Saturday, 16 August 2025

"मैं जज हूँ, कसाई नहीं — आगा हैदर की बग़ावत" "कलम तोड़ने वाला जज: न्यायमूर्ति Justice आगा हैदर और भगत सिंह का मुक़दमा"






"मैं जज हूँ, कसाई नहीं — आगा हैदर की बग़ावतShort introduction 
1929 में जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली असेम्बली में बम (स्मोक बम) फेंका, वो असल में एक इंक़लाबी पैग़ाम था – "गूंजेगी दुनिया भर में हमारी आवाज़"। अंग्रेज़ सरकार का मक़सद था कि ट्रायल ऐसा हो जिससे नौजवान डर जाएं। इसी लिए लाहौर में स्पेशल ट्रिब्यूनल बनाया गया।

5 मई 1930 से ये ट्रिब्यूनल चला। अंग्रेज़ी जज और हमारे अपने लोगों में से आगा हैदर को भी बिठाया गया। हुकूमत को लगा कि ये भी उनके हक़ में रहेगा। मगर जब 12 मई को अदालत के अंदर भगत सिंह और उनके साथी "इंक़लाब ज़िंदाबाद" के नारे लगाए, "सरफ़रोशी की तमन्ना" गाया, और अंग्रेज़ जज के हुक्म पर पुलिस ने उन्हें बेदर्दी से पीटा—तो उस वक़्त आगा हैदर ने डट कर कहा:

“मैं इस हुक्म का हिस्सा नहीं हूँ। मैं अपने आप को अदालत में हुई इन हरकतों से अलग करता हूँ।”

यानी उन्होंने साफ़ कर दिया कि वो क़लम तोड़ देंगे मगर नाइंसाफ़ी पर दस्तख़त नहीं करेंगे।

फिर क्या हुआ? – वकील भी बहिष्कार कर गए, और मुलज़िम भी पेश न हुए। लेकिन आगा हैदर चुप न बैठे। उन्होंने खुद जज होते हुए डिफ़ेंस की जगह ले ली। गवाहों से ऐसे सवाल किए कि पुलिस के लाए हुए झूठे गवाह एक-एक कर के टूटते चले गए। सात में से छः गवाह दुश्मन के खिलाफ़ हो गए।

जब अंग्रेज़ सरकार ने दबाव डाला तो उन्होंने साफ़ जवाब दिया:

"मैं जज हूँ, कसाई नहीं।"

आख़िरकार हुकूमत ने उन्हें बीमारी का बहाना बना कर ट्रिब्यूनल से हटा दिया। फिर अंग्रेज़ी जजों ने अपने मन मुताबिक़ फैसला सुना दिया और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी दे दी।

लेकिन आगा हैदर ने उस दौर में जो मज़बूत किरदार दिखाया – वो उनके खानदान के लिए आज भी फ़ख़्र है। उनके औलाद अब भी शान से कहते हैं:

“मेरा ताल्लुक उस खानदान से है, जिसके बुज़ुर्गों ने अंग्रेज़ों के सामने क़लम तोड़ दिया था, मगर ज़मीर के खिलाफ़ दस्तख़त न किए।”
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आगा हैदर, भगत सिंह के अदालत साथी

**“मैं (भगत सिंह और उनके साथियों) अभियुक्तों को अदालत से जेल भेजने के आदेश का हिस्सा नहीं था और न ही किसी भी तरह से उसका ज़िम्मेदार हूँ। मैं खुद को आज उस आदेश के परिणामस्वरूप हुई घटनाओं से पूरी तरह अलग करता हूँ।”**
— न्यायमूर्ति सय्यद आगा हैदर, 12 मई 1930

न्यायमूर्ति सय्यद आगा हैदर द्वारा यह आदेश, जो उन्होंने विशेष न्यायाधिकरण (Special Tribunal), लाहौर के सदस्य के रूप में सुनाया था – जिसमें भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और अन्य भारतीय क्रांतिकारियों पर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने का मुकदमा चल रहा था – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सदा सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा।

