Tuesday, 14 January 2025

वालिदैन और घरवालों को चाहिए कि बच्चों को सात साल की उम्र से ही नमाज़ की आदत डलवाएं, ताकि बालिग़ होने तक वो इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लें। --बिल्कुल सही फ़रमाया गया है। इस्लामिक तालीम के मुताबिक़, बच्चों को सात साल की उम्र से ही नमाज़ पढ़ने की आदत डालने की ताकीद की गई है। हदीस-ए-पाक में नबी-ए-करीम (ﷺ) ने फरमाया:"अपने बच्चों को सात साल की उम्र में नमाज़ का हुक्म दो और दस साल की उम्र में उन्हें (तर्बियत के तौर पर) सज़ा दो अगर वो नमाज़ न पढ़ें।"(अल-तिरमिज़ी, अबू दाऊद)इसका मकसद बच्चों के दिल में इबादत की अहमियत और अल्लाह तआला का ख़ौफ पैदा करना है, ताकि जब वो बालिग़ हों, तो नमाज़ उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन जाए।والدین की ज़िम्मेदारी है कि वो बच्चों को नर्मी और मोहब्बत से तरग़ीब दें और ख़ुद भी नमाज़ का एहतिमाम करें ताकि बच्चों के लिए एक बेहतरीन मिसाल बन सकें।Parents and family members should encourage children to develop the habit of performing Salah (prayers) from the age of seven. By the time they reach the age of maturity, prayer becomes an integral part of their lives.The Prophet Muhammad (peace be upon him) said:"Instruct your children to pray when they are seven years old, and discipline them for it when they are ten."(Reported by Al-Tirmidhi and Abu Dawood)The purpose is to instil the importance of worship and the consciousness of Allah in their hearts from an early age. Parents are responsible for gently and lovingly encouraging their children while setting a good example by being consistent in their own prayers.


नमाज़ पढ़ने का हुक्म और इसकी उम्र का मसला हदीस शरीफ में वाज़ेह तौर पर बयान किया गया है। हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रज़ी अल्लाहु अन्हु) से रिवायत है कि रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

"अपने बच्चों को सात साल की उम्र में नमाज़ का हुक्म दो, और जब वे दस साल के हो जाएं और नमाज़ न पढ़ें तो उन्हें (अहिस्ता से) तंबीह करो।"
(अबू दाऊद: 495, तिर्मिज़ी: 407)









इस हदीस से मालूम होता है कि:

सात साल की उम्र से बच्चों को नमाज़ की तालीम देना और उनकी आदत डालना चाहिए।
दस साल की उम्र पर अगर बच्चा नमाज़ में सुस्ती करे तो उसे सख्ती के साथ अहसास दिलाया जाए, ताकि वह नमाज़ की पाबंदी करे।
जब बच्चा बालिग़ (प्यूबर्टी) हो जाए, तो नमाज़ उस पर फर्ज़ हो जाती है।
शरई तौर पर नमाज़ की फर्ज़ियत बालिग़ होने के बाद होती है। बालिग़ होने की निशानियाँ लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन आमतौर पर यह 12 से 15 साल के बीच होती हैं।


हदीस से: रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:

"तीन लोग ऐसे हैं जिनसे कल क़यामत के दिन हिसाब नहीं लिया जाएगा: सोया हुआ इंसान जब तक जाग न जाए, बच्चा जब तक बालिग़ न हो, और पागल जब तक उसे अकल न आ जाए।"
सुनन अबू दाऊद, हदीस नंबर 4403
सुनन इब्न माजा, हदीस नंबर 2041


बच्चों को बालिग़ होने से पहले क्या सिखाएं?
7 साल की उम्र में नमाज की आदत डालें।
हलाल और हराम का फर्क सिखाएं।
शरीयत के उसूलों के बारे में धीरे-धीरे समझाएं।
बच्चियों को हिजाब और पर्दे का महत्व सिखाएं।


बालिग़ होने के बाद जिम्मेदारियां:
बालिग़ होने के बाद:

नमाज फर्ज है। इसे छोड़ना गुनाह-ए-कबीर (बड़ा गुनाह) है।
रोज़ा फर्ज है। रमजान में रोज़ा छोड़ने की इजाजत सिर्फ शरई वजहों पर होती है।
ज़कात (अगर मालदार हैं)।
हराम और हलाल का ख्याल। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, और झगड़ालू बातें हराम हैं।
हिजाब: लड़कियों के लिए बालिग़ होते ही हिजाब और पर्दे का हुक्म लागू हो जाता है।



नसीहत:
वालिदैन और घरवालों को चाहिए कि बच्चों को सात साल की उम्र से ही नमाज़ की आदत डलवाएं, ताकि बालिग़ होने तक वो इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लें।

इसलिए, नमाज़ की आदत बचपन में डालना और बालिग़ होते ही इसकी पाबंदी करना हर मुसलमान पर ज़रूरी है।

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