेरठ में हुई बगावत और ब्रिटिश सिपाहियों के कत्लेआम की ख़बर वहां पहुंची। मुरादाबाद इलाका इस बगावत का एक अहम मरकज़ बनकर उभरा, जहां भारतीय बाग़ियों और ब्रिटिश फौज के दस्तों के बीच शदीद झड़पें हुईं।यहां के मुक़ामी रहनुमा, जैसे अल्ला अली खान, सुबीर अली खान, अकबर अली, और दीगर ने बगावत की कियादत की। इनकी मदद के लिए हज़ारों भारतीय सिपाही और आम लोग शामिल हुए, जो अंग्रेज़ी हुकूमत से नाखुश थे। ये बगावत कई महीनों तक चली, और बाग़ियों ने इलाके के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में अंग्रेज़ी कब्जे का डटकर मुकाबला किया। जिले के मुख्तलिफ हिस्सों में मुन्तख़ब हुकूमतें भी क़ायम की गईं, जिन्हें मुक़ामी रहनुमाओं का साथ हासिल था। हालांकि, आख़िरकार ब्रिटिश फौज मुरादाबाद और मुल्क के दीगर हिस्सों में इस बगावत को कुचलने में कामयाब रही। मुरादाबाद में हुई इस पहली जंग-ए-आज़ादी ने आने वाली नस्लों को आज़ादी के लिए जद्दोजहद करने का जज़्बा और हौसला दिया। यह बगावत उन तमाम मुजाहिदीन-ए-आज़ादी के लिए एक मिसाल बनी, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की गुलामी से हिंदुस्तान को आज़ाद कराने की लड़ाई जारी रखी। सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी (अठारह सौ सत्तासी - उन्नीस सौ अड़तालीस ), जिन्हें सद्र-उल-अफाज़िल के नाम से भी जाना जाता है, एक भारतीय फ़क़ीह, आलिम, मुफ़्ती, क़ुरानी मुफ़स्सिर और शिक्षक थे। आप फ़लसफ़ा, ज्योमेट्री, मंतिक़ (तर्कशास्त्र), और हदीस के माहिर आलिम थे। साथ ही आप ऑल इंडिया सुन्नी कॉन्फ़्रेंस के क़ायद थे। आप एक बेहतरीन नातगो शायर भी थे। सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी एक जनवरी अठारह सौ सत्तासी (इक्कीस सफर तेरह सौ हिजरी) को मुरादाबाद, भारत में मुईनुद्दीन के घर पैदा हुए। उनका खानदान असल में मशहद, ईरान से ताल्लुक रखता था। बादशाह औरंगज़ेब के दौर-ए-हुकूमत में उनके ख़ानदान ने ईरान से हिंदुस्तान का सफर किया, जहां उन्हें शाही हुकूमत की तरफ़ से जागीर अता की गई। बाद में उनका ख़ानदान लाहौर पहुंचा और अबुल हसनात के करीब आबाद हो गया। सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी ने आठ साल की उम्र में क़ुरआन को हिफ्ज़ कर लिया। उन्होंने अपने वालिद से उर्दू और फ़ारसी अदब की तालीम हासिल की और शाह फज़ल अहमद से दर्स-ए-निज़ामी की तालीम मुकम्मल की। इसके बाद उन्होंने मज़हबी क़ानून की डिग्री शाह मोहम्मद गुल से हासिल की और उन्हीं से बैअत की। उन्होंने चौदह किताबें और कई रिसाले लिखे, जिनमें "खज़ाइन-उल-इर्फान" शामिल है, जो कि "कंज-उल-ईमान" के तर्जुमे पर आधारित तफ्सीर (कुरआन की व्याख्या) है। कंज-उल-ईमान का यह तर्जुमा आला हजरत अहमद रज़ा खान बरेलवी ने उर्दू में किया था। इसके अलावा उन्होंने अपने अशआर का एक मजमुआ "रियाज़-ए-नईम" (सुकून का बाग़) भी छोड़ा। मुरादाबादी की तसानीफ़ में शामिल हैं:तफ्सीर खज़ाइन-उल-इर्फान,नईम उल बयान फी तफ्सीर-उल-कुरआन ,सीरत-ए-सहाबा,अदब-उल-अख्यार ,सवानह-ए-कर्बला, सीरत-ए-सहाबा
और भी कई किताबें शामिल हैं। सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी अहमद रज़ा खान और सय्यद मोहम्मद अली हुसैन शाह अल-किचछौचवी के ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) थे।मुरादाबाद का नाम सुनते ही दिमाग में एक ऐसी जमीन का तसव्वुर आता है, जो अपनी तहज़ीब, हुनर और तारीख़ी एहमियत के लिए मशहूर है। इसी शहर के दामन में नईमुद्दीन मुरादाबादी का नाम भी वाबस्ता है, जो अपने दौर के एक अज़ीम शख्सियत थे।सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी ने बीस से ज्यादा किताबें और कई रिसाले तहरीर किए, जो इस्लामी मौजूआत की एक वसीअ रेंज को शामिल करते हैं। इन मौजूआत में अक़ाइद, फिक्ह, तारीख़ और शायरी शामिल हैं। यह वह दौर था जब हिंदुस्तान अंग्रेज़ों के शिकंजे में था। मुरादाबाद भी अंग्रेज़ी राज की सियासी और तहज़ीबी साज़िशों से महफूज़ नहीं था। सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी ने इस नाज़ुक दौर में अपनी बातों और अमल से न सिर्फ मुरादाबाद, बल्कि पूरे इलाके के लोगों में बेदारी (जागृति) पैदा की। उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ जद्दोजहद का आगाज़ उस दौर में किया, जब खौफ का आलम था। उनकी बातों में एक ऐसा असर था कि लोग उनको सुनने के लिए दूर-दूर से आते। उन्होंने अपने अंदाज़-ए-बयान से अंग्रेज़ी नज़्म-ओ-ज़ब्त के खिलाफ आवाज़ बुलंद की और अपने इलाके की तहज़ीब और माशरे को बचाने की पूरी कोशिश की। सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी ने मुरादाबाद में सिर्फ एक शख्सियत नहीं, बल्कि एक तहरीक (आंदोलन) की बुनियाद रखी। उनकी सोच और खिदमत को आज भी याद किया जाता है, जो उस दौर के लोगों को अपने हक के लिए खड़े होने का होसला देती थी। यह कहानी सिर्फ सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी की नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों की है, जिन्होंने अंग्रेज़ी राज में अपनी आज़ादी और पहचान के लिए आवाज़ उठाई। मुरादाबाद की सरज़मीं ने ऐसे कई सितारे दिए हैं, और सैयद नईमुद्दीन मुरादाबादी उनमें एक चमकता हुआ सितारा हैं।मुरादाबाद बिरयानी की तारीख और असलियत को अगर आसान अंदाज में समझाया जाए, तो ये बिरयानी उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर से निकलने वाली एक खास डिश है। इसे "यखनी बिरयानी" भी कहा जाता है, जो अपने हल्के मसालों और सादगी भरे स्वाद के लिए मशहूर है।मुरादाबाद बिरयानी का इतिहास बहुत पुराना है। कहा जाता है कि इसे नवाबों और शाही दस्तरख़ानों में भी पसंद किया जाता था, लेकिन ये गरीब तबके के लोगों के लिए भी सस्ती और आसानी से तैयार होने वाली डिश थी। इसका तरीका बाकी बिरयानियों से अलग है। इसमें ज्यादा तेज मसाले इस्तेमाल नहीं होते और इसे बिना तले हुए चावल और यखनी (मांस का पानी) के साथ पकाया जाता है।इस बिरयानी की ख़ासियत ये है कि इसका स्वाद बेहद हल्का और दिलकश होता है, जो मुरादाबाद की मिट्टी और उसके कल्चर की सादगी को बयां करता है। ये डिश सिर्फ स्वाद ही नहीं, बल्कि मुरादाबाद की गहरी तहज़ीब और खानपान की शान को भी पेश करती है। मुरादाबाद, जो अपनी पीतल कारीगरी और ऐतिहासिक विरासत के लिए मशहूर है, आज इंसानियत और आपसी भाईचारे की एक जीती-जागती मिसाल है। इस शहर की सबसे बड़ी पहचान यह है कि यहां हिंदू और मुस्लिम, दोनों मज़हबों के लोग साथ-साथ, मिल-जुलकर रहते हैं। उनका यह रिश्ता सिर्फ पड़ोसी या दोस्ती तक सीमित नहीं, बल्कि यह एक गहरी इंसानियत का रिश्ता है, जिसमें एक-दूसरे के सुख-दुख को समझने और बांटने की काबिलियत है।ईद हो या दिवाली, यह शहर हर त्योहार को मिलकर मनाने की रवायत को ज़िंदा रखे हुए है। मंदिरों से उठती घंटियों की आवाज़ और मस्जिदों से गूंजती अज़ानों के बीच यहां का माहौल हमेशा मोहब्बत और इत्तेहाद का पैग़ाम देता है।मुरादाबाद की गलियों में हर रोज़ यह देखने को मिलता है कि एक हिंदू दुकानदार किसी मुस्लिम ग्राहक की मदद करता है या एक मुस्लिम पड़ोसी अपने हिंदू भाई के घर की शादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। यहां के लोग जानते हैं कि मज़हब इंसानियत से ऊपर नहीं होता और सच्ची इबादत वह है, जिसमें दूसरे के लिए मोहब्बत और एहतराम हो। आज के दौर में, जब दुनिया के कई हिस्से मज़हबी नफरत और तफ़रक़े की आग में झुलस रहे हैं, मुरादाबाद एक ऐसे चिराग़ की तरह है, जो इंसानियत, भाईचारे और मिल-जुलकर रहने की रोशनी फैला रहा है। यह शहर हमें सिखाता है कि अलग-अलग मज़हब होने के बावजूद हम सबकी बुनियादी पहचान एक इंसान की है, और यह इंसानियत ही वह रिश्ता है, जो सबसे मज़बूत और सबसे पाक है। यहां का पैग़ाम साफ है—"हम अलग-अलग फूल हैं, लेकिन मुरादाबाद हमारी साझा गुलदस्ता है।"
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