"अपने बच्चों को सात साल की उम्र में नमाज़ का हुक्म दो, और जब वे दस साल के हो जाएं और नमाज़ न पढ़ें तो उन्हें (अहिस्ता से) तंबीह करो।"
(अबू दाऊद: 495, तिर्मिज़ी: 407)
इस हदीस से मालूम होता है कि:
सात साल की उम्र से बच्चों को नमाज़ की तालीम देना और उनकी आदत डालना चाहिए।
दस साल की उम्र पर अगर बच्चा नमाज़ में सुस्ती करे तो उसे सख्ती के साथ अहसास दिलाया जाए, ताकि वह नमाज़ की पाबंदी करे।
जब बच्चा बालिग़ (प्यूबर्टी) हो जाए, तो नमाज़ उस पर फर्ज़ हो जाती है।
शरई तौर पर नमाज़ की फर्ज़ियत बालिग़ होने के बाद होती है। बालिग़ होने की निशानियाँ लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन आमतौर पर यह 12 से 15 साल के बीच होती हैं।
हदीस से: रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फरमाया:
"तीन लोग ऐसे हैं जिनसे कल क़यामत के दिन हिसाब नहीं लिया जाएगा: सोया हुआ इंसान जब तक जाग न जाए, बच्चा जब तक बालिग़ न हो, और पागल जब तक उसे अकल न आ जाए।"
सुनन अबू दाऊद, हदीस नंबर 4403
सुनन इब्न माजा, हदीस नंबर 2041
बच्चों को बालिग़ होने से पहले क्या सिखाएं?
7 साल की उम्र में नमाज की आदत डालें।
हलाल और हराम का फर्क सिखाएं।
शरीयत के उसूलों के बारे में धीरे-धीरे समझाएं।
बच्चियों को हिजाब और पर्दे का महत्व सिखाएं।
बालिग़ होने के बाद जिम्मेदारियां:
बालिग़ होने के बाद:
नमाज फर्ज है। इसे छोड़ना गुनाह-ए-कबीर (बड़ा गुनाह) है।
रोज़ा फर्ज है। रमजान में रोज़ा छोड़ने की इजाजत सिर्फ शरई वजहों पर होती है।
ज़कात (अगर मालदार हैं)।
हराम और हलाल का ख्याल। जैसे झूठ बोलना, चोरी करना, और झगड़ालू बातें हराम हैं।
हिजाब: लड़कियों के लिए बालिग़ होते ही हिजाब और पर्दे का हुक्म लागू हो जाता है।
नसीहत:
वालिदैन और घरवालों को चाहिए कि बच्चों को सात साल की उम्र से ही नमाज़ की आदत डलवाएं, ताकि बालिग़ होने तक वो इसे अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लें।
इसलिए, नमाज़ की आदत बचपन में डालना और बालिग़ होते ही इसकी पाबंदी करना हर मुसलमान पर ज़रूरी है।
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