अप्रैल 1929 में, जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली (केंद्रीय विधान सभा) में धुएँ के बम फेंके, तो उन्होंने राष्ट्रवादियों की कल्पना को झकझोर दिया। इसके लिए दोनों पर मुकदमा चला और सज़ा भी हुई। जेल में रहते हुए ही भगत सिंह को अंग्रेज़ पुलिस अधिकारी सॉन्डर्स की हत्या के मामले में सह अभियुक्त बना दिया गया। अंग्रेज़ सरकार चाहती थी कि इस मुकदमे को एक तमाशा बनाकर नौजवानों को डराया जाए ताकि वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा न लें। इसी मकसद से वायसराय ने *लाहौर अध्यादेश संख्या III, 1930* लागू करके एक विशेष न्यायाधिकरण गठित किया। असल उद्देश्य यह था कि ‘न्यायिक प्रक्रिया’ को दरकिनार कर भगत सिंह और उनके साथियों को मौत की सज़ा दिलाई जाए क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य को खुली चुनौती दी थी।

यह अध्यादेश 1 मई को लागू हुआ और मुख्य न्यायाधीश शदी लाल को यह अधिकार दिया गया कि वे तीन जज चुनें। शदी लाल को पूरा यक़ीन था कि न्यायमूर्ति सय्यद आगा हैदर और दो अंग्रेज़ जज – कोल्डस्ट्रीम और हिल्टन – ब्रिटिश मंशा समझते हुए ‘अंग्रेज़ी न्याय’ देंगे। 5 मई से ट्रिब्यूनल की कार्यवाही शुरू हुई। उसी दिन क्रांतिकारियों के वकीलों ने पत्र लिखकर कहा –
**“हम इस मज़ाक़िया खेल का हिस्सा नहीं बन सकते और आज से इस मुक़दमे की कार्यवाही में हिस्सा नहीं लेंगे।”**

मगर किसी ने सोचा भी नहीं था कि आगा हैदर के सीने में एक भारतीय दिल धड़कता है।

12 मई को जब क्रांतिकारी अदालत में पेश किए गए तो उन्होंने “इंक़लाब ज़िंदाबाद” के नारे लगाए और “सरफ़रोशी की तमन्ना…” गीत गाना शुरू किया। इस पर ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष जज कोल्डस्ट्रीम के आदेश पर पुलिस ने उन्हें अदालत में ही पीटा और गंभीर चोटें पहुँचाई। आगा हैदर यह बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने कड़ा विरोध दर्ज कराया।

प्रोफ़ेसर सत्विंदर सिंह जुस अपनी किताब *The Execution of Bhagat Singh: Legal Heresies of the Raj* में लिखते हैं:
**“उन्होंने (आगा हैदर ने) अदालत में हुई हिंसा से खुद को पूरी तरह अलग कर लिया, जिसकी पहल ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष जज कोल्डस्ट्रीम ने की थी। उनका यह कदम अन्य जजों के लिए गहरी हैरानी का कारण बना होगा। यहाँ तक कि लाहौर के मुख्य न्यायाधीश (शदी लाल) भी स्तब्ध रह गए होंगे। उन्होंने आगा हैदर को ‘सुरक्षित हाथ’ समझकर चुना था, मगर वे किसी के मोहरे नहीं बने। यह पश्चिमी ढंग से पढ़ा-लिखा भारतीय गरिमा का मालिक व्यक्ति था, जो कठपुतली बनने को तैयार नहीं था।”**

12 मई की हिंसा के बाद क्रांतिकारी और उनके वकील दोनों ने ट्रिब्यूनल का बहिष्कार कर दिया। अब ‘न्याय’ का सारा दिखावा एक तरफ़ रख दिया गया और मुक़दमे की कार्यवाही अभियुक्त और उनके वकीलों की अनुपस्थिति में शुरू कर दी गई। मगर आगा हैदर चुप नहीं बैठे। उन्होंने जज की कुर्सी से ही ‘बचाव पक्ष’ की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। पुलिस द्वारा पेश किए गए गवाहों – जयगोपाल, पोहिंद्रनाथ घोष, मनमोहन बनर्जी और हंसराज वोहरा – से उन्होंने खुद जिरह शुरू की। आगा हैदर ने उनकी गवाही को सीधा स्वीकार नहीं किया, जबकि बाकी दोनों अंग्रेज़ जज ऐसा कर रहे थे। उन्होंने गवाहों के बयानों में वो छेद निकाले जिन्हें पुलिस ने रटवाया था।

जुस लिखते हैं:
**“अभियुक्तों की तरफ से वकील न होने पर भी उन्होंने खुद यह सुनिश्चित करने का काम उठाया कि न्याय की हत्या न हो।”**

