Every kind of detail is available in the links given below.हर प्रकार का विवरण नीचे दिए गए लिंक पर उपलब्ध है।
प्रेजेंट इंडेफिनिट पर नीचे लिखा हुआ है उसे पर क्लिक करे।
Click on Present indefinite written below.
↓↓↓↓↓
प्रेजेंट कंटीन्यूअस टेंस पर नीचे लिखा हुआ है उसे पर क्लिक करेlick on Present continuous which is written below.
↓↓↓↓↓
फिजिकल एजुकेशन पर नीच क्लिक करें
Click below on Physical Education.
↓↓↓↓
इंग्लिश ग्रामर बुक पर क्लिक करें।
Click on English Grammar Book.
↓↓↓↓↓↓
अशरफ अली पुस्तक पर क्लिक करें।जीवनी लिखी जा चुकी है.
Click on Ashraf Ali book.The biography has been written.
↓↓↓
Ashraf Ali Biography Book 📚 in hindi
Biography of Maulvi Ahmadullah Shah Faizabadi.
मौलवी अहमदउल्ला शाह 'फैजाबादी' एक ऐसे बहादुर शख्स थे जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जोरदार मुहिम चलाई और उन्हें मुश्किल हालात का सामना करवाया। जब वह किसी अभियान पर निकलते थे, तो उनके आगे-आगे डंका या नक्कारा बजता था, जिसकी वजह से उन्हें नक्कारशाह या डंकाशाह ‘फैजाबादी’ के नाम से भी जाना जाता था। उनकी बहादुरी का आलम यह था कि अंग्रेज उन्हें 'फौलादी शेर' कहकर पुकारते थे।
कृष्ण प्रताप सिंह, जो अवध के सांस्कृतिक इतिहास के माहिर हैं, बताते हैं कि उस दौर में अंग्रेज अवध की हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने में नाकाम रहे और इसका सबसे ज्यादा श्रेय मौलवी अहमदउल्ला शाह को जाता है। उन्होंने रायबरेली के शंकरपुर के राणा वेणीमाधो सिंह के साथ मिलकर इस एकता की जड़ों को मजबूती से सींचा। मौलवी साहब की सूझ-बूझ का नतीजा था कि बगावत के न्यौते के तौर पर रोटी और कमल का फेरा लगवाया गया। बागियों की ओर से जो रोटियां गांवों और शहरों में भेजी जाती थीं, उन्हें खाने के बाद वैसी ही ताजा रोटियां बनाकर कमल के साथ दूसरे गांवों और शहरों को रवाना किया जाता था, जो बगावत का पैगाम होता था।
अंग्रेजों ने 1857 में मौलवी और उनके साथियों को हथियार डालने को कहा, लेकिन मौलवी ने इनकार कर दिया। अंग्रेजों ने उन्हें प्रलोभन भी दिया, मगर मौलवी झुके नहीं। आखिरकार, उनके खिलाफ गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए गए। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अवध की पुलिस ने मौलवी की गिरफ्तारी के आदेश मानने से इनकार कर दिया। फिर अंग्रेज फौज ने आकर 19 फरवरी 1857 को उन्हें गिरफ्तार किया, जंजीरों में बांधकर घुमाया और एक नाटक के बाद फांसी की सजा सुना दी।
लेकिन मौलवी की बहादुरी की कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। 8 जून 1857 को जब बगावत की आग फैजाबाद पहुंची, तो बहादुर जनता और बागी देसी फौज ने जेल पर हमला कर मौलवी को छुड़ा लिया। उन्होंने अपने इस प्रिय नेता को मुखिया चुना और फैजाबाद को अंग्रेजों से आजाद करवा कर राजा मान सिंह को वहां का शासक बनाया। उनकी सोच हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता की रही, और इसी सोच ने उन्हें सच्चा नेता बनाया।
इसके बाद, मौलवी ने आगरा और अवध प्रांत में घूम-घूमकर क्रांति की ज्वाला भड़काई। लखनऊ के रेजीडेंसी के घेरे और चिनहट की लड़ाई में उन्होंने जिस कुशलता का परिचय दिया, उसे देखकर इतिहासकारों ने लिखा कि लखनऊ नगर के अंदर क्रांति के सबसे योग्य नेता वही थे। मौलवी ने कमजोर पड़ते बागियों को छापामार लड़ाई की रणनीति अपनाने का मशवरा दिया और अंग्रेजों के खिलाफ डटे रहे। 15 जनवरी 1858 को गोली से घायल होने के बावजूद उनका मनोबल नहीं टूटा और वह लगातार लड़ते रहे।
आखिरकार, अंग्रेजों ने उनके सिर की कीमत पचास हजार रुपये रख दी। शाहजहांपुर के पुवायां रियासत के एक विश्वासघाती राजा के भाई ने इसी लालच में 15 जून 1858 को मौलवी को धोखे से गोली मार दी। मौलवी उस राजा से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में मदद मांगने गए थे। उस विश्वासघाती ने मौलवी का सिर काटकर शाहजहांपुर के कलेक्टर को सौंप दिया। कलेक्टर ने मौलवी के सिर को शाहजहांपुर कोतवाली के फाटक पर लटकवा दिया। मगर कुछ देशभक्तों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए उनके सिर को वहां से उतारा और पास के लोधीपुर गांव के किनारे पर पूरे सम्मान के साथ दफन कर दिया।
मौलवी अहमदउल्ला शाह ‘फैजाबादी’ की यह बहादुरी और देशभक्ति की कहानी आने वाली नस्लों के लिए मिसाल बनकर रह गई।
बाजुओं में जो दम है, वो दिखा देंगे ज़माने को,
सिर कटे भी तो कदमों में न झुकने पाए ये शेर,
इक अजीम मकसद के लिए दिल में जो आग है,
वो बुझाने को तरसेंगे ये फिरंगी के शैतान!”
दिल में हिंद का जुनून, हाथों में शमशीर,
जंग-ए-आज़ादी में हम बन गए थे तस्वीर,
कोई तोप से लड़े, कोई तलवार से लड़ा,
हमारा मौलवी लड़ा इश्क-ए-वतन के उसूलों से।”
फौलाद के थे जो, वो आसानी से नहीं झुके,
न हार मानी, न कभी सर को झुकाया,
जब तलवार भी चूम न सकी उनके जिस्म को,
तो क़ौम के लिए खुदा के नाम पर जान लुटाया।”
"फैजाबाद की धरती ने वो मंजर देखा,
जहां हर दिल में मौलवी की धड़कन बसी थी,
हिन्दू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल कायम की,
वो आज भी इतिहास के पन्नों में जिंदा है।”
"ज़ख्मी था बदन, पर हौसला बुलंद था,
हर एक वार में इंकलाब की आग थी,
शहादत को गले लगाकर भी,
मौलवी ने दास्तां लिख दी उस दौर की।”
"दगाबाजों ने खेला खेल,
पर मौलवी का हौसला न डगमगाया,
सर लटका तो सही, पर इज़्ज़त से दफन हुआ,
मुल्क के लिए जो जान लुटाया।”
शकीलउद्दीन अंसारी
No comments:
Post a Comment