Monday, 24 February 2025

सूत (सूद) को आसान भाषा में समझना – कुरआन और हदीस की रोशनी में



सूत (सूद) को आसान भाषा में समझना – कुरआन और हदीस की रोशनी में
◆ सूद क्या है?
सूद (रिबा) का मतलब है ऐसा नाजायज़ मुनाफ़ा जो बिना किसी मेहनत के लिया जाए, खासकर उधार दी गई रकम पर तयशुदा इज़ाफ़ी रकम वसूल करना। आसान भाषा में कहें तो अगर कोई इंसान किसी को कर्ज़ दे और बदले में उससे ज्यादा पैसे वापस मांगे तो यही सूद कहलाता है।

◆ सूद से होने वाले नुक़सान
1️⃣ रिज़्क़ से बरकत खत्म हो जाती है।
2️⃣ गरीब और अमीर के बीच फर्क बढ़ जाता है।
3️⃣ इंसान अल्लाह और उसके रसूल (ﷺ) से जंग में आ जाता है।
4️⃣ रूहानी और दुनियावी परेशानियां बढ़ जाती हैं।

◆ हलाल कमाई की अहमियत
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:
"कोई भी इंसान ऐसा गोश्त अपने जिस्म पर न बढ़ाए जो हराम से आया हो, वरना जहन्नम की आग इसका ठिकाना होगी।" (सुनन तिर्मिज़ी)

◆ सूद का हल क्या है?
1️⃣ हलाल रोज़ी कमाएं, मेहनत और इमानदारी से कमाने को अपनाएं।
2️⃣ इस्लामिक बैंकिंग और व्यापार के सही तरीके अपनाएं।
3️⃣ लोगों की मदद बिना किसी नाजायज़ फायदे के करें।

सूत लेना (ब्याज लेना) इस्लामी नजरिए से कैसा है?

इस्लाम में सूद (ब्याज) लेना और देना साफ तौर पर हराम माना गया है। कुरान और हदीस में इसे सख्ती से मना किया गया है, क्योंकि यह समाज में अन्याय और शोषण को बढ़ावा देता है। अब इसे एकदम आसान और आज के टेक्नोलॉजी दौर के हिसाब से समझते हैं।

बुनियादी मिसाल (Basic Example):
मान लो, कोई शख्स किसी जरूरतमंद को ₹10,000 उधार देता है और कहता है कि एक महीने बाद ₹11,000 लौटाना होगा। जो ₹1,000 ज्यादा लिया जा रहा है, वही सूद (ब्याज) कहलाता है। इस्लाम में इसे हराम माना गया है, क्योंकि यह कमजोर और गरीब लोगों का आर्थिक शोषण करता है।

तकनीकी मिसाल (Technology Example):
आजकल डिजिटल पेमेंट और ऑनलाइन ट्रांजैक्शन का जमाना है। मान लो, कोई आदमी बैंक से ₹50,000 लोन लेता है और बैंक कहता है कि इसे किस्तों में ₹60,000 बनाकर चुकाना होगा। यह ₹10,000 का एक्स्ट्रा हिस्सा ब्याज (सूद) कहलाता है। इस्लाम में इसे हराम इसलिए कहा गया है, क्योंकि यह अमीर को और अमीर और गरीब को और गरीब बनाता है।

अब एक और नई टेक्नोलॉजी मिसाल देखो – क्रेडिट कार्ड।
कोई आदमी क्रेडिट कार्ड से ₹5,000 खर्च करता है, लेकिन अगर वह समय पर वापस नहीं करता, तो बैंक उस पर हर महीने 3% या 4% का ब्याज लगाता है। यानी उसने ₹5,000 खर्च किए, लेकिन अंत में ₹6,000-₹7,000 देने पड़ते हैं। यही ब्याज का खेल है, और यही इस्लाम में मना किया गया है।

ऑनलाइन फाइनेंसिंग और EMI स्कीम्स:
कई ई-कॉमर्स कंपनियां (जैसे Amazon, Flipkart) "बाय नाउ, पे लेटर" (Buy Now, Pay Later) का ऑफर देती हैं, लेकिन इसमें भी अगर समय पर पेमेंट न किया जाए तो ब्याज देना पड़ता है। यह भी सूद का एक तरीका है।

इस्लामी नजरिया:
कुरान में (सूरह अल-बकरा 2:275-279): अल्लाह ने फरमाया कि ब्याज (सूद) लेने वाले लोग कयामत के दिन ऐसे उठेंगे जैसे शैतान ने उन्हें पागल बना दिया हो।
हदीस में: रसूलअल्लाह (ﷺ) ने फरमाया कि सूद खाने वाला, देने वाला, गवाह बनने वाला और इसे लिखने वाला सभी बराबर के गुनहगार हैं।
हल क्या है?
इस्लामी बैंकिंग अपनाओ: जहां ब्याज का कोई सिस्टम न हो, बल्कि साझेदारी के आधार पर कारोबार हो।
जरूरतमंद को बिना ब्याज उधार दो: इसे कर्ज-ए-हसना कहते हैं, जिसका बहुत बड़ा सवाब है।
हाराम से बचकर हलाल कमाई करो: जो पैसे में बरकत भी लाएगा और अल्लाह की रहमत भी मिलेगी।
हज़रत अब्दुल्लाह इब्न मसऊद (रज़ि.) से रिवायत है:
"रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया कि ब्याज के 73 दर्जे (स्तर) हैं, और इनमें सबसे हल्का (कम अज़ाब वाला) यह है कि कोई शख्स अपनी मां के साथ ज़िना करे।"
📖 (इब्न माजा: 2274, सहीह अल-जामे: 1874)
नतीजा:
सूद (ब्याज) एक ऐसा सिस्टम है जो गरीब को और गरीब बनाता है और अमीर को बेवजह मुनाफा देता है। इस्लाम इसका सख्त खिलाफ है और इससे बचने का हुक्म देता है। अगर दुनिया में इन्साफ और बराबरी लानी है, तो सूद से बचना जरूरी है।

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Shakil Ansari