Narrated Anas bin Malik: Abu Bakr and Al-`Abbas passed by one of the gatherings of the Ansar who were weeping then. He (i.e. Abu Bakr or Al-`Abbas) asked, Why are you weeping? They replied, We are weeping because we remember the gathering of the Prophet with us. So Abu Bakr went to the Prophet and told him of that. The Prophet came out, tying his head with a piece of the hem of a sheet. He ascended the pulpit which he never ascended after that day. He glorified and praised Allah and then said, I request you to take care of the Ansar as they are my near companions to whom I confided my private secrets. They have fulfilled their obligations and rights which were enjoined on them but there remains what is for them. So, accept the good of the good-doers amongst them and excuse the wrongdoers amongst them.
Narrated 'Abdullah (bin 'Umar): Once Allah's Apostle passed by an Ansari (man) who was admonishing to his brother regarding Haya'. On that Allah's Apostle said, Leave him as Haya' is a part of faith. एक बार रसूलुल्लाह (सल्ल०) एक अंसारी शख़्स के पास से गुज़रे इस हाल में कि वो अपने एक भाई से कह रहे थे कि तुम इतनी शर्म क्यों करते हो। आप (सल्ल०) ने इस अंसारी से फ़रमाया कि उसको उसके हाल पर रहने दो क्योंकि हया भी ईमान ही का एक हिस्सा है।
मैं और मेरा एक अंसारी पड़ौसी दोनों आस-पास मदीना के एक गाँव बनी-उमैया-बिन-ज़ैद मैं रहते थे जो मदीना के (पूरब की तरफ़) बुलन्द गाँव में से है। हम दोनों बारी-बारी नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत शरीफ़ मैं हाज़िर हुआ करते थे। एक दिन वो आता एक दिन में आता। जिस दिन में आता उस दिन की वह्य की और (रसूलुल्लाह (सल्ल०) की कही हुई) दूसरे बातों की उसको ख़बर दे देता था। और जब वो आता था तो वो भी इसी तरह करता। तो एक दिन वो मेरा अंसारी साथी अपनी बारी के दिन हाज़िरे-ख़िदमत हुआ (जब वापस आया) तो उसने मेरा दरवाज़ा बहुत ज़ोर से खटखटाया और (मेरे बारे में पूछा कि) क्या उम्र यहाँ हैं? मैं घबरा कर उसके पास आया। वो कहने लगा कि एक बड़ा मामला पेश आ गया है। (यानी रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है) फिर मैं (अपनी बेटी) हफ़सा के पास गया वो रो रही थी। मैंने पूछा क्या तुम्हें रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने तलाक़ दे दी है? वो कहने लगी कि मैं नहीं जानती। फिर मैं नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। मैंने खड़े-खड़े कहा कि क्या आप (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, नहीं। (ये अफ़वाह ग़लत है) तब मैंने (ताज्जुब से) कहा (अल्लाहु-अकबर) अल्लाह बहुत बड़ा है।
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने एक अंसारी को बुलाया। वो आए तो उन के सिर से पानी टपक रहा था। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया, शायद हमने तुम्हें जल्दी में डाल दिया। उन्होंने कहा, जी हाँ। तब रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया कि जब कोई जल्दी (का काम) आ पड़े या तुम्हें (इन्ज़ाल) ejaculation न हो तो तुम पर वुज़ू है (ग़ुस्ल ज़रूरी नहीं)।
जब पानी न पाए और नमाज़ निकलने का ख़ौफ़ हो। अता-बिन-अबी-रिबाह का यही क़ौल है और इमाम हसन बसरी ने कहा कि अगर किसी बीमार के नज़दीक पानी हो जिसे वो उठा न सके और कोई ऐसा शख़्स भी वहाँ न हो जो इसे वो पानी (उठा कर) दे सके तो वो तयम्मुम कर ले। और अब्दुल्लाह-बिन-उमर जर्फ़ की अपनी ज़मीन से वापस आ रहे थे कि अस्र का वक़्त आ गया। आप ने (तयम्मुम से) अस्र की नमाज़ पढ़ ली और मदीना पहुँचे तो सूरज अभी बुलन्द था मगर आप ने वो नमाज़ नहीं लौटाई।
मैं और अब्दुल्लाह-बिन-यसार जो कि मैमूना (रज़ि०), नबी करीम (सल्ल०) कि बीवी, के ग़ुलाम थे अबू-जहीम-बिन-हारिस-बिन-सिम्मा अंसारी ( सहाबी ) के पास आए। उन्होंने बयान किया कि नबी करीम (सल्ल०) "بئر جمل" की तरफ़ से तशरीफ़ ला रहे थे। रास्ते में एक शख़्स ने आपको सलाम किया (यानी ख़ुद उसी अबू-जहीम ने) लेकिन आप (सल्ल०) ने जवाब नहीं दिया। फिर आप दीवार के क़रीब आए और अपने चेहरे और हाथों का मसह किया फिर उनके सलाम का जवाब दिया।
حَدَّثَنَا يَحْيَى بْنُ بُكَيْرٍ ، قَالَ : حَدَّثَنَا اللَّيْثُ ، عَنْ يُونُسَ ، عَنِ ابْنِ شِهَابٍ ، عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِكٍ ، قَالَ : كَانَ أَبُو ذَرٍّ يُحَدِّثُ ، أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، قَالَ : فُرِجَ عَنْ سَقْفِ بَيْتِي وَأَنَا بِمَكَّةَ ، فَنَزَلَ جِبْرِيلُ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَفَرَجَ صَدْرِي ، ثُمَّ غَسَلَهُ بِمَاءِ زَمْزَمَ ، ثُمَّ جَاءَ بِطَسْتٍ مِنْ ذَهَبٍ مُمْتَلِئٍ حِكْمَةً وَإِيمَانًا ، فَأَفْرَغَهُ فِي صَدْرِي ، ثُمَّ أَطْبَقَهُ ، ثُمَّ أَخَذَ بِيَدِي فَعَرَجَ بِي إِلَى السَّمَاءِ الدُّنْيَا ، فَلَمَّا جِئْتُ إِلَى السَّمَاءِ الدُّنْيَا ، قَالَ جِبْرِيلُ لِخَازِنِ السَّمَاءِ : افْتَحْ ، قَالَ : مَنْ هَذَا ؟ قَالَ : هَذَا جِبْرِيلُ ، قَالَ : هَلْ مَعَكَ أَحَدٌ ؟ قَالَ : نَعَمْ ، مَعِي مُحَمَّدٌ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، فَقَالَ : أُرْسِلَ إِلَيْهِ ؟ قَالَ : نَعَمْ ، فَلَمَّا فَتَحَ عَلَوْنَا السَّمَاءَ الدُّنْيَا ، فَإِذَا رَجُلٌ قَاعِدٌ عَلَى يَمِينِهِ أَسْوِدَةٌ وَعَلَى يَسَارِهِ أَسْوِدَةٌ ، إِذَا نَظَرَ قِبَلَ يَمِينِهِ ضَحِكَ وَإِذَا نَظَرَ قِبَلَ يَسَارِهِ بَكَى ، فَقَالَ : مَرْحَبًا بِالنَّبِيِّ الصَّالِحِ وَالِابْنِ الصَّالِحِ ، قُلْتُ لِجِبْرِيلَ : مَنْ هَذَا ؟ قَال : هَذَا آدَمُ ، وَهَذِهِ الْأَسْوِدَةُ عَنْ يَمِينِهِ وَشِمَالِهِ نَسَمُ بَنِيهِ ، فَأَهْلُ الْيَمِينِ مِنْهُمْ أَهْلُ الْجَنَّةِ وَالْأَسْوِدَةُ الَّتِي عَنْ شِمَالِهِ أَهْلُ النَّارِ ؟ فَإِذَا نَظَرَ عَنْ يَمِينِهِ ضَحِكَ ، وَإِذَا نَظَرَ قِبَلَ شِمَالِهِ بَكَى حَتَّى عَرَجَ بِي إِلَى السَّمَاءِ الثَّانِيَةِ ، فَقَالَ لِخَازِنِهَا : افْتَحْ ، فَقَالَ لَهُ خَازِنِهَا مِثْلَ مَا قَالَ الْأَوَّلُ ، فَفَتَحَ ، قَالَ أَنَسٌ : فَذَكَرَ أَنَّهُ وَجَدَ فِي السَّمَوَات آدَمَ ، وَإِدْرِيسَ ، وَمُوسَى ، وَعِيسَى ، وَإِبْرَاهِيمَ صَلَوَاتُ اللَّهِ عَلَيْهِمْ ، وَلَمْ يُثْبِتْ كَيْفَ مَنَازِلُهُمْ ، غَيْرَ أَنَّهُ ذَكَرَ أَنَّهُ وَجَدَ آدَمَ فِي السَّمَاءِ الدُّنْيَا ، وَإِبْرَاهِيمَ فِي السَّمَاءِ السَّادِسَةِ ، قَالَ أَنَسٌ : فَلَمَّا مَرَّ جِبْرِيلُ بِالنَّبِيِّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ بِإِدْرِيسَ ، قَالَ : مَرْحَبًا بِالنَّبِيِّ الصَّالِحِ وَالْأَخِ الصَّالِحِ ، فَقُلْتُ : مَنْ هَذَا ؟ قَالَ : هَذَا إِدْرِيسُ ، ثُمَّ مَرَرْتُ بِمُوسَى ، فَقَالَ : مَرْحَبًا بِالنَّبِيِّ الصَّالِحِ وَالْأَخِ الصَّالِحِ ، قُلْتُ : مَنْ هَذَا ؟ قَالَ : هَذَا مُوسَى ، ثُمَّ مَرَرْتُ بِعِيسَى ، فَقَالَ : مَرْحَبًا بِالْأَخِ الصَّالِحِ وَالنَّبِيِّ الصَّالِحِ ، قُلْتُ : مَنْ هَذَا ؟ قَالَ : هَذَا عِيسَى ، ثُمَّ مَرَرْتُ بِإِبْرَاهِيمَ ، فَقَالَ : مَرْحَبًا بِالنَّبِيِّ الصَّالِحِ وَالِابْنِ الصَّالِحِ ، قُلْتُ : مَنْ هَذَا ؟ قَالَ هَذَا إِبْرَاهِيمُ عليه وسلم ، قَالَ ابْنُ شِهَابٍ : فَأَخْبَرَنِي ابْنُ حَزْمٍ ، أَنَّابْنَ عَبَّاسٍ ، وَأَبَا حَبَّةَ الْأَنْصَارِيَّ كَانَا يَقُولَانِ : قَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : ثُمَّ عُرِجَ بِي حَتَّى ظَهَرْتُ لِمُسْتَوًى أَسْمَعُ فِيهِ صَرِيفَ الْأَقْلَامِ ، قَالَ ابْنُ حَزْمٍ ، وَأَنَسُ بْنُ مَالِكٍ : قَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : فَفَرَضَ اللَّهُ عَلَى أُمَّتِي خَمْسِينَ صَلَاةً ، فَرَجَعْتُ بِذَلِكَ حَتَّى مَرَرْتُ عَلَى مُوسَى ، فَقَالَ : مَا فَرَضَ اللَّهُ لَكَ عَلَى أُمَّتِكَ ؟ قُلْتُ : فَرَضَ خَمْسِينَ صَلَاةً ، قَالَ : فَارْجِعْ إِلَى رَبِّكَ ، فَإِنَّ أُمَّتَكَ لَا تُطِيقُ ذَلِكَ ، فَرَاجَعْتُ فَوَضَعَ شَطْرَهَا ، فَرَجَعْتُ إِلَى مُوسَى ، قُلْتُ : وَضَعَ شَطْرَهَا ، فَقَالَ : رَاجِعْ رَبَّكَ ، فَإِنَّ أُمَّتَكَ لَا تُطِيقُ ، فَرَاجَعْتُ : فَوَضَعَ شَطْرَهَا ، فَرَجَعْتُ إِلَيْهِ ، فَقَالَ : ارْجِعْ إِلَى رَبِّكَ فَإِنَّ أُمَّتَكَ لَا تُطِيقُ ذَلِكَ ، فَرَاجَعْتُهُ ، فَقَالَ : هِيَ خَمْسٌ وَهِيَ خَمْسُونَ لَا يُبَدَّلُ الْقَوْلُ لَدَيَّ ، فَرَجَعْتُ إِلَى مُوسَى ، فَقَالَ : رَاجِعْ رَبَّكَ ، فَقُلْتُ : اسْتَحْيَيْتُ مِنْ رَبِّي ، ثُمَّ انْطَلَقَ بِي حَتَّى انْتَهَى بِي إِلَى سِدْرَةِ الْمُنْتَهَى ، وَغَشِيَهَا أَلْوَانٌ لَا أَدْرِي مَا هِيَ ، ثُمَّ أُدْخِلْتُ الْجَنَّةَ فَإِذَا فِيهَا حَبَايِلُ اللُّؤْلُؤِ وَإِذَا تُرَابُهَا الْمِسْكُ .
हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया कि हमसे अबू-सुफ़ियान-बिन-हर्ब ने बयान किया, हदीस हिरक़्ल के सिलसिले में कहा कि वो यानी नबी करीम (सल्ल०) हमें नमाज़ पढ़ने सच्चाई इख़्तियार करने और हराम से बचे रहने का हुक्म देते हैं।
नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया कि मेरे घर की छत खोल दी गई उस वक़्त मैं मक्का में था। फिर जिब्राईल (अलैहि०) उतरे और उन्होंने मेरा सीना चाक किया। फिर उसे ज़मज़म के पानी से धोया। फिर एक सोने का थाल लाए जो हिकमत और ईमान से भरा हुआ था। उसको मेरे सीने मैं रख दिया फिर सीने को जोड़ दिया फिर मेरा हाथ पकड़ा और मुझे आसमान की तरफ़ ले कर चले। जब मैं पहले आसमान पर पहुँचा तो जिब्राईल (अलैहि०) ने आसमान के दरोग़ा से कहा खोलो। उसने पूछा आप कौन हैं? जवाब दिया कि जिब्राईल! फिर उन्होंने पूछा: क्या आप के साथ कोई और भी है? जवाब दिया हाँ मेरे साथ मुहम्मद (सल्ल०) हैं। उन्होंने पूछा कि क्या उनके बुलाने के लिये आप को भेजा गया था? कहा जी हाँ! फिर जब उन्होंने दरवाज़ा खोला तो हम पहले आसमान पर चढ़ गए वहाँ हमने एक शख़्स को बैठे हुए देखा। उन के दाहिनी तरफ़ कुछ लोगों के झुण्ड थे और कुछ झुण्ड बाईं तरफ़ थे। जब वो अपनी दाहिनी तरफ़ देखते तो मुस्कुरा देते और जब बाईं तरफ़ नज़र करते तो रोते। उन्होंने मुझे देख कर फ़रमाया आओ अच्छे आए हो। सालेह नबी और सालेह बेटे! मैंने जिब्राईल (अलैहि०) से पूछा ये कौन हैं? उन्होंने कहा कि ये आदम (अलैहि०) हैं और उन के दाएँ-बाएँ जो झुण्ड हैं ये उन के बेटों की रूहें हैं। जो झुण्ड दाईं तरफ़ हैं वो जन्नती हैं और बाईं तरफ़ के झुण्ड दोज़ख़ी रूहें हैं। इसलिये जब वो अपने दाएँ तरफ़ देखते हैं तो ख़ुशी से मुस्कुराते हैं और जब बाएँ तरफ़ देखते हैं तो (रंज से) रोते हैं। फिर जिब्राईल मुझे ले कर दूसरे आसमान तक पहुँचे, और उसके दरोग़ा से कहा कि खोलो। इस आसमान के दरोग़ा ने भी पहले की तरह पूछा फिर खोल दिया। अनस ने कहा कि अबू-ज़र ने ज़िक्र किया कि आप (सल्ल०) यानी नबी करीम (सल्ल०) ने आसमान पर आदम, इदरीस, मूसा, ईसा और इब्राहीम (अलैहि०) को मौजूद पाया। और अबू-ज़र (रज़ि०) ने हर एक का ठिकाना नहीं बयान किया। अलबत्ता इतना बयान किया कि नबी करीम (सल्ल०) ने आदम को पहले आसमान पर पाया और इब्राहीम (अलैहि०) को छ्टे आसमान पर। अनस ने बयान किया कि जब जिब्राईल (अलैहि०) नबी करीम (सल्ल०) के साथ इदरीस (अलैहि०) पर गुज़रे तो उन्होंने फ़रमाया कि आओ अच्छे आए हो सालेह नबी और सालेह भाई। मैंने पूछा ये कौन हैं? जवाब दिया कि ये इदरीस (अलैहि०) हैं। फिर मूसा (अलैहि०) तक पहुँचा तो उन्होंने फ़रमाया आओ अच्छे आए हो सालेह नबी और सालेह भाई। मैंने पूछा ये कौन हैं? जिब्राईल (अलैहि०) ने बताया कि मूसा (अलैहि०) हैं। फिर मैं ईसा (अलैहि०) तक पहुँचा उन्होंने कहा, आओ अच्छे आए हो सालेह नबी और सालेह भाई। मैंने पूछा ये कौन हैं? जिब्राईल (अलैहि०) ने बताया कि ये ईसा (अलैहि०) हैं। फिर मैं इब्राहीम (अलैहि०) तक पहुँचा। उन्होंने फ़रमाया आओ अच्छे आए हो सालेह नबी और सालेह बेटे। मैंने पूछा ये कौन हैं? जिब्राईल (अलैहि०) ने बताया कि ये इब्राहीम (अलैहि०) हैं। इब्ने-शहाब ने कहा कि मुझे अबू-बक्र-बिन-हज़म ने ख़बर दी कि अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास और अबू-हबता अंसारी (रज़ि०) कहा करते थे कि नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया, फिर मुझे जिब्राईल (अलैहि०) ले कर चढ़े अब मैं उस बुलन्द मक़ाम तक पहुँच गया जहाँ मैंने क़लम की आवाज़ सुनी (जो लिखने वाले फ़रिश्तों की क़लमों की आवाज़ थी) इब्ने- हज़म ने (अपने शैख़ से) और अनस-बिन-मालिक ने अबू-ज़र (रज़ि०) से नक़ल किया कि नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया। इसलिये अल्लाह तआला ने मेरी उम्मत पर पचास वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ कीं। मैं ये हुक्म ले कर वापस लौटा। जब मूसा (अलैहि०) तक पहुँचा तो उन्होंने पूछा कि आपकी उम्मत पर अल्लाह ने क्या फ़र्ज़ किया है? मैंने कहा कि पचास वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ की हैं। उन्होंने फ़रमाया आप वापस अपने रब की बारगाह में जाइये। क्योंकि आपकी उम्मत इतनी नमाज़ों को अदा करने की ताक़त नहीं रखती है। मैं वापस बारगाहे-रब्बुल-इज़्ज़त मैं गया तो अल्लाह ने उसमें से एक हिस्सा कम कर दिया फिर मूसा (अलैहि०) के पास आया। और कहा कि एक हिस्सा कम कर दिया गया है उन्होंने कहा कि दोबारा जाइये क्योंकि आपकी उम्मत में उसके बर्दाश्त की भी ताक़त नहीं है। फिर में बारगाहे-रब्बुल-इज़्ज़त में हाज़िर हुआ। फिर एक हिस्सा कम हुआ। जब मूसा (अलैहि०) के पास पहुँचा तो उन्होंने फ़रमाया कि अपने रब की बारगाह में फिर जाइये क्योंकि आपकी उम्मत उसको भी बर्दाश्त न कर सकेगी फिर मैं बार-बार आया गया इसलिये अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि ये नमाज़ें (अमल में) पाँच हैं और (सवाब में) पचास (के बराबर) हैं। मेरी बात बदली नहीं जाती। अब मैं मूसा (अलैहि०) के पास आया। तो उन्होंने फिर कहा कि अपने रब के पास जाइये। लेकिन मैंने कहा मुझे अब अपने रब से शर्म आती है। फिर जिब्राईल मुझे सिदरतुल-मुन्तहा तक ले गए जिसे कई तरह के रंगों ने ढाँक रखा था। जिनके मुताल्लिक़ मुझे मालूम नहीं हुआ कि वो क्या हैं। उसके बाद मुझे जन्नत में ले जाया गया मैंने देखा कि उसमें मोतियों के हार हैं और उसकी मिट्टी मुश्क की है।
حَدَّثَنَا عَبْدُ الْعَزِيزِ بْنُ عَبْدِ اللَّهِ ، قَالَ : حَدَّثَنِي ابْنُ أَبِي الْمَوَالِي ، عَنْ مُحَمَّدِ بْنِ الْمُنْكَدِرِ ، قَالَ : دَخَلْتُ عَلَى جَابِرِ بْنِ عَبْدِ اللَّهِ وَهُوَ يُصَلِّي فِي ثَوْبٍ مُلْتَحِفًا بِهِ وَرِدَاؤُهُ مَوْضُوعٌ ، فَلَمَّا انْصَرَفَ قُلْنَا : يَا أَبَا عَبْدِ اللَّهِ ، تُصَلِّي وَرِدَاؤُكَ مَوْضُوعٌ ؟ قَالَ : نَعَمْ ، أَحْبَبْتُ أَنْ يَرَانِي الْجُهَّالُ مِثْلُكُمْ ، رَأَيْتُ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يُصَلِّي هَكَذَا .
मैं जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह अंसारी की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। वो एक कपड़ा अपने बदन पर लपेटे हुए नमाज़ पढ़ रहे थे। हालाँकि उनकी चादर अलग रखी हुई थी। जब आप नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो हमने कहा, ऐ अबू-अब्दुल्लाह ! आपकी चादर रखी हुई है और आप (इसे ओढ़े बग़ैर) नमाज़ पढ़ रहे हैं। उन्होंने फ़रमाया मैंने चाहा कि तुम जैसे जाहिल लोग मुझे इस तरह नमाज़ पढ़ते देख लें, मैंने भी नबी करीम (सल्ल०) को इसी तरह एक कपड़े में नमाज़ पढ़ते देखा था।
इत्बान-बिन-मालिक अंसारी (रज़ि०) रसूलुल्लाह (सल्ल०) के सहाबी और ग़ज़वा बद्र के हाज़िर होने वालों में से थे वो नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और कहा या रसूलुल्लाह! मेरी आँख की रौशनी मैं कुछ फ़र्क़ आ गया है और मैं अपनी क़ौम के लोगों को नमाज़ पढ़ाया करता हूँ लेकिन जब बरसात का मौसम आता है तो मेरे और मेरी क़ौम के बीच जो वादी है वो भर जाती है और बहने लग जाती है और मैं उन्हें नमाज़ पढ़ाने के लिये मस्जिद तक नहीं जा सकता या रसूलुल्लाह! मेरी ख़ाहिश है कि आप मेरे घर तशरीफ़ लाएँ और (किसी जगह) नमाज़ पढ़ दें ताकि मैं उसे नमाज़ पढ़ने की जगह बना लूँ। रावी ने कहा कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने इत्बान से फ़रमाया इंशा अल्लाह तआला मैं तुम्हारी इस ख़ाहिश को पूरा करूँगा। इत्बान ने कहा कि (दूसरे दिन) रसूलुल्लाह (सल्ल०) और अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) जब दिन चढ़ा तो दोनों तशरीफ़ ले आए और रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अन्दर आने की इजाज़त चाही। मैंने इजाज़त दे दी। जब आप घर में तशरीफ़ लाए तो बैठे भी नहीं और पूछा कि तुम अपने घर के किस हिस्से में मुझसे नमाज़ पढ़ने की ख़ाहिश रखते हो। इत्बान ने कहा कि मैंने घर में एक कोने की तरफ़ इशारा किया तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) (उस जगह) खड़े हुए और तकबीर कही हम भी आप के पीछे खड़े हो गए और सफ़ बाँधी। इसलिये आप ने दो रकअत (नफ़ल) नमाज़ पढ़ाई फिर सलाम फेरा। इत्बान ने कहा कि हमने आप को थोड़ी देर के लिये रोका और आपकी ख़िदमत में हलीम पेश किया जो आप ही के लिये तैयार किया गया था। इत्बान ने कहा कि मोहल्ले वालों का एक मजमअ घर में लग गया और मजमअ में से एक शख़्स बोला कि मालिक-बिन-दुख़शुन या (ये कहा) इब्ने-दुख़शुन दिखाई नहीं देता। इस पर किसी दूसरे ने कह दिया कि वो तो मुनाफ़िक़ है जिसे अल्लाह और रसूल से कोई मुहब्बत नहीं रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने ये सुन कर फ़रमाया: ऐसा मत कहो क्या तुम देखते नहीं कि उसने (ला इला-ह इल्लल्लाह) कहा है और उस से मक़सद ख़ालिस अल्लाह की रज़ा मन्दी हासिल करना है। तब मुनाफ़िक़त का इलज़ाम लगाने वाला बोला कि अल्लाह और उसके रसूल को ज़्यादा इल्म है। हम तो बज़ाहिर उसकी तवज्जोहात और दोस्ती मुनाफ़िक़ों ही के साथ देखते हैं। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “अल्लाह तआला ने (ला इला-ह इल्लल्लाह) कहने वाले पर, अगर उसका मक़सद ख़ालिस अल्लाह की रज़ा हासिल करना हो, दोज़ख़ की आग हराम कर दी है। इब्ने-शहाब ने कहा कि फिर मैंने महमूद से सुन कर हुसैन-बिन-मुहम्मद अंसारी से जो बनू-सालिम के शरीफ़ लोगों में से हैं (इस हदीस) के मुताल्लिक़ पूछा तो उन्होंने उसकी तस्दीक़ की और कहा कि महमूद सच्चा है।
Sahih Bukhari:425
मैं जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह अंसारी की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। वो एक कपड़ा अपने बदन पर लपेटे हुए नमाज़ पढ़ रहे थे। हालाँकि उनकी चादर अलग रखी हुई थी। जब आप नमाज़ से फ़ारिग़ हुए तो हमने कहा, ऐ अबू-अब्दुल्लाह ! आपकी चादर रखी हुई है और आप (इसे ओढ़े बग़ैर) नमाज़ पढ़ रहे हैं। उन्होंने फ़रमाया मैंने चाहा कि तुम जैसे जाहिल लोग मुझे इस तरह नमाज़ पढ़ते देख लें, मैंने भी नबी करीम (सल्ल०) को इसी तरह एक कपड़े में नमाज़ पढ़ते देखा था।