30 मई को ट्रिब्यूनल का असली चेहरा आगा हैदर ने बेनक़ाब किया। जब उन्होंने गवाह रामसरन दास से जिरह की तो दास को मानना पड़ा:
**“मैं एक दस्तावेज़ पेश करना चाहता हूँ, जो दिखाता है कि गवाहों को कैसे पुलिस पढ़ाती है। यह काग़ज़ मुझे एक पुलिस अधिकारी ने दिया था और कहा था कि इसे याद कर लो। अधिकारी बार-बार मुझे यही दिखाते रहे और यह अलग-अलग अफ़सरों के पास घूमता रहा। मैं अब पुलिस की हिरासत में नहीं रहना चाहता। मैं यह दस्तावेज़ अदालत में पेश करता हूँ।”**

आगा हैदर के असर का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि सात प्रत्यक्षदर्शियों में से छह गवाह जिरह के बाद पलट गए।

20 जून को ट्रिब्यूनल का आख़िरी दिन था और साफ़ हो गया था कि आगा हैदर भारतीय क्रांतिकारियों को मौत की सज़ा देने के पक्ष में नहीं हैं। अंग्रेज़ सरकार मुश्किल में थी। पूरी तैयार की गई यह अदालत अब फ़ेल होती नज़र आ रही थी। क्योंकि अगर तीनों जज एकमत नहीं होते तो मौत की सज़ा नहीं दी जा सकती थी।

सरकार ने आगा हैदर को मनाने के लिए एक प्रतिनिधि भेजा, मगर उन्होंने घर से भगा दिया और कह दिया:
**“मैं एक जज हूँ, कसाई नहीं।”**

फिर एक ‘कोर्स करेक्शन’ हुआ। मुख्य न्यायाधीश शदी लाल ने आगा हैदर को “स्वास्थ्य कारणों” का बहाना बनाकर ट्रिब्यूनल से हटा दिया और नया पैनल बनाया। इस बार किसी में हिम्मत न रही कि अंग्रेज़ी सत्ता के खिलाफ खड़ा हो। नतीजतन ‘अंग्रेज़ी न्याय’ के नाम पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मौत की सज़ा सुनाई गई।

आगा हैदर ने फिर नौकरी छोड़ दी, सहारनपुर (यूपी) आ गए और 1937 के प्रांतीय चुनावों में अपनी विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व किया। आज भी उनके परपोते-पड़पोते फ़ख़्र से कहते हैं:

मेरा ताल्लुक उस ख़ानदान से है,
जिसके बुज़ुर्गों ने अंग्रेज़ों के सामने क़लम तोड़ दी थी,
मगर ज़मीर के खिलाफ़ दस्तख़त नहीं किए।

— लेखक: साक़िब सलीम (इतिहासकार व लेखक)

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कठिन शब्दों के आसान मतलब

अभियुक्त → अपराध का इल्ज़ाम झेल रहा व्यक्ति, यानी मुलज़िम (Accused)।

विशेष न्यायाधिकरण (Special Tribunal) → एक खास अदालत जो किसी खास केस के लिए बनाई जाती है।

सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा → बहुत इज़्ज़त और फ़ख़्र से हमेशा याद किया जाएगा।

राष्ट्रवादियों की कल्पना को झकझोर दिया → आज़ादी चाहने वालों के दिलों-दिमाग़ में जोश भर दिया।

तमाशा बनाना → दिखावा करना, नौटंकी करना।

दरकिनार करना → नज़रअंदाज़ करना, किनारे कर देना।

साम्राज्य (Empire) → हुकूमत, सल्तनत।

ट्रिब्यूनल की कार्यवाही → अदालत का काम-काज, मुक़दमे की सुनवाई।

मज़ाक़िया खेल (Farcical show) → ढोंग, नाटक, धोखेबाज़ी।

क्रांतिकारी → इंक़लाबी, आज़ादी के लिए लड़ने वाले नौजवान।

नारे लगाए → ज़ोर से आवाज़ में नारा बुलंद करना।

कड़ा विरोध दर्ज कराया → खुलकर विरोध किया, साफ़-साफ़ मना किया।

बचाव पक्ष → जो वकील मुलज़िम की तरफ़ से उसे बचाता है।

जिरह (Cross-examination) → गवाह से सवाल पूछना और उसकी बातों की सच्चाई परखना।

छेद निकालना → खामियां निकालना, झूठ पकड़ना।

हत्या करना (न्याय की हत्या) → यहाँ मतलब है न्याय को मार डालना, यानी बिल्कुल नाइंसाफ़ी करना।

बेनक़ाब करना → असली चेहरा दिखा देना।

प्रत्यक्षदर्शी गवाह (Eyewitness) → जिसने अपनी आँखों से वाक़या देखा हो।

मौत की सज़ा (Capital punishment) → फाँसी की सज़ा।

कोर्स करेक्शन → गलती सुधारने के लिए नया कदम उठाना।

नौकरी छोड़ दी → इस्तीफ़ा दे दिया।

विधानसभा सीट → इलाक़ा/कॉनस्टिट्यूएंसी जिसकी नुमाइंदगी चुनाव में होती है।

फ़ख़्र से कहते हैं → गर्व से कहते हैं।

ज़मीर के खिलाफ़ → अंतरात्मा या ईमान के खिलाफ़।

लेखक: साक़िब सलीम (इतिहासकार और लेखक)


ये इंग्लिश में लिखा हुआ आर्टिकल था – साक़िब सलीम साहब (इतिहासकार व लेखक) का।उसका हिंदी अनुवाद मैंने किया – और फिर आपकी फ़रमाइश पर उसे लोकल देसी अंदाज़ (शकीलुद्दीन अंसारी जैसा स्टाइल) में ढाल दिया।

असल मज़मून साक़िब सलीम साहब ने English में लिखा था (वो Historian और Writer हैं)।
मैंने उसे आपके कहने पर पूरा-पूरा हिंदी में ट्रांसलेट किया है।
शकील  अंसारी  का अंदाज़ होता है – आसान, सीधी भाषा, हल्का-सा किस्सागोई का लहजा, देसी अंदाज़ और एक-एक लाइन में प्रवाह – उसी फ़ॉर्मेट में पूरा मज़मून (Justice Agha Haider वाला) ढाल दिया जाए।

Saturday, 9 August 2025

Instantaneous Velocity का बेसिक मतलब"Instantaneous" मतलब — एकदम उसी पल, बिना कोई देर किए।"Velocity" मतलब — रफ़्तार + दिशा (Speed के साथ Direction)।तो Instantaneous Velocity = किसी particle या object की उस एक पल में displacement की rate, direction के साथ।ये हमें बताता है के object उस particular समय में किस speed से और किस direction में move कर रहा है।

Instantaneous Velocity का मतलब होता है किसी भी चलती हुई चीज़ की उस वक़्त की असली रफ़्तार (speed) और direction जब हम बिलकुल उसी पल देख रहे हों।

जैसे आप बाइक चला रहे हैं और आपके पास स्पीडोमीटर है — अगर आप 10:05:32 सेकंड पर उस स्पीडोमीटर की सुई को देख लें, तो जो reading है, वही आपकी instantaneous velocity है।

Physics के हिसाब से:

ये displacement का rate होता है एकदम छोटे से समय (∆t → 0) में।

Formula:

 
मतलब जब time gap इतना छोटा कर दें कि वो सिर्फ एक पल की measurement हो, तो आपको instantaneous velocity मिल जाएगी।

Rarua example:
मान लो बस चल रही है, पहले 5 सेकंड में उसकी speed अलग है, 10 सेकंड में अलग। लेकिन आपको जानना है के ठीक 7 सेकंड पर उसकी रफ़्तार क्या थी — बस यही है instantaneous velocity।

खास बातें:

इसमें सिर्फ speed ही नहीं, direction भी शामिल होती है।

अगर direction बदल जाए, तो velocity भी बदल जाएगी, चाहे speed same हो।

ये average velocity से अलग है, क्योंकि average में पूरे सफ़र का हिसाब लिया जाता है, लेकिन instantaneous में सिर्फ उसी पल का।




.Real-life Rarua Examples
Bike का Speedometer:
जब आप बाइक चला रहे हो और उसी पल meter देखो — वो instantaneous velocity है।

Cricket Ball:
जब bowler गेंद फेंकता है, 0.5 sec पर उसकी speed 140 km/h है, लेकिन 1.5 sec पर हवा की friction से 125 km/h हो जाती है — दोनों अलग instantaneous velocities हैं।

Bus in Traffic:
कभी 0 km/h (रुकना), कभी 20 km/h, कभी 50 km/h — हर पल की velocity अलग।



Graphical समझ
अगर position-time graph बना लो:

Slope (ढलान) = velocity

Average velocity → पूरे interval की slope

Instantaneous velocity → किसी एक point पर tangent की slope

Book

Author: Allama Ghulam Rasool Saeedi. Tibyan Ul Quran Mukammal Author : Shaikh Abdul Haque Mohaddis Dehelvi Book Of Name: Madarijun Nabuwat ...

Shakil Ansari