Thursday, 29 May 2025

दो कबूतरों की कहानी


 दो कबूतरों की कहानी — "परों में यक़ीन"
(किरदार: अज़ान और शफ़ीक़)

बहुत वक़्त पहले की बात है, एक पुराने किले की ऊँची मीनार पर दो कबूतर रहते थे — अज़ान और शफ़ीक़। दोनों भाई थे, लेकिन सोच में ज़मीन-आसमान का फर्क था।

अज़ान हमेशा उड़ने, आगे बढ़ने, नई जगहें देखने का ख्वाब देखा करता। उसका कहना था:

"उड़ना ही ज़िंदगी है, वरना इंसान भी पिंजरे में ही जीता है।"

जबकि शफ़ीक़ हमेशा डरता रहता:

"ये दुनिया बहुत बड़ी है अज़ान… तू गिर जाएगा, थक जाएगा, खो जाएगा। चलो यहीं मीनार पर रहें, महफूज़ हैं।"

लेकिन अज़ान के दिल में कुछ और ही था — एक दिन उसने आसमान की तरफ देखा और कहा:

"अगर उड़ान न भरूं तो परों का क्या फ़ायदा? ज़िंदगी में रिस्क न हो, तो मज़ा किस बात का?"

और वो निकल पड़ा — खुले आसमान की तरफ।

बहुत बार गिरा, तूफानों से टकराया, भटका, भूखा रहा, लेकिन हार नहीं मानी। हर रोज़ नया सबक, हर सुबह नई उम्मीद।

वहीं शफ़ीक़ मीनार पर ही बैठा रहा — महफूज़ लेकिन अधूरा।

एक दिन बहुत अरसे बाद अज़ान लौटा — मज़बूत, समझदार, और पूरे जहान का तजुर्बा लिए। उसके पंखों पर मिट्टी लगी थी कई शहरों की, आँखों में चमक थी मकसद की।

शफ़ीक़ हैरान रह गया:

"भाई! तू कैसे बचा रहा? तू कैसे इतनी दूर तक गया?"

अज़ान मुस्कराया और कहा:

"मैं इसलिए बचा क्योंकि मैंने डर को नहीं, खुद को सुना। रिस्क लिया, गिरा भी… मगर हर बार उड़ना फिर सीखा।"

उस दिन शफ़ीक़ ने भी पहली बार अपने परों को खोला — और पहली बार उड़ने की हिम्मत की।


🎯 सबक:

ज़िंदगी में रिस्क लेने से मत डरो। परों का मतलब ही तब है जब तू खुले आसमान में उड़ने का इरादा रखे। जो डर गया, वो जीते जी मर गया। और जो गिर कर उठ गया, वही मुक़द्दर बदल गया।



 "परों में यक़ीन" — इंसान के लिए नसीहत
1️⃣ जो डर गया, वो जीते जी मर गया

अगर हम हर वक़्त बस "क्या होगा", "अगर गिर गए", "अगर हार गए" — इन सवालों में उलझे रहें, तो ज़िंदगी कभी खुलकर जी ही नहीं पाएंगे।

2️⃣ रिस्क से भागो मत, उसे अपनाओ

हर बड़ा काम रिस्क मांगता है। जो लोग रिस्क से डरते हैं, वो कभी अपनी हदों से बाहर नहीं निकलते — और जो रिस्क लेकर गिरते हैं, वो उड़ना सीख जाते हैं।

3️⃣ सब्र और यक़ीन ही असल ताक़त है

अज़ान गिरा भी, भूखा भी रहा, लेकिन उसका यक़ीन ज़िंदा रहा। ये सब्र ही था जो उसे दुबारा उड़ना सिखा गया।

4️⃣ तजुर्बा किताबों से नहीं, ठोकरों से आता है

जो ज़िंदगी में निकलते हैं, सफ़र करते हैं, वही असली तजुर्बा हासिल करते हैं। बाकी तो बस डर के मारे किताबों में ही उलझे रहते हैं।

5️⃣ महफूज़ रहना अच्छा है — मगर अधूरा है

जैसे शफ़ीक़ महफूज़ तो था, मगर अधूरा — वैसे ही हम अगर बस आराम से बैठे रहें, तो ज़िंदगी का असल मज़ा नहीं ले सकते।

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Shakil Ansari