Sahih Bukhari:370
रसूलुल्लाह (सल्ल०) एक दिन बातचीत कर रहे थे। उस वक़्त आपके पास एक देहाती भी था (फ़रमाया) कि "अहले-जन्नत में से एक शख़्स ने अल्लाह तआला से खेती की इजाज़त चाही तो अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि क्या वो सब कुछ तुम्हारे पास नहीं है जो तुम चाहते हो? वो कहेगा : ज़रूर है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि खेती करूँ। चुनांचे बहुत जल्दी वो बीज डालेगा और पलक झपकने तक उसका उगना, बराबर होना, कटना और पहाड़ों की तरह ग़ल्ले के ढेर लग जाना हो जाएगा। अल्लाह तआला कहेगा : इब्ने-आदम ! इसे ले ले, तेरे पेट को कोई चीज़ नहीं भर सकती।" देहाती ने कहा : या रसूलुल्लाह! इसका मज़ा तो क़ुरैशी या अंसारी ही उठाएँगे क्योंकि वही खेती बाड़ी वाले हैं, हम तो किसान हैं नहीं। नबी करीम (सल्ल०) को ये बात सुन कर हँसी आ गई।
Sahih Bukhari:7519
अबू-बक्र (रज़ि०) ने मुझे बुला भेजा फिर मैंने क़ुरआन की तलाश की और सूरा तौबा की आख़िरी आयत अबू-ख़ुज़ेमा अंसारी (रज़ि०) के पास पाई। ये आयात मुझे किसी और के पास नहीं मिली थीं لقد جاءكم رسول من أنفسكم सूरा बरअत के आख़िर तक। हम से यहया-बिन-बुकैर ने बयान किया उन से लैस ने बयान किया और उन से यूनुस ने यही बयान किया कि अबू-ख़ुज़ेमा अंसारी (रज़ि०) के पास सूरा तौबा की आख़िरी आयात पाईं।
Sahih Bukhari:7425
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने बनी-अदी अंसारी के एक साहिब सुवाद-बिन-अज़िय्या को ख़ैबर का गवर्नर बनाकर भेजा तो वो उम्दा क़िस्म की खजूर वुसूल करके लाए। नबी (सल्ल०) ने पूछा: क्या ख़ैबर की तमाम खजूरें ऐसी ही हैं? उन्होंने कहा कि नहीं ऐअल्लाह के रसूल! अल्लाह की क़सम! हम ऐसी एक साअ खजूर दो साअ (ख़राब) खजूर के बदले ख़रीद लेते हैं। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि ऐसा न किया करो बल्कि (जिंस को जिंस के बदले) बराबर-बराबर में ख़रीदो या इस तरह करो कि रद्दी खजूर नक़द बेच डालो फिर ये खजूर उसके बदले ख़रीद लो। इसी तरह हर चीज़ को जो तौलकर बिकती है उसका हुक्म उन ही चीज़ों का है जो नापकर बिकती हैं।
Sahih Bukhari:7350
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने बनी-अदी अंसारी के एक साहिब सुवाद-बिन-अज़िय्या को ख़ैबर का गवर्नर बनाकर भेजा तो वो उम्दा क़िस्म की खजूर वुसूल करके लाए। नबी (सल्ल०) ने पूछा: क्या ख़ैबर की तमाम खजूरें ऐसी ही हैं? उन्होंने कहा कि नहीं ऐअल्लाह के रसूल! अल्लाह की क़सम! हम ऐसी एक साअ खजूर दो साअ (ख़राब) खजूर के बदले ख़रीद लेते हैं। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि ऐसा न किया करो बल्कि (जिंस को जिंस के बदले) बराबर-बराबर में ख़रीदो या इस तरह करो कि रद्दी खजूर नक़द बेच डालो फिर ये खजूर उसके बदले ख़रीद लो। इसी तरह हर चीज़ को जो तौलकर बिकती है उसका हुक्म उन ही चीज़ों का है जो नापकर बिकती हैं।
Sahih Bukhari:7351
मैं अबू-तलहा अंसारी अबू-उबैदा-बिन-जर्राह और उबई-बिन-कअब (रज़ि०) को खजूर की शराब पिला रहा था। इतने में एक आने वाले शख़्स ने आ कर ख़बर दी कि शराब हराम कर दी गई है। अबू-तलहा (रज़ि०) ने उस शख़्स की ख़बर सुनते ही कहा : अनस! उन मटकों को बढ़ कर सबको तोड़ दे। अनस (रज़ि०) ने बयान किया कि मैं एक हावन दस्ते की तरफ़ बढ़ा जो हमारे पास था और मैंने उसके निचले हिस्से से उन मटकों पर मारा जिससे वो सब टूट गए।
Sahih Bukhari:7253
जब नबी करीम (सल्ल०) मदीना तशरीफ़ लाए तो मदीना के बुलन्द तरफ़ क़ुबा के एक मोहल्ले मैं आप ने (सबसे पहले) क़ियाम किया जिसे बनी अम्र-बिन-औफ़ का मोहल्ला कहा जाता था। रावी ने बयान किया कि नबी करीम (सल्ल०) ने वहाँ चौदह रात क़ियाम किया फिर आप ने क़बीला बनी-नज्जार के लोगों को बुला भेजा। उन्होंने बयान किया कि अंसार बनी-नज्जार आपकी ख़िदमत में तलवारें लटकाए हुए हाज़िर हुए। रावी ने बयान किया मानो उस वक़्त भी वो मंज़र मेरी नज़रों के सामने है कि नबी करीम (सल्ल०) अपनी सवारी पर सवार हैं। अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) उसी सवारी पर आप के पीछे सवार हैं और बनी-नज्जार के अंसार आप के चारों तरफ़ हलक़ा बनाए हुए मुसल्लेह पैदल चले जा रहे हैं। आख़िर आप अबू-अय्यूब अंसारी के घर के क़रीब उतर गए। रावी ने बयान किया कि अभी तक जहाँ भी नमाज़ का वक़्त हो जाता वहीं आप नमाज़ पढ़ लेते थे। बकरियों के रेवड़ जहाँ रात को बाँधे जाते वहाँ भी नमाज़ पढ़ ली जाती थी। बयान किया कि फिर आप (सल्ल०) ने मस्जिद की तामीर का हुक्म फ़रमाया। आप ने उसके लिये क़बीला बनी-नज्जार के लोगों को बुला भेजा। वो हाज़िर हुए तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, ''ऐ बनू नज्जार! अपने इस बाग़ की क़ीमत तय कर लो।'' उन्होंने कहा, नहीं अल्लाह की क़सम हम उसकी क़ीमत अल्लाह के सिवा और किसी से नहीं ले सकते। रावी ने बयान किया कि इस बाग़ में वो चीज़ें थीं जो मैं तुमसे बयान करूँगा। उसमें मुशरेकीन की क़ब्रें थीं कुछ उसमें खण्डहर था और खजूरों के पेड़ भी थे। नबी करीम (सल्ल०) के हुक्म से मुशरेकीन की क़ब्रें उखाड़ दी गईं, जहाँ खण्डहर था उसे बराबर किया गया और खजूरों के पेड़ काट दिये गए। रावी ने बयान किया कि खजूर के तने मस्जिद की तरफ़ एक क़तार मैं बतौर दीवार रख दिये गए और दरवाज़े में (चौखट की जगह) पत्थर रख दिये। अनस (रज़ि०) ने बयान किया कि सहाबा जब पत्थर ला रहे थे। तो शेर पढ़ते जाते थे नबी करीम (सल्ल०) भी उन के साथ ख़ुद पत्थर लाते और शेर पढ़ते। सहाबा ये शेर पढ़ते कि ऐ अल्लाह! आख़िरत ही की ख़ैर-ख़ैर है इसलिये तू अंसार और मुहाजरीन की मदद फ़रमा।
Sahih Bukhari:3932
नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया, ''मेरे घर की छत खोली गई। मेरा क़ियाम उन दिनों मक्का में था। फिर जिब्राईल (अलैहि०) उतरे और मेरा सीना चाक किया और उसे ज़मज़म के पानी से धोया। उसके बाद सोने का एक थाल लाए जो हिकमत और ईमान से भरा हुआ था उसे मेरे सीने मैं उंडेल दिया। फिर मेरा हाथ पकड़ कर आसमान की तरफ़ ले कर चले जब आसमाने-दुनिया पर पहुँचे, तो जिब्राईल (अलैहि०) ने आसमान के दरोग़ा से कहा कि दरवाज़ा खोलो पूछा कि कौन साहिब हैं? उन्होंने जवाब दिया कि मैं जिब्राईल फिर पूछा कि आप के साथ कोई और भी है? जवाब दिया कि मेरे साथ मुहम्मद (सल्ल०) हैं पूछा कि उन्हें लाने के लिये आप को भेजा गया था। जवाब दिया कि हाँ अब दरवाज़ा खुला जब हम आसमान पर पहुँचे, तो वहाँ एक बुज़ुर्ग से मुलाक़ात हुई कुछ इन्सानी रूहें उन के दाएँ तरफ़ थीं और कुछ बाएँ तरफ़ जब वो दाएँ तरफ़ देखते तो हँस देते और जब बाएँ तरफ़ देखते तो रो पड़ते। उन्होंने कहा, स्वागत है नेक नबी, नेक बेटे! मैंने पूछा जिब्राईल! ये साहिब कौन बुज़ुर्ग हैं? तो उन्होंने बताया कि ये आदम (अलैहि०) हैं और ये इन्सानी रूहें उनके दाएँ और बाएँ तरफ़ थीं उनकी औलाद बनी-आदम की रूहें थीं उन के जो दाएँ तरफ़ थीं वो जन्नती थीं और जो बाएँ तरफ़ थीं वो दोज़ख़ी थीं इसी लिये जब वो दाएँ तरफ़ देखते तो मुस्कुराते और जब बाएँ तरफ़ देखते तो रोते थे फिर जिब्राईल (अलैहि०) मुझे ऊपर ले कर चढ़े और दूसरे आसमान पर आए। इस आसमान के दरोग़ा से भी उन्होंने कहा कि दरवाज़ा खोलो। उन्होंने भी इसी तरह के सवालात किये जो पहले आसमान पर हो चुके थे, फिर दरवाज़ा खोला। अनस (रज़ि०) ने बयान किया कि अबू-ज़र (रज़ि०) ने तफ़सील से बताया कि नबी करीम (सल्ल०) ने मुख़्तलिफ़ आसमानों पर इदरीस, मूसा, ईसा और इब्राहीम (अलैहि०) को पाया लेकिन उन्होंने उन नबियों के मक़ामात की कोई तख़सीस नहीं की सिर्फ़ इतना कहा कि नबी करीम (सल्ल०) ने आदम (अलैहि०) को आसमाने-दुनिया (पहले आसमान पर) पाया और इब्राहीम (अलैहि०) को छ्टे पर और अनस (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर जब जिब्राईल (अलैहि०) इदरीस (अलैहि०) के पास से गुज़रे तो उन्होंने कहा, स्वागत है नेक नबी, नेक भाई मैंने पूछा कि ये कौन साहिब हैं? जिब्राईल (अलैहि०) ने बताया कि ये इदरीस (अलैहि०) हैं फिर मैं ईसा (अलैहि०) के पास से गुज़रा उन्होंने भी कहा स्वागत है, नेक नबी, नेक भाई मैंने पूछा ये कौन साहिब हैं? तो बताया कि ईसा (अलैहि०)। फिर इब्राहीम (अलैहि०) के पास से गुज़रा तो उन्होंने फ़रमाया कि स्वागत है नेक नबी और नेक बेटे। मैंने पूछा ये कौन साहिब हैं? जवाब दिया कि ये इब्राहीम (अलैहि०) हैं इब्ने-शहाब से ज़ोहरी ने बयान किया और मुझे अय्यूब-बिन-हज़म ने ख़बर दी कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और अबू-हय्या अंसारी (रज़ि०) बयान करते थे कि नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया, फिर मुझे ऊपर ले कर चढ़े और मैं इतने बुलन्द मक़ाम पर पहुँच गया जहाँ से क़लम के लिखने की आवाज़ साफ़ सुनने लगी थी अबू-बक्र-बिन-हज़म ने बयान किया और अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) ने बयान किया कि नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया, फिर अल्लाह तआला ने पचास वक़्त की नमाज़ें मुझ पर फ़र्ज़ कीं। मैं इस फ़रीज़े के साथ वापस हुआ और जब मूसा (अलैहि०) के पास से गुज़रा तो उन्होंने पूछा कि आपकी उम्मत पर क्या चीज़ फ़र्ज़ की गई है? मैंने जवाब दिया कि पचास वक़्त की नमाज़ें, उन पर फ़र्ज़ हुई हैं। उन्होंने कहा कि आप अपने रब के पास वापस जाएँ क्योंकि आपकी उम्मत में इतनी नमाज़ों की ताक़त नहीं है। चुनांचे मैं वापस हुआ और रब के दरबार में रुजू किया; उसके नतीजे में उसका एक हिस्सा कम कर दिया गया फिर मैं मूसा (अलैहि०) के पास आया। और इस मर्तबा भी उन्होंने कहा कि अपने रब से फिर रुजू करें। फिर उन्होंने अपनी तफ़सीलात का ज़िक्र किया कि रब ने एक हिस्से की फिर कमी कर दी। फिर मैं मूसा (अलैहि०) के पास आया। और उन्हें ख़बर की उन्होंने कहा कि आप अपने रब के पास वापस जाएँ, क्योंकि आपकी उम्मत में उसकी भी ताक़त नहीं है फिर मैं वापस हुआ और अपने रब से फिर रुजू किया, अल्लाह तआला ने इस मर्तबा फ़रमा दिया कि नमाज़ें पाँच वक़्त की कर दी गईं और सवाब पचास नमाज़ों का ही बाक़ी रखा गया हमारा क़ौल बदला नहीं करता। फिर मैं मूसा (अलैहि०) के पास आया। तो उन्होंने अब भी उसी पर ज़ोर दिया कि अपने रब के पास आप को फिर जाना चाहिये। लेकिन मैंने कहा कि मुझे अल्लाह पाक से बार-बार दरख़ास्त करते हुए अब शर्म आती है। फिर जिब्राईल (अलैहि०) मुझे ले कर आगे बढ़े और सिदरतुल-मुन्तहा के पास लाए, जहाँ मुख़्तलिफ़ क़िस्म के रंग नज़र आए, जिन्होंने इस पेड़ को छिपा रखा था; मैं नहीं जानता कि वो क्या थे। उसके बाद मुझे जन्नत में दाख़िल किया गया तो मैंने देखा कि मोती के गुंबद बने हुए हैं और उसकी मिट्टी मुश्क की तरह ख़ुशबूदार थी।
Sahih Bukhari:3342
जब अल्लाह तआला ने अपने रसूल को क़बीला हवाज़िन के मालों में से ग़नीमत दी और आप (सल्ल०) क़ुरैश के कुछ आदमियों को (दिलजोई की ग़रज़ से) सौ-सौ ऊँट देने लगे तो कुछ अंसारी लोगों ने कहा, अल्लाह तआला रसूलुल्लाह (सल्ल०) की बख़्शिश करे। आप क़ुरैश को तो दे रहे हैं और हमें छोड़ दिया। हालाँकि उन का ख़ून अभी तक हमारी तलवारों से टपक रहा है। (क़ुरैश के लोगों को हाल ही में हमने मारा उन के शहर को हम ही ने फ़तह किया) अनस (रज़ि०) ने बयान किया कि नबी करीम (सल्ल०) को जब ये ख़बर पहुँची तो आप (सल्ल०) ने अंसार को बुलाया और उन्हें चमड़े के एक डेरे मैं जमा किया। उन के सिवा किसी दूसरे सहाबी को आप (सल्ल०) ने नहीं बुलाया। जब सब अंसारी लोग जमा हो गए तो आप (सल्ल०) भी तशरीफ़ लाए और पूछा कि आप लोगों के बारे में जो बात मुझे मालूम हुई वो कहाँ तक सही है? अंसार के समझ दार लोगों ने कहा : या रसूलुल्लाह! हम में जो अक़ल वाले हैं वो तो कोई ऐसी बात ज़बान पर नहीं लाए हैं हाँ कुछ नई उम्र का के लड़के हैं उन्होंने ये कहा है कि अल्लाह रसूलुल्लाह (सल्ल०) की बख़्शिश करे आप (सल्ल०) क़ुरैश को तो दे रहे हैं और हमको नहीं देते हालाँकि हमारी तलवारों से अभी तक उन के ख़ून टपक रहे हैं। इस पर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि मैं कुछ ऐसे लोगों को देता हूँ जिन का कुफ़्र का ज़माना अभी गुज़रा है। (और उन को देकर उनकी दिलजोई करता हूँ) क्या तुम इस पर ख़ुश नहीं हो कि जब दूसरे लोग माल और दौलत ले कर वापस जा रहे होंगे तो तुम लोग अपने घरों को रसूलुल्लाह को ले कर वापस जा रहे होगे। अल्लाह की क़सम ! तुम्हारे साथ जो कुछ वापस जा रहा है वो उस से बेहतर है जो दूसरे लोग अपने साथ वापस ले जाएँगे। सब अंसारियों ने कहा : बेशक या रसूलुल्लाह! हम इस पर राज़ी और ख़ुश हैं। फिर आप (सल्ल०) ने उन से फ़रमाया : मेरे बाद तुम ये देखोगे कि तुम पर दूसरे लोगों को मुक़द्दम किया जाएगा उस वक़्त तुम सब्र करना (दंगा-फ़साद न करना) यहाँ तक कि अल्लाह तआला से जा मिलो और उसके रसूल से हौज़े-कौसर पर।" अनस (रज़ि०) ने बयान किया फिर हम से सब्र न हो सका।
Sahih Bukhari:3147
मुझे उमर-बिन-उसैद-बिन-जारिया सक़फ़ी ने ख़बर दी जो बनी-ज़ोहरा के मित्र थे और अबू-हुरैरा (रज़ि०) के शागिर्दों मैं शामिल थे कि अबू-हुरैरा (रज़ि०) ने कहा कि नबी करीम (सल्ल०) ने दस जासूस भेजे और उन का अमीर आसिम-बिन-साबित अंसारी (रज़ि०) को बनाया जो आसिम-बिन-उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) के नाना होते हैं। जब ये लोग असफ़ान और मक्का के बीच मक़ाम हदा पर पहुँचे, तो बनी हुज़ैल के एक क़बीला को उन के आने की इत्तिला मिल गई। इस क़बीले का नाम बनी लह्यान था। उसके सौ तीरन्दाज़ उन सहाबा (रज़ि०) की तलाश में निकले और उन के निशान क़दम के अन्दाज़े पर चलने लगे। आख़िर उस जगह पहुँच गए जहाँ बैठ कर उन सहाबा (रज़ि०) ने खजूर खाई थी। उन्होंने कहा कि ये मदीना (मदीना) की खजूर (की गुठलियाँ) हैं। अब फिर वो उनके निशाने-क़दम के अन्दाज़े पर चलने लगे। जब आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) और उन के साथियों ने उन के आने को मालूम कर लिया। तो एक (महफ़ूज़) जगह पनाह ली। क़बीला वालों ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया और कहा कि नीचे उतर आओ और हमारी पनाह ख़ुद क़बूल कर लो तो तुम से हम वादा करते हैं कि तुम्हारे किसी आदमी को भी हम क़त्ल नहीं करेंगे। आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) ने कहा : मुसलमानो! मैं किसी काफ़िर की पनाह में नहीं उतर सकता। फिर उन्होंने दुआ की ऐ अल्लाह! हमारे हालात की ख़बर अपने नबी को कर दे आख़िर क़बीला वालों ने मुसलमानों पर तीर-अन्दाज़ी की और आसिम (रज़ि०) को शहीद कर दिया। बाद में उनके वादे पर तीन सहाबा उतर आए। ये हज़रात ख़ुबैब ज़ैद-बिन-दसना और एक तीसरे सहाबी थे। क़बीला वालों ने जब उन तीनों सहाबियों पर क़ाबू पा लिया तो उन की कमान से ताँत निकाल कर उसी से उन्हें बाँध दिया। तीसरे सहाबी ने कहा, ये तुम्हारी पहली दग़ा बाज़ी है। मैं तुम्हारे साथ कभी नहीं जा सकता। मेरे लिये तो उन्हें की ज़िन्दगी नमूना है। आपका इशारा उन सहाबा की तरफ़ था जो अभी शहीद किये जा चुके थे। काफ़िरों ने उन्हें घसीटना शुरू किया और ज़बरदस्ती की लेकिन वो किसी तरह उन के साथ जाने पर तैयार न हुए। (तो उन्होंने उन को भी शहीद कर दिया) और ख़ुबैब (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-दसना (रज़ि०) को साथ ले गए और (मक्का मैं ले जा कर) उन्हें बेच दिया। ये बद्र की लड़ाई के बाद का वाक़िआ है। हारिस-बिन-आमिर-बिन- नौफ़ल के लड़कों ने ख़ुबैब (रज़ि०) को ख़रीद लिया। उन्होंने ही ने बद्र की लड़ाई में हारिस-बिन-आमिर को क़त्ल किया था। कुछ दिनों तक तो वो उन के यहाँ क़ैद रहे आख़िर उन्होंने उन के क़त्ल का इरादा किया। उन्ही दिनों हारिस की किसी लड़की से उन्होंने नाफ़ (नाभि) के नीचे के बाल साफ़ करने के लिये उस्तरा माँगा। उसने दे दिया। उस वक़्त उसका एक छोटा सा बच्चा उन के पास (खेलता हुआ) उस औरत की बे-ख़बरी मैं चला गया। फिर जब वो उन की तरफ़ आई तो देखा कि बच्चा उन की जाँघ पर बैठा हुआ है। और उस्तरा उन के हाथ में है उन्होंने बयान किया कि ये देखते ही वो इस दर्जा घबरा गई कि ख़ुबैब (रज़ि०) ने उसकी घबराहट को देख लिया और बोले क्या तुम्हें इसका ख़ौफ़ है कि मैं इस बच्चे को क़त्ल कर दूँगा? यक़ीन रखो कि ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकता। उस औरत ने बयान किया कि अल्लाह की क़सम ! मैंने कभी कोई क़ैदी ख़ुबैब (रज़ि०) से बेहतर नहीं देखा। अल्लाह की क़सम ! मैंने एक दिन अंगूर के एक गुच्छे से उन्हें अंगूर खाते देखा जो उन के हाथ में था हालाँकि वो लोहे की ज़ंजीरों मैं जकड़े हुए थे। और मक्का में उस वक़्त कोई फल भी नहीं था। वो बयान करती थीं कि वो तो अल्लाह की तरफ़ से भेजी हुई रोज़ी थी जो उसने ख़ुबैब (रज़ि०) के लिये भेजी थी। फिर बनू हारिसा उन्हें क़त्ल करने के लिये हरम से बाहर ले जाने लगे तो ख़ुबैब (रज़ि०) ने उन से कहा कि मुझे दो रकअत नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दो। उन्होंने उसकी इजाज़त दी तो उन्होंने दो रकअत नमाज़ पढ़ी और फ़रमाया : अल्लाह की क़सम ! अगर तुम्हें ये ख़याल न होने लगता कि मुझे घबराहट है (मौत से) तो और ज़्यादा देर तक पढ़ता। फिर उन्होंने दुआ की कि ऐ अल्लाह! उन में से हर एक को अलग अलग हलाक कर और एक को भी बाक़ी न छोड़ और ये अशआर पढ़े जब मैं इस्लाम पर क़त्ल किया जा रहा हूँ तो मुझे कोई परवाह नहीं कि अल्लाह की राह में मुझे किस पहलू पर पछाड़ा जाएगा और ये तो सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा हासिल करने के लिये है। अगर वो चाहेगा तो मेरे जिस्म के एक-एक जोड़ पर सवाब अता फ़रमाएगा।उसके बाद अबू-सरूआ अक़बा-बिन-हारिस उन की तरफ़ बढ़ा और उसने उन्हें शहीद कर दिया। ख़ुबैब (रज़ि०) ने अपने नेक अमल से हर उस मुसलमान के लिये जिसे क़ैद करके क़त्ल किया जाए (क़त्ल से पहले दो रकअत) नमाज़ की सुन्नत क़ायम की है। इधर जिस दिन उन सहाबा (रज़ि०) पर मुसीबत आई थी आप (सल्ल०) ने अपने सहाबा (रज़ि०) को उसी दिन उसकी ख़बर दे दी थी। क़ुरैश के कुछ लोगों को जब मालूम हुआ कि आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) शहीद कर दिये गए हैं तो उन के पास अपने आदमी भेजे ताकि उन के जिस्म का कोई ऐसा हिस्सा लाएँ जिससे उन्हें पहचाना जा सके। क्योंकि उन्होंने भी (बद्र में) उन के एक सरदार (अक़बा-बिन-अबी-मुऐत) को क़त्ल किया था लेकिन अल्लाह तआला ने उनकी लाश पर बादल की तरह भिड़ों की एक फ़ौज भेज दी और उन्होंने आपकी लाश को क़ुरैश के काफ़िरों के उन आदमियों से बचा लिया और वो उन के जिस्म का कोई हिस्सा भी न काट सके और कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) ने बयान किया कि मेरे सामने लोगों ने मुरारह-बिन-रबीअ उमरी (रज़ि०) और हिलाल-बिन-उमैया जान-पहचान (रज़ि०) का ज़िक्र किया। (जो ग़ज़वाए-तबूक में नहीं जा सके थे) कि वो सालेह सहाबियों में से हैं और बद्र की लड़ाई में शरीक हुए थे।
Sahih Bukhari:3989
जंगे-बद्र की ग़नीमत में से मुझे एक और ऊँटनी मिली थी और उसी जंग की ग़नीमत में से अल्लाह तआला ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) का जो ख़ुम्स के तौर पर हिस्सा मुक़र्रर किया था उसमें से भी नबी करीम (सल्ल०) ने मुझे एक ऊँटनी इनायत फ़रमाई थी। फिर मेरा इरादा हुआ कि नबी करीम (सल्ल०) की बेटी फ़ातिमा (रज़ि०) की रुख़्सती करा लाऊँ। इसलिये बनी क़ैनुक़ाअ के एक सुनार से बात चीत की कि वो मेरे साथ चले और हम इज़ख़िर घास लाएँ। मेरा इरादा था कि मैं इस घास को सुनारों के हाथ बीच दूँगा और उसकी क़ीमत वलीमे की दावत में लगाऊँगा। मैं अभी अपनी ऊँटनी के लिये पालान टोकरे और रस्सियाँ जमा कर रहा था। ऊँटनियाँ एक अंसारी सहाबी के हुजरे के क़रीब बैठी हुई थीं। मैं जिन इन्तिज़ामात मैं था जब वो पूरे हो गए तो (ऊँटनियों को लेने आया) वहाँ देखा कि उन के कोहान किसी ने काट दिये हैं और कोख चीर कर अन्दर से कलेजी निकाल ली है। ये हालत देख कर मैं अपने आँसुओं को न रोक सका। मैंने पूछा ये किसने किया है? लोगों ने बताया कि हमज़ा-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०) ने और वो अभी उसी हुजरे में अंसार के साथ शराब पीने की एक मजलिस में मौजूद हैं। उन के पास एक गाने वाली है और उनके दोस्त-अहबाब हैं। गाने वाली ने गाते हुए जब ये मिसरअ पढ़ा। हाँ ऐ हमज़ा! ये उम्दा और गोश्त से भरी ऊँटनियाँ हैं तो हमज़ा (रज़ि०) ने कूद कर अपनी तलवार थामी और उन दोनों ऊँटनियों के कोहान काट डाले और उनकी कोख चीर कर अन्दर से कलेजी निकाल ली। अली (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर मैं वहाँ से नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ। ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) भी नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में मौजूद थे। आप (सल्ल०) ने मेरे ग़म को पहले ही जान लिया और फ़रमाया कि क्या बात पेश आई? मैं बोला : या रसूलुल्लाह! आज जैसी तकलीफ़ की बात कभी पेश नहीं आई थी। हमज़ा (रज़ि०) ने मेरी दोनों ऊँटनियों को पकड़ के उन के कोहान काट डाले और उन की कोख चीर डाली है। वो यहीं एक घर में शराब की मजलिस जमाए बैठे हैं। नबी करीम (सल्ल०) ने अपनी चादर मुबारक मँगवाई और उसे ओढ़ कर आप तशरीफ़ ले चले। मैं और ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) भी साथ-साथ हो लिये। जब इस घर के क़रीब आप तशरीफ़ ले गए और हमज़ा (रज़ि०) ने जो कुछ किया था इस पर उन्हें तंबीह फ़रमाई। हमज़ा (रज़ि०) शराब के नशे मैं मस्त थे और उन की आँखें सुर्ख़ थीं। उन्होंने आप (सल्ल०) की तरफ़ नज़र उठाई फिर ज़रा और ऊपर उठाई और आप के घुटनों पर देखने लगे फिर और नज़र उठाई और आप के चेहरा पर देखने लगे। फिर कहने लगे तुम सब मेरे बाप के ग़ुलाम हो। आप (सल्ल०) समझ गए कि वो इस वक़्त बेहोश हैं। इसलिये आप फ़ौरन उलटे पाँव उस घर से बाहर निकल आए हम भी आप के साथ थे।
Sahih Bukhari:4003
रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अबू-राफ़ेअ यहूदी (के क़त्ल ) के लिये कुछ अंसारी सहाबा को भेजा और अब्दुल्लाह-बिन-अतीक (रज़ि०) को उन का अमीर बनाया। ये अबू-राफ़ेअ नबी करीम (सल्ल०) को तकलीफ़ दिया करता था और आप के दुश्मनों की मदद किया करता था। हिजाज़ मैं उसका एक क़िला था और वहीं वो रहा करता था। जब उसके क़िले के क़रीब ये पहुँचे, तो सूरज डूब चुका था। और लोग अपने मवेशी ले कर (अपने घरों को) वापस हो चुके थे। अब्दुल्लाह-बिन-अतीक (रज़ि०) ने अपने साथियों से कहा कि तुम लोग यहीं ठहरे रहो मैं (उस क़िले पर) जा रहा हूँ और दरबान पर कोई तदबीर करूँगा। ताकि मैं अन्दर जाने मैं कामयाब हो जाऊँ। चुनांचे वो (क़िले के पास) आए और दरवाज़े के क़रीब पहुँच कर उन्होंने ख़ुद को अपने कपड़ों में इस तरह छिपा लिया जैसे कोई ज़रूरत कर रहा हो। क़िले के तमाम आदमी अन्दर दाख़िल हो चुके थे। दरबान ने आवाज़ दी ऐ अल्लाह के बन्दे! अगर अन्दर आना है तो जल्द आ जा। मैं अब दरवाज़ा बन्द कर दूँगा। (अब्दुल्लाह-बिन-अतीक (रज़ि०) ने कहा) चुनांचे मैं भी अन्दर चला गया और छिप कर उसकी कार्रवाई देखने लगा। जब सब लोग अन्दर आ गए तो उसने दरवाज़ा बन्द किया और कुंजियों का गुच्छा एक खूँटी पर लटका दिया। उन्होंने बयान किया कि अब मैं उन कुंजियों की तरफ़ बढ़ा और मैंने उन्हें ले लिया फिर मैंने क़िले का दरवाज़ा खोल लिया। अबू-राफ़ेअ के पास रात के वक़्त दास्तानें बयान की जा रही थीं और वो अपने ख़ास बाला-ख़ाने मैं था। जब दास्तान-गो उसके यहाँ से उठ कर चले गए तो मैं इस कमरे की तरफ़ चढ़ने लगा। उस वक़्त मैं जितने दरवाज़े उस तक पहुँचने के लिये खोलता था उन्हें अन्दर से बन्द करता जाता था। मेरा मतलब ये था कि अगर क़िले वालों को मेरे मुताल्लिक़ इल्म भी हो जाए तो उस वक़्त तक ये लोग मेरे पास न पहुँच सकें जब तक मैं उसे क़त्ल न कर लूँ। आख़िर में उसके क़रीब पहुँच गया। उस वक़्त वो एक अँधेरे कमरे मैं अपने बाल-बच्चों के साथ (सो रहा) था मुझे कुछ अन्दाज़ा नहीं हो सका कि वो कहाँ है। इसलिये मैंने आवाज़ दी या अबू-राफ़ेअ? वो बोला कौन है? अब मैंने आवाज़ की तरफ़ बढ़ कर तलवार की एक चोट लगाई। उस वक़्त मेरा दिल धक-धक कर रहा था। यही वजह हुई कि मैं उसका काम तमाम नहीं कर सका। वो चीख़ा तो मैं कमरे से बाहर निकल आया और थोड़ी देर तक बाहर ही ठहरा रहा। फिर दोबारा अन्दर गया और मैंने आवाज़ बदल कर पूछा अबू-राफ़ेअ! ये आवाज़ कैसी थी? वो बोला तेरी माँ ग़ारत हो। अभी अभी मुझ पर किसी ने तलवार से हमला किया है। उन्होंने बयान किया कि फिर (आवाज़ की तरफ़ बढ़ कर) मैंने तलवार की एक चोट और लगाई। उन्होंने बयान किया कि हालाँकि मैं उसे ज़ख़्मी तो बहुत कर चुका था लेकिन वो अभी मरा नहीं था। इसलिये मैंने तलवार की नोक उसके पेट पर रख कर दबाई जो उसकी पीठ तक पहुँच गई। मुझे अब यक़ीन हो गया कि मैं उसे क़त्ल कर चुका हूँ। चुनांचे मैंने दरवाज़े एक-एक करके खोलने शुरू किये। आख़िर में एक ज़ीने पर पहुँचा। मैं ये समझा कि ज़मीन तक मैं पहुँच चुका हूँ (लेकिन अभी मैं पहुँचा न था) इसलिये मैंने उस पर पाँव रख दिया और नीचे गिर पड़ा। चाँदनी रात थी। इस तरह गिर पड़ने से मेरी पिंडली टूट गई। मैंने उसे अपने अमामा से बाँध लिया और आ कर दरवाज़े पर बैठ गया। मैंने ये इरादा कर लिया था कि यहाँ से उस वक़्त तक नहीं जाऊँगा जब तक ये न मालूम कर लूँ कि आया मैं उसे क़त्ल कर चुका हूँ या नहीं ? जब मुर्ग़ ने आवाज़ दी तो उसी वक़्त क़िले की फ़सील पर एक पुकारने वाले ने खड़े हो कर पुकारा कि मैं अहले-हिजाज़ के ताजिर अबू-राफ़ेअ की मौत का ऐलान करता हूँ। मैं अपने साथियों के पास आया। और उन से कहा कि चलने की जल्दी करो। अल्लाह तआला ने अबू-राफ़ेअ को क़त्ल करा दिया। चुनांचे मैं नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और आप को उसकी इत्तिला दी। नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया कि अपना पाँव फैलाव मैंने पाँव फैलाया तो आप ने इस पर अपना हाथ मुबारक फेरा और पाँव इतना अच्छा हो गया जैसे कभी उसमें मुझको कोई तकलीफ़ हुई ही न थी।
Sahih Bukhari:4039
मैं उबैदुल्लाह-बिन-अदी-बिन-ख़ियार (रज़ि०) के साथ रवाना हुआ। जब हिम्स पहुँचे, तो मुझसे उबैदुल्लाह (रज़ि०) ने कहा, आप को वहशी (इब्ने- हर्ब हब्शी जिसने ग़ज़वाए-उहुद में हमज़ा (रज़ि०) को क़त्ल किया और हिन्दा बीवी अबू-सुफ़ियान ने उन की लाश का मुसला किया था) से तआरुफ़ है। हम चलके उन से हमज़ा (रज़ि०) की शहादत के बारे में मालूम करते हैं। मैंने कहा कि ठीक है ज़रूर चलो। वहशी हिम्स मैं मौजूद थे। चुनांचे हमने लोगों से उन के बारे में मालूम किया तो हमें बताया गया कि वो अपने मकान के साये में बैठे हुए हैं जैसे कोई बड़ा सा कुप्पा हो। उन्होंने बयान किया कि फिर हम उन के पास आए और थोड़ी देर उन के पास खड़े रहे। फिर सलाम किया तो उन्होंने सलाम का जवाब दिया। बयान किया कि उबैदुल्लाह ने अपने अमामा को जिस्म पर इस तरह लपेट रखा था कि वहशी सिर्फ़ उनकी आँखें और पाँव देख सकते थे। उबैदुल्लाह ने पूछा : ऐ वहशी! क्या तुमने मुझे पहचाना? रावी ने बयान किया कि फिर उसने उबैदुल्लाह को देखा और कहा कि नहीं अल्लाह की क़सम! अलबत्ता मैं इतना जानता हूँ कि अदी-बिन-ख़ियार ने एक औरत से निकाह किया था। उसे उम्मे-क़िताल-बिन्ते-अबी-ईस कहा जाता था फिर मक्का में उसके यहाँ एक बच्चा पैदा हुआ और मैं उसके लिये किसी दाया की तलाश के लिये गया था। फिर मैं इस बच्चे को उसकी (दूध-शरीक) माँ के पास ले गया और उसकी माँ भी साथ थी। शायद मैंने तुम्हारे पाँव देखे थे। बयान किया कि इस पर उबैदुल्लाह-बिन-अदी (रज़ि०) ने अपने चेहरे से कपड़ा हटा लिया और कहा हमें तुम हमज़ा (रज़ि०) की शहादत के वाक़िआत बता सकते हो? उन्होंने कहा कि हाँ बात ये हुई कि बद्र की लड़ाई में हमज़ा (रज़ि०) ने तुऐमा-बिन-अदी-बिन-ख़ियार को क़त्ल किया था। मेरे मालिक जुबैर-बिन-मुतइम ने मुझसे कहा कि अगर तुमने हमज़ा (रज़ि०) को मेरे चचा (तुऐमा) के बदले में क़त्ल कर दिया तो तुम आज़ाद हो जाओगे। उन्होंने बताया कि फिर जब क़ुरैश ऐनैन की जंग के लिये निकले। ऐनैन उहुद की एक पहाड़ी है और उसके और उहुद के बीच में एक वादी है। तो मैं भी उन के साथ जंग के इरादे से हो लिया। जब (दोनों फ़ौजें आमने सामने) लड़ने के लिये सफ़ आरा हो गईं तो (क़ुरैश की सफ़ में से) सिबाअ-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा निकला और उसने आवाज़ दी, है कोई लड़ने वाला? बयान किया कि (उसकी इस दावते- मुबाज़िरत पर) अमीर हमज़ा-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०) निकल कर आए और फ़रमाया ऐ सिबाअ ! ऐ उम्मे-अनमार के बेटे! जो औरतों के ख़तने किया करती थी तू अल्लाह और उसके रसूल से लड़ने आया है? बयान किया कि फिर हमज़ा (रज़ि०) ने इस पर हमला किया (और उसे क़त्ल कर दिया) अब वो वाक़िआ गुज़रे हुए दिन की तरह हो चुका था। वहशी ने बयान किया कि इधर मैं एक चट्टान के नीचे हमज़ा (रज़ि०) की ताक मैं था और ज्यों ही वो मुझसे क़रीब हुए मैंने उन पर अपना छोटा भाला फेंक कर मारा भाला उन की नाफ़ (नाभि) के नीचे जा कर लगा और उन की पीठ के पार हो गया। बयान किया कि यही उनकी शहादत का सबब बना फिर जब क़ुरैश वापस हुए तो मैं भी उन के साथ वापस आ गया और मक्का में मुक़ीम रहा। लेकिन जब मक्का भी इस्लामी सल्तनत के तहत आ गया, तो मैं ताइफ़ चला गया। ताइफ़ वालों ने भी रसूलुल्लाह (सल्ल०) की ख़िदमत में एक क़ासिद भेजा तो मुझसे वहाँ के लोगों ने कहा कि नबी किसी पर ज़्यादती नहीं करते (इसलिये तुम मुसलमान हो जाओ। इस्लाम क़बूल करने के बाद तुम्हारी पिछली तमाम ग़लतियाँ माफ़ हो जाएँगी) चुनांचे मैं भी उन के साथ रवाना हुआ। जब नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में पहुँचा और आप ने मुझे देखा तो पूछा किया तुम्हारा ही नाम वहशी है? मैंने कहा कि जी हाँ। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : क्या तुम ही ने हमज़ा को क़त्ल किया था? मैंने कहा जो नबी करीम (सल्ल०) को इस मामले में मालूम है वही सही है। आप (सल्ल०) ने इस पर फ़रमाया : क्या तुम ऐसा कर सकते हो कि अपनी सूरत मुझे कभी न दिखाओ? उन्होंने बयान किया कि फिर मैं वहाँ से निकल गया। फिर आप (सल्ल०) की जब वफ़ात हुई तो मुसैलमा झूटे ने बग़ावत किया। अब मैंने सोचा कि मुझे मुसैलमा झूटे के ख़िलाफ़ जंग में ज़रूर शिरकत करनी चाहिये। मुमकिन है। मैं उसे क़त्ल कर दूँ और इस तरह हमज़ा (रज़ि०) के क़त्ल का बदल हो सके। उन्होंने बयान किया कि फिर मैं भी उसके ख़िलाफ़ जंग के लिये मुसलमानों के साथ निकला। उस से जंग के वाक़िआत सब को मालूम हैं। बयान किया कि (मैदाने-जंग में) मैंने देखा कि एक शख़्स (मुसैलमा) एक दीवार की लम्बा से लगा खड़ा है। जैसे गेहूँए रंग का कोई ऊँट हो। सिर के बाल मुन्तशिर थे। बयान किया कि मैंने उस पर भी अपना छोटा भाला फेंक कर मारा। भाला उसके सीने पर लगा और कन्धों को पार कर गया। बयान किया कि इतने में एक सहाबी अंसारी झपटे और तलवार से उसकी खोपड़ी पर मारा। उन्होंने (अब्दुल-अज़ीज़ -बिन-अब्दुल्लाह) ने कहा, उन से अब्दुल्लाह-बिन-फ़ज़ल ने बयान किया कि फिर मुझे सुलैमान-बिन-यसार ने ख़बर दी और उन्होंने अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से सुना वो बयान कर रहे थे कि (मुसैलमा के क़त्ल के बाद) एक लड़की ने छत पर खड़ी हो कर ऐलान किया कि अमीरुल-मोमिनीन को एक काले ग़ुलाम (यानी वहशी) ने क़त्ल कर दिया।
Sahih Bukhari:4072
रसूलुल्लाह (सल्ल०) की ख़िदमत में एक साहिब ख़ुद (अबू-हुरैरा (रज़ि०)) हाज़िर हुए और कहा : या रसूलुल्लाह! मैं फ़ाक़ा से हूँ। नबी करीम (सल्ल०) ने उन्हें अपनी बीवियों के पास भेजा (कि वो आपकी दावत करें) लेकिन उनके पास कोई चीज़ खाने की नहीं थी। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि क्या कोई शख़्स ऐसा नहीं जो आज रात इस मेहमान की मेज़बानी करे? अल्लाह उस पर रहम करेगा। इस पर एक अंसारी सहाबी (अबू-तलहा) खड़े हुए और कहा : या रसूलुल्लाह! ये आज मेरे मेहमान हैं। फिर वो उन्हें अपने साथ घर ले गए और अपनी बीवी से कहा कि ये रसूलुल्लाह (सल्ल०) के मेहमान हैं कोई चीज़ इनसे बचा के न रखना। बीवी ने कहा, अल्लाह की क़सम मेरे पास उस वक़्त बच्चों के खाने के सिवा और कोई चीज़ नहीं है। अंसारी सहाबी ने कहा, अगर बच्चे खाना माँगें तो उन्हें सुला दो और आओ ये चराग़ भी बुझा दो, आज रात हम भूके ही रह लेंगे। बीवी ने ऐसा ही किया। फिर वो अंसारी सहाबी सुबह के वक़्त रसूलुल्लाह (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया कि "अल्लाह तआला ने फ़ुलाँ (अंसारी सहाबी) और उनकी बीवी (के अमल) को पसन्द फ़रमाया। या (आप (सल्ल०) ने ये फ़रमाया कि) अल्लाह तआला मुस्कुराया। फिर अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल की (ويؤثرون على أنفسهم ولو كان بهم خصاصة) यानी और अपने से मुक़द्दम रखते हैं चाहे ख़ुद फ़ाक़ा में ही हों।
Sahih Bukhari:4889
मैं हमेशा इस बात का आरज़ू मन्द रहता था कि उमर (रज़ि०) से नबी करीम (सल्ल०) की उन दो बीवियों के नाम पूछूँ जिनके बारे में अल्लाह तआला ने (सूरा तहरीम में) फ़रमाया है إن تتوبا إلى الله فقد صغت قلوبكما अगर तुम दोनों अल्लाह के सामने तौबा करो (तो बेहतर है) कि तुम्हारे दिल बिगड़ गए हैं। फिर मैं उनके साथ हज को गया। उमर (रज़ि०) रास्ते से ज़रूरत से फ़ारिग़ होने के लिये हटे तो मैं भी उन के साथ (पानी का एक ) छागल ले कर गया। फिर वो ज़रूरत से फ़ारिग़ होने के लिये चले गए। और जब वापस आए तो मैंने उन के दोनों हाथों पर छागल से पानी डाला। और उन्होंने वुज़ू किया फिर मैंने पूछा या अमीरुल-मोमिनीन ! नबी करीम (सल्ल०) की बीवियों मैं वो दो औरतें कौन-सी हैं जिनके मुताल्लिक़ अल्लाह तआला ने ये फ़रमाया कि ( إن تتوبا إلى الله ) ” तुम दोनों अल्लाह के सामने तौबा करो “ उन्होंने फ़रमाया इब्ने-अब्बास ! तुम पर ताज्जुब है। वो तो आयशा और हफ़सा (रज़ि०) हैं। फिर उमर (रज़ि०) मेरी तरफ़ मुतवज्जेह हो कर पूरा वाक़िआ बयान करने लगे। आप ने बतलाया कि बनू-उमैया-बिन-ज़ैद के क़बीले मैं जो मदीना से मिला हुआ था। मैं अपने एक अंसारी पड़ौसी के साथ रहता था। हम दोनों ने नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िरी की बारी मुक़र्रर कर रखी थी। एक दिन वो हाज़िर होते और एक दिन में। जब मैं हाज़िरी देता तो उस दिन की तमाम ख़बरें वग़ैरा लाता। (और उन को सुनाता) और जब वो हाज़िर होते तो वो भी इसी तरह करते, हम क़ुरैश के लोग (मक्का में) अपनी औरतों पर ग़ालिब रहा करते थे। लेकिन जब हम (हिजरत कर के) अंसार के यहाँ आए तो उन्हें देखा कि उन की औरतें ख़ुद उन पर ग़ालिब थीं। हमारी औरतों ने भी उन का तरीक़ा इख़्तियार करना शुरू कर दिया। मैंने एक दिन अपनी बीवी को डाँटा तो उन्होंने भी इसका जवाब दिया। उन का ये जवाब मुझे नागवार मालूम हुआ। लेकिन उन्होंने कहा कि मैं अगर जवाब देती हूँ तो तुम्हें नागवारी क्यों होती है। क़सम अल्लाह की ! नबी करीम (सल्ल०) की बीवियाँ तक आप को जवाब दे देती हैं और कुछ बीवियाँ तो आप से पूरे दिन और पूरी रात ख़फ़ा रहती हैं। इस बात से मैं बहुत घबराया और मैंने कहा कि उन में से जिसने भी ऐसा क्या होगा वो बहुत बड़े नुक़सान और घाटे मैं है। उसके बाद मैंने कपड़े पहने और हफ़सा (रज़ि०) (उमर (रज़ि०) की बेटी और उम्मुल-मोमिनीन ) के पास पहुँचा और कहा ऐ हफ़सा! क्या तुममें से कोई नबी करीम (सल्ल०) से पूरे दिन रात तक नाराज़ रहती हैं। उन्होंने कहा कि हाँ! मैं बोल उठा कि फिर तो वो तबाही और नुक़सान मैं रहीं। क्या तुम्हें इससे अमन है कि अल्लाह तआला अपने रसूल (सल्ल०) की नाराज़गी की वजह से (तुम पर) ग़ुस्सा हो जाए और तुम हलाक हो जाओ। रसूलुल्लाह (सल्ल०) से ज़्यादा चीज़ों की माँग हरगिज़ न किया करो न किसी मामले में आप (सल्ल०) की किसी बात का जवाब दो और न आप पर नाराज़गी का इज़हार होने दो अलबत्ता जिस चीज़ की तुम्हें ज़रूरत हो वो मुझसे माँग लिया करो। किसी ख़ुद फ़रेबी मैं मुब्तला न रहना तुम्हारी ये पड़ौसन तुम से ज़्यादा ख़ूबसूरत और पाकीज़ा हैं और रसूलुल्लाह (सल्ल०) को ज़्यादा प्यारी भी हैं। आपकी मुराद आयशा (रज़ि०) से थी। उमर (रज़ि०) ने कहा, उन दिनों ये चर्चा हो रही थी कि ग़स्सान के फ़ौजी हम से लड़ने के लिये घोड़ों को सुम लगा रहे हैं। मेरे पड़ौसी एक दिन अपनी बारी पर मदीना गए हुए थे। फिर इशा के वक़्त वापस लौटे। आ कर मेरा दरवाज़ा उन्होंने बड़ी ज़ोर से खटखटाया और कहा आप सो गए हैं? मैं बहुत घबराया हुआ बाहर आया उन्होंने कहा कि एक बहुत बड़ा हादिसा पेश आ गया है। मैंने पूछा : क्या हुआ? क्या ग़स्सान का लशकर आ गया? उन्होंने कहा, बल्कि उस से भी बड़ा और संगीन हादिसा, और वो ये कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी। ये सुन कर उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, हफ़सा तो तबाह और बर्बाद हो गई। मुझे तो पहले ही खटका था कि कहीं ऐसा न हो जाए (उमर (रज़ि०) ने कहा) फिर मैंने कपड़े पहने। सुबह की नमाज़ रसूलुल्लाह (सल्ल०) के साथ पढ़ी (नमाज़ पढ़ते ही) आप (सल्ल०) अपने बाला-ख़ाना मैं तशरीफ़ ले गए और वहीं तन्हाई इख़्तियार कर ली। मैं हफ़सा के यहाँ गया देखा; तो वो रो रही थीं मैंने कहा रो क्यों रही हो? क्या पहले ही मैंने तुम्हें नहीं कह दिया था? क्या रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने तुम सब को तलाक़ दे दी है? उन्होंने कहा कि मुझे कुछ मालूम नहीं। आप (सल्ल०) बाला-ख़ाना मैं तशरीफ़ रखते हैं। फिर मैं बाहर निकला और मेम्बर के पास आया। वहाँ कुछ लोग मौजूद थे और कुछ रो भी रहे थे। थोड़ी देर तो मैं उन के साथ बैठा रहा। लेकिन मुझ पर रंज का ग़लबा हुआ और मैं बाला-ख़ाने के पास पहुँचा जिसमें आप (सल्ल०) तशरीफ़ रखते थे। मैंने आप (सल्ल०) के एक स्याह ग़ुलाम से कहा (कि नबी करीम (सल्ल०) से कहो) कि उमर इजाज़त चाहता है। वो ग़ुलाम अन्दर गया और आप (सल्ल०) से बातचीत करके वापस आया और कहा कि मैंने आपकी बात पहुँचा दी थी लेकिन आप (सल्ल०) ख़ामोश हो गए चुनांचे मैं वापस आ कर उन्हीं लोगों के साथ बैठ गया जो मेम्बर के पास मौजूद थे। फिर मुझ पर रंज ग़ालिब आया और मैं दोबारा आया। लेकिन इस बार भी वही हुआ। फिर आ कर उन्हीं लोगों में बैठ गया जो मेम्बर के पास थे। लेकिन इस मर्तबा फिर मुझसे नहीं रहा गया और मैंने ग़ुलाम से आ कर कहा कि उमर के लिये इजाज़त चाहो। लेकिन बात ज्यों की तों रही। जब मैं वापस हो रहा था कि ग़ुलाम ने मुझको पुकारा और कहा कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने आप को इजाज़त दे दी है। मैं आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो आप (सल्ल०) खजूर की चटाई पर लेटे हुए थे। जिस पर कोई बिस्तर भी नहीं था। इसलिये चटाई के उभरे हुए हिस्सों का निशान आप (सल्ल०) के पहलू में पड़ गया था। आप (सल्ल०) उस वक़्त एक ऐसे तकिये पर टेक लगाए हुए थे। जिसके अन्दर खजूर की छाल भरी गई थी। मैंने आप (सल्ल०) को सलाम किया और खड़े ही खड़े कहा कि कि क्या आप ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है? आप (सल्ल०) ने निगाह मेरी तरफ़ करके फ़रमाया कि नहीं। मैंने आप के ग़म को हलका करने की कोशिश की और कहने लगा . . . . अब भी मैं खड़ा ही था . . . . या रसूलुल्लाह! आप जानते ही हैं कि हम क़ुरैश के लोग अपनी बीवियों पर ग़ालिब रहते थे लेकिन जब हम एक ऐसी क़ौम में आ गए जिनकी औरतें उन पर ग़ालिब थीं, फिर उमर (रज़ि०) ने तफ़सील ज़िक्र की। इस बात पर रसूलुल्लाह (सल्ल०) मुस्कुरा दिये। फिर मैंने कहा, मैं हफ़सा के यहाँ भी गया था और उससे कह आया था कि कहीं किसी ख़ुद फ़रेबी मैं न मुब्तला रहना। ये तुम्हारी पड़ौसन तुम से ज़्यादा ख़ूबसूरत और पाक हैं और रसूलुल्लाह (सल्ल०) को ज़्यादा महबूब भी हैं। आप आयशा (रज़ि०) की तरफ़ इशारा कर रहे थे। इस बात पर आप (सल्ल०) दोबारा मुस्कुरा दिये। जब मैंने आप (सल्ल०) को मुस्कुराते देखा तो (आप (सल्ल०) के पास) बैठ गया। और आप के घर में चारों तरफ़ देखने लगा। ख़ुदा की क़सम ! सिवाए तीन खालों के और कोई चीज़ वहाँ नज़र न आई। मैंने कहा : या रसूलुल्लाह! आप अल्लाह तआला से दुआ फ़रमाइये कि वो आपकी उम्मत को कुशादगी अता फ़रमा दे। फ़ारस और रोम के लोग तो पूरी कुशादगी के साथ रहते हैं। दुनिया उन्हें ख़ूब मिली हुई है। हालाँकि वो अल्लाह तआला की इबादत भी नहीं करते, आप (सल्ल०) टेक लगाए हुए थे। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, ऐ ख़त्ताब के बेटे! क्या तुम्हें अभी कुछ शुबह है? (तो दुनिया की दौलत को अच्छी समझता है) ये तो ऐसे लोग हैं कि उन के अच्छे काम (जो वो मामलात की हद तक करते हैं उन का बदला) इसी दुनिया में उन को दे दिया गया है। (ये सुन कर) मैं बोल उठा। या रसूलुल्लाह! मेरे लिये अल्लाह से मग़फ़िरत की दुआ कीजिये। तो नबी करीम (सल्ल०) ने (अपनी बीवियों से) इस बात पर अलाहिदगी इख़्तियार कर ली थी कि आयशा (रज़ि०) से हफ़सा (रज़ि०) ने छिपी हुई बात कह दी थी। नबी करीम (सल्ल०) ने इस बहुत ज़्यादा नाराज़गी की वजह से जो आप (सल्ल०) को हुई थी। फ़रमाया था कि मैं अब उन के पास एक महीने तक नहीं जाऊँगा। और यही मौक़ा है जिस पर अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को आगाह किया था। फिर जब उन्तीस दिन गुज़र गए तो आप आयशा (रज़ि०) के घर तशरीफ़ ले गए और उन्ही के यहाँ से आप (सल्ल०) ने शुरू की। आयशा (रज़ि०) ने कहा कि आप ने तो अहद किया था कि हमारे यहाँ एक महीने तक नहीं तशरीफ़ लाएँगे। और आज अभी उन्तीसवीं की सुबह है। मैं तो दिन गिन रही थी। नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया, ये महीना उन्तीस दिन का है और वो महीना उन्तीस ही दिन का था। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर वो आयत नाज़िल हुई। जिसमें (नबी की बीवियों को) इख़्तियार दिया गया था। उसकी भी शुरूआत आप (सल्ल०) ने मुझ ही से की और फ़रमाया कि मैं तुम से एक बात कहता हूँ और ये ज़रूरी नहीं कि जवाब फ़ौरन दो बल्कि अपने माँ-बाप से भी मशवरा कर लो। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि आप को ये मालूम था कि मेरे माँ-बाप कभी आप से जुदाई का मशवरा नहीं दे सकते। फिर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “अल्लाह तआला ने फ़रमाया है कि "ऐ नबी ! अपनी बीवियों से कह दो" अल्लाह तआला के क़ौल عظیما तक। मैंने कहा अब इस मामले में भी मैं अपने माँ-बाप से मशवरा करने जाऊँगी! इसमें तो किसी शुबह की गुंजाइश ही नहीं है कि मैं अल्लाह और उसके रसूल और दारे-आख़िरत को पसन्द करती हों। उसके बाद आप (सल्ल०) ने अपनी दूसरी बीवियों को भी इख़्तियार दिया और उन्होंने भी वही जवाब दिया जो आयशा (रज़ि०) ने दिया था।
Sahih Bukhari:2468
वो क़िस्सा बयान किया जब तोहमत लगाने वालों ने उन पर तोहमत लगाई लेकिन अल्लाह तआला ने ख़ुद उन्हें उस से बरी क़रार दिया। ज़ोहरी ने बयान किया (कि ज़ोहरी से बयान करने वाले जिन का सनद मैं ज़ोहरी के बाद ज़िक्र है) तमाम रावियों ने आयशा (रज़ि०) की इस हदीस का एक-एक हिस्सा बयान किया था कुछ रावियों को कुछ दूसरे रावियों से हदीस ज़्यादा याद थी और वो बयान भी ज़्यादा बेहतर तरीक़े पर कर सकते थे। बहरहाल उन सब रावियों से मैंने ये हदीस पूरी तरह महफ़ूज़ कर ली थी जिसे वो आयशा (रज़ि०) से बयान करते थे। उन रावियों मैं हर एक की रिवायत से दूसरे रावी की तस्दीक़ होती थी। उन का बयान था कि आयशा (रज़ि०) ने कहा, रसूलुल्लाह (सल्ल०) जब सफ़र में जाने का इरादा करते तो अपनी बीवियों के बीच क़ुरआ डालते। जिसके नाम का क़ुरआ निकलता सफ़र में वही आप (सल्ल०) के साथ जाती। चुनांचे एक ग़ज़वा के मौक़े पर जिसमें आप (सल्ल०) भी शिरकत कर रहे थे। आप (सल्ल०) ने क़ुरआ डलवाया और मेरा नाम निकला। अब मैं आप (सल्ल०) के साथ थी। ये वाक़िआ परदे की आयत के नाज़िल होने के बाद का है। ख़ैर मैं एक होदज मैं सवार रहती थी उसी मैं बैठे-बैठे मुझको उतारा जाता था। इस तरह हम चलते रहे। फिर जब रसूलुल्लाह (सल्ल०) जिहाद से फ़ारिग़ हो कर वापस हुए और हम मदीना के क़रीब पहुँच गए तो एक रात आप ने कूच का हुक्म दिया। मैं ये हुक्म सुनते ही उठी और लशकर से आगे बढ़ गई। जब ज़रूरत से फ़ारिग़ हुई तो कजावे के पास आ गई। वहाँ पहुँच कर जो मैंने अपना सीना टटोला तो मेरा अज़फ़ार के काले नगीनों का हार मौजूद नहीं था। इसलिये मैं वहाँ दोबारा पहुँची (जहाँ ज़रूरत के लिये गई थी।) और मैंने हार को तलाश किया। इस तलाश में देर हो गई। उस वक़्त मैं वो साथी जो मुझे सवार कराते थे आए और मेरा होदज उठा कर मेरे ऊँट पर रख दिया। वो यही समझे कि मैं उसमें बैठी हों। उन दिनों औरतें हलकी फुलकी होती थीं, भारी भर कम नहीं। गोश्त उन मैं ज़्यादा नहीं रहता था क्योंकि बहुत मामूली ग़िज़ा खाती थीं। इसलिये उन लोगों ने जब होदज को उठाया तो उन्हें उसके बोझ मैं कोई फ़र्क़ मालूम नहीं हुआ। मैं वैसे भी नई उम्र का की लड़की थी। चुनांचे साथियों ने ऊँट को हाँक दिया और ख़ुद भी उसके साथ चलने लगे। जब लशकर रवाना हो चुका तो मुझे अपना हार मिला और मैं पड़ाव की जगह आई। लेकिन वहाँ कोई आदमी मौजूद न था। इसलिये मैं उस जगह गई जहाँ पहले मेरा क़ियाम था। मेरा ख़याल था कि जब वो लोग मुझे नहीं पाएँगे तो यहीं लौट के आएँगे। (अपनी जगह पहुँच कर) मैं इस तरह ही बैठी हुई थी कि मेरी आँख लग गई और मैं सो गई। सफ़वान-बिन-मुअत्तल (रज़ि०) जो पहले सुलमी थे फिर ज़कवानी हो गए लशकर के पीछे थे (जो लश्करियों की गिरी पड़ी चीज़ों को उठा कर उन्हें उसके मालिक तक पहुँचाने की ख़िदमत के लिये मुक़र्रर थे) वो मेरी तरफ़ से गुज़रे तो एक सोए हुए इन्सान का साया नज़र पड़ा, इसलिये और क़रीब पहुँचे। पर्दे के हुक्म से पहले वो मुझे देख चुके थे। उनके (इन्ना लिल्लाह) पढ़ने से मैं बेदार हो गई। आख़िर उन्होंने अपना ऊँट बिठाया और उसके अगले पाँव को मोड़ दिया (ताकि बिला किसी मदद के मैं ख़ुद सवार हो सकूँ) चुनांचे मैं सवार हो गई, अब वो ऊँट पर मुझे बिठाए हुए ख़ुद उसके आगे-आगे चलने लगे। इसी तरह हम जब लशकर के क़रीब पहुँचे, तो लोग भरी दोपहर मैं आराम के लिये पड़ाव डाल चुके थे। (इतनी ही बात थी जिसकी बुनियाद पर) जिसे हलाक होना था वो हलाक हुआ और तोहमत के मामले में पेश-पेश अब्दुल्लाह-बिन-उबई इब्ने-सलूल (मुनाफ़िक़) था। फिर हम मदीना में आ गए और मैं एक महीने तक बीमार रही। तोहमत लगाने वालों की बातों का ख़ूब चर्चा हो रहा था। अपनी इस बीमारी के दौरान मुझे इससे भी बड़ा शुबह होता था कि उन दिनों रसूलुल्लाह (सल्ल०) का वो प्यार और मुहब्बत भी मैं नहीं देखती थी जिनको अपनी पिछली बीमारियों मैं मैं ख़ुद देख चुकी थी। इसलिये आप (सल्ल०) घर में जब आते तो सलाम करते और सिर्फ़ इतना दरयाफ़्त फ़रमा लेते मिज़ाज कैसा है? जो बातें तोहमत लगाने वाले फैला रहे थे। उन में से कोई बात मुझे मालूम नहीं थी। जब मेरी सेहत कुछ ठीक हुई तो (एक रात) मैं उम्मे-मिस्तह के साथ मनासेअ की तरफ़ गई। ये हमारी ज़रूरत की जगह थी हम यहाँ सिर्फ़ रात ही में आते थे। ये उस ज़माने की बात है जब अभी हमारे घरों के क़रीब बैतुल-ख़ला (टॉयलेट) नहीं बने थे। मैदान में जाने के सिलसिले में (ज़रूरत के लिये) हमारा रवैया पुरानी अरब की तरह था मैं और उम्मे- मिस्तह -बिन्ते- अबी- रहम चल रही थी कि वो अपनी चादर मैं उलझ कर गिर पड़ीं और उन की ज़बान से निकल गया मिस्तह बर्बाद हो। मैंने कहा बुरी बात आप ने अपनी ज़बान से निकाली, ऐसे शख़्स को बुरा कह रही हैं आप जो बद्र की लड़ाई में शरीक था। वो कहने लगें ऐ भोली-भाली! जो कुछ उन सबने कहा, है वो आप ने नहीं सुना? फिर उन्होंने तोहमत लगाने वालों की सारी बातें सुनाईं और उन बातों को सुन कर मेरी बीमारी और बढ़ गई। मैं जब अपने घर वापस हुई तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) अन्दर तशरीफ़ लाए और पूछा मिज़ाज कैसा है? मैंने कहा कि आप मुझे माँ-बाप के यहाँ जाने की इजाज़त दीजिये। उस वक़्त मेरा इरादा ये था कि उन से इस ख़बर की तहक़ीक़ करूँगी। आप (सल्ल०) ने मुझे जाने की इजाज़त दे दी और मैं जब घर आई तो मैंने अपनी माँ (उम्मे-रूमान) से उन बातों के मुताल्लिक़ पूछा जो लोगों में फैली हुई थीं। उन्होंने फ़रमाया बेटी! इस तरह की बातों की परवाह न कर अल्लाह की क़सम ! शायद ही ऐसा हो कि तुझ जैसी हसीन और ख़ूबसूरत औरत किसी मर्द के घर में हो और उसकी सौकनें भी हों फिर भी इस तरह की बातें न फैलाई जाया करें। मैंने कहा सुब्हान-अल्लाह! (सोकनों का क्या ज़िक्र) वो तो दूसरे लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं। उन्होंने बयान किया कि वो रात मैंने वहीं गुज़ारी सुबह तक मेरे आँसू नहीं थमते थे और न नींद आई। सुबह हुई तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अपनी बीवी को जुदा करने के सिलसिले में मशवरा करने के लिये अली इब्ने-अबी-तालिब और उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) को बुलवाया। क्योंकि वह्य (उस सिलसिले में) अब तक नहीं आई थी। उसामा (रज़ि०) को आपकी बीवियों से आपकी मुहब्बत का इल्म था। इसलिये उसी के मुताबिक़ मशवरा दिया और कहा आपकी बीवी या रसूलुल्लाह! अल्लाह की क़सम हम उन के मुताल्लिक़ ख़ैर के सिवा और कुछ नहीं जानते। अली (रज़ि०) ने कहा, या रसूलुल्लाह! अल्लाह तआला ने आप पर कोई तंगी नहीं की है औरतें उन के सिवा भी बहुत हैं लौंडी से भी आप दरयाफ़्त फ़रमा लीजिये वो सच्ची बात बयान करेंगी। चुनांचे रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने बरीरा (रज़ि०) को बुलाया (जो आयशा (रज़ि०) की ख़ास ख़ादिमा थी) और पूछा बरीरा! किया तुमने आयशा मैं कोई ऐसी चीज़ देखी है जिससे तुम्हें शुबह हुआ हो। बरीरा (रज़ि०) ने कहा, नहीं उस ज़ात की क़सम जिसने आप को हक़ के साथ भेजा है। मैंने उन मैं कोई ऐसी चीज़ नहीं देखी जिसका ऐब मैं उन पर लगा सकूँ। इतनी बात ज़रूर है कि वो नई उम्र का की लड़की हैं। आटा गूँध कर सो जाती हैं फिर बकरी आती है और खा लेती है। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने उसी दिन (मेम्बर पर) खड़े हो कर अब्दुल्लाह-बिन-उबई इब्ने-सलूल के बारे में मदद चाही। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, एक ऐसे शख़्स के बारे में मेरी कौन मदद करेगा जिसकी तकलीफ़ और तकलीफ़ देही का सिलसिला अब मेरी बीवी के मामले तक पहुँच चुका है। अल्लाह की क़सम अपनी बीवी के बारे में ख़ैर के सिवा और कोई चीज़ मुझे मालूम नहीं। फिर नाम भी इस मामले में उन्होंने एक ऐसे आदमी का लिया है जिसके मुताल्लिक़ भी मैं ख़ैर के सिवा और कुछ नहीं जानता। ख़ुद मेरे घर में जब भी वो आए हैं तो मेरे साथ ही आए। (ये सुन कर) सअद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) खड़े हुए और कहा या रसूलुल्लाह! अल्लाह की क़सम मैं आपकी मदद करूँगा। अगर वो शख़्स (जिसके मुताल्लिक़ तोहमत लगाने का आप ने इरशाद फ़रमाया है) औस क़बीले से होगा तो हम उसकी गर्दन मार देंगे (क्योंकि सअद (रज़ि०) ख़ुद क़बीले औस के सरदार थे) और अगर वो ख़ज़रज का आदमी हुआ तो आप हमें हुक्म दें जो भी आपका हुक्म होगा हम तामील करेंगे। उसके बाद सअद-बिन-उबादा (रज़ि०) खड़े हुए जो क़बीला ख़ज़रज के सरदार थे। हालाँकि इससे पहले अब तक बहुत सालेह थे। लेकिन उस वक़्त (सअद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) की बात पर) हमीयत से ग़ुस्सा हो गए थे और (सअद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) से) कहने लगे रब के दवाम और बक़ा की क़सम ! तुम झूट बोलते हो न तुम उसे क़त्ल कर सकते हो और न तुम्हारे अन्दर उसकी ताक़त है। फिर उसैद-बिन-हुज़ैर (रज़ि०) खड़े हुए ( सअद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) के चचेरा भाई ) और कहा अल्लाह की क़सम ! हम उसे क़त्ल कर देंगे (अगर रसूलुल्लाह (सल्ल०) का हुक्म हुआ) कोई शुबह नहीं रह जाता कि तुम भी मुनाफ़िक़ हो। क्योंकि मुनाफ़िक़ों की तरफ़दारी कर रहे हो। इस पर औस और ख़ज़रज दोनों क़बीलों के लोग उठ खड़े हुए और आगे बढ़ने ही वाले थे कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) जो अभी तक मेम्बर पर तशरीफ़ रखते थे। मेम्बर से उतरे और लोगों को नर्म किया। अब सब लोग ख़ामोश हो गए और आप भी ख़ामोश हो गए। मैं उस दिन भी रोती रही। न मेरे आँसू थमते थे और न नींद आती थी फिर मेरे पास मेरे माँ-बाप आए। मैं एक रात और एक दिन से बराबर रोती रही थी। ऐसा मालूम होता था कि रोते-रोते मेरे दिल के टुकड़े हो जाएँगे। उन्होंने बयान किया कि माँ-बाप मेरे पास बैठे हुए थे कि एक अंसारी औरत ने इजाज़त चाही और मैंने उन्हें अन्दर आने की इजाज़त दे दी और वो मेरे साथ बैठ कर रोने लगीं। हम सब इसी तरह थे कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) अन्दर तशरीफ़ लाए और बैठ गए। जिस दिन से मेरे मुताल्लिक़ वो बातें कही जा रही थीं जो कभी नहीं कही गईं थीं। उस दिन से मेरे पास आप नहीं बैठे थे। आप (सल्ल०) एक महीने तक इन्तिज़ार करते रहे थे। लेकिन मेरे मामले में कोई वह्य आप (सल्ल०) पर नाज़िल नहीं हुई थी। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर आप (सल्ल०) ने तशह-हुद पढ़ी और फ़रमाया आयशा! तुम्हारे मुताल्लिक़ मुझे ये ये बातें मालूम हुईं। अगर तुम इस मामले में बरी हो तो अल्लाह तआला भी तुम्हारी बरअत ज़ाहिर कर देगा और अगर तुमने गुनाह किया है तो अल्लाह तआला से मग़फ़िरत चाहो और उसके हुज़ूर तौबा करो कि बन्दा जब अपने गुनाह का इक़रार करके तौबा करता है तो अल्लाह तआला भी उसकी तौबा क़बूल करता है। जूँ ही आप (सल्ल०) ने अपनी बातचीत ख़त्म की मेरे आँसू इस तरह ख़ुश्क हो गए कि अब एक बूँद भी महसूस नहीं होता था। मैंने अपने बाप से कहा कि आप रसूलुल्लाह (सल्ल०) से मेरे मुताल्लिक़ कहिये। लेकिन उन्होंने कहा, क़सम अल्लाह की ! मुझे नहीं मालूम कि आप (सल्ल०) से मुझे क्या कहना चाहिये। मैंने अपनी माँ से कहा कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने जो कुछ फ़रमाया उसके मुताल्लिक़ आप (सल्ल०) से आप ही कुछ कहिये उन्होंने भी यही फ़रमा दिया कि क़सम अल्लाह की ! मुझे मालूम नहीं कि मुझे रसूलुल्लाह (सल्ल०) से क्या कहना चाहिये। उन्होंने बयान किया कि मैं नई उम्र का की लड़की थी। क़ुरआन मुझे ज़्यादा याद नहीं था। मैंने कहा अल्लाह गवाह है मुझे मालूम हुआ कि आप लोगों ने भी लोगों की अफ़वाह सुनी हैं और आप लोगों के दिलों में वो बात बैठ गई है और उसकी तस्दीक़ भी आप लोग कर चुके हैं इसलिये अब अगर मैं कहूँ कि मैं (उस बोहतान से) बरी हूँ और अल्लाह ख़ूब जानता है कि मैं वाक़ई उस से बरी हूँ तो आप लोग मेरी इस मामले में तस्दीक़ नहीं करेंगे। लेकिन अगर मैं ( गुनाह को) अपने ज़िम्मे ले लूँ हालाँकि अल्लाह तआला ख़ूब जानता है कि मैं उस से बरी हूँ तो आप लोग मेरी बात की तस्दीक़ कर देंगे। क़सम अल्लाह की ! मैं उस वक़्त अपनी और आप लोगों की कोई मिसाल यूसुफ़ (अलैहि०) के वालिद (याक़ूब (अलैहि०)) के सिवा नहीं पाती कि उन्होंने भी फ़रमाया था (فصبر جميل والله المستعان على ما تصفون) सब्र ही बेहतर है और जो कुछ तुम कहते हो इस मामले में मेरा मददगार अल्लाह तआला है।उसके बाद बिस्तर पर मैंने अपना रुख़ दूसरी तरफ़ कर लिया। और मुझे उम्मीद थी कि ख़ुद अल्लाह तआला मेरी बरअत करेगा। लेकिन मेरा ये ख़याल कभी न था कि मेरे मुताल्लिक़ वह्य नाज़िल होगी। मेरी अपनी नज़र में हैसियत उस से बहुत मामूली थी कि क़ुरआन मजीद में मेरे मुताल्लिक़ कोई आयत नाज़िल हो। हाँ मुझे इतनी उम्मीद ज़रूर थी कि आप (सल्ल०) कोई ख़्वाब देखेंगे जिसमें अल्लाह तआला मुझे बुरी फ़रमा देगा। अल्लाह गवाह है कि अभी आप (सल्ल०) अपनी जगह से उठे भी न थे और न उस वक़्त घर में मौजूद कोई बाहर निकला था कि आप (सल्ल०) पर वह्य नाज़िल होने लगी और ( शिद्दत वह्य से) आप (सल्ल०) जिस तरह पसीने पसीने हो जाया करते थे वही कैफ़ियत आप (सल्ल०) की अब भी थी। पसीने के क़तरे मोतियों की तरह आप (सल्ल०) के जिस्म मुबारक से गिरने लगे। हालाँकि सर्दी का मौसम था। जब वह्य का सिलसिला ख़त्म हुआ तो आप (सल्ल०) हँस रहे थे। और सबसे पहला कलिमा जो आपकी ज़बान मुबारक से निकला वो ये था ऐ आयशा! अल्लाह की हम्द बयान कर कि उसने तुम्हें बरी क़रार दे दिया है। मेरी माँ ने कहा, बेटी जा रसूलुल्लाह (सल्ल०) के सामने जा कर खड़ी हो जा। मैंने कहा नहीं क़सम अल्लाह की मैं आपके पास जा कर खड़ी न होंगी और मैं तो सिर्फ़ अल्लाह की हम्द और तारीफ़ करूँगी। अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल फ़रमाई थी (إن الذين جاءوا بالإفك عصبة منكم) "जिन लोगों ने तोहमत तराशी की है। वो तुम ही में से कुछ लोग हैं।" जब अल्लाह तआला ने मेरी बरअत मैं ये आयत नाज़िल फ़रमाई तो अबू-बक्र (रज़ि०) ने जो मिस्तह-बिन-असासा (रज़ि०) के ख़र्चे क़राबत की वजह से ख़ुद ही उठाते थे कहा कि क़सम अल्लाह की अब मैं मिस्तह पर कभी कोई चीज़ ख़र्च नहीं करूँगा कि वो भी आयशा पर तोहमत लगाने में शरीक था। इस पर अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल की ولا يأتل أولو الفضل منكم والسعة إلى قوله غفور رحيم तुममें से साहिब फ़ज़ल और साहिब माल लोग क़सम न खाएँ। अल्लाह तआला के इरशाद.....غفور رحیم तक। अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा, अल्लाह की क़सम ! बस मेरी यही ख़ाहिश है कि अल्लाह तआला मेरी मग़फ़िरत कर दे। चुनांचे मिस्तह (रज़ि०) को जो आप पहले दिया करते थे वो फिर देने लगे। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने ज़ैनब-बिन्ते-जहश ( (रज़ि०) उम्मुल-मोमिनीन ) से भी मेरे मुताल्लिक़ पूछा था। आप (सल्ल०) ने पूछा कि ज़ैनब ! तुम (आयशा (रज़ि०) के मुताल्लिक़ ) किया जानती हो? और किया देखा है? उन्होंने जवाब दिया मैं अपने कान और अपनी आँख की हिफ़ाज़त करती हूँ (कि जो चीज़ मैंने देखी हो या न सुनी हो वो आप से बयान करने लगूं) अल्लाह गवाह है कि मैंने उन मैं ख़ैर के सिवा और कुछ नहीं देखा। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि यही मेरी बराबर की थीं लेकिन अल्लाह तआला ने उन्हें तक़वा की वजह से बचा लिया। अबू-रबीअ ने बयान किया कि हम से फ़ुलैह ने बयान किया उन से हिशाम-बिन-उरवा ने उन से उरवा ने उन से आयशा और अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) ने उसी हदीस की तरह। अबू-रबीअ ने (दूसरी सनद में) बयान किया कि हम से फ़ुलैह ने बयान किया उन से रबीआ-बिन-अबी- अब्दुर-रहमान और यहया-बिन-सईद ने और उन से क़ासिम-बिन-मुहम्मद-बिन-अबी-बक्र ने उसी हदीस की तरह।
Sahih Bukhari:2661
मुझे उमर-बिन-उसैद-बिन-जारिया सक़फ़ी ने ख़बर दी जो बनी-ज़ोहरा के मित्र थे और अबू-हुरैरा (रज़ि०) के शागिर्दों मैं शामिल थे कि अबू-हुरैरा (रज़ि०) ने कहा कि नबी करीम (सल्ल०) ने दस जासूस भेजे और उन का अमीर आसिम-बिन-साबित अंसारी (रज़ि०) को बनाया जो आसिम-बिन-उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) के नाना होते हैं। जब ये लोग असफ़ान और मक्का के बीच मक़ाम हदा पर पहुँचे, तो बनी हुज़ैल के एक क़बीला को उन के आने की इत्तिला मिल गई। इस क़बीले का नाम बनी लह्यान था। उसके सौ तीरन्दाज़ उन सहाबा (रज़ि०) की तलाश में निकले और उन के निशान क़दम के अन्दाज़े पर चलने लगे। आख़िर उस जगह पहुँच गए जहाँ बैठ कर उन सहाबा (रज़ि०) ने खजूर खाई थी। उन्होंने कहा कि ये मदीना (मदीना) की खजूर (की गुठलियाँ) हैं। अब फिर वो उनके निशाने-क़दम के अन्दाज़े पर चलने लगे। जब आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) और उन के साथियों ने उन के आने को मालूम कर लिया। तो एक (महफ़ूज़) जगह पनाह ली। क़बीला वालों ने उन्हें अपने घेरे में ले लिया और कहा कि नीचे उतर आओ और हमारी पनाह ख़ुद क़बूल कर लो तो तुम से हम वादा करते हैं कि तुम्हारे किसी आदमी को भी हम क़त्ल नहीं करेंगे। आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) ने कहा : मुसलमानो! मैं किसी काफ़िर की पनाह में नहीं उतर सकता। फिर उन्होंने दुआ की ऐ अल्लाह! हमारे हालात की ख़बर अपने नबी को कर दे आख़िर क़बीला वालों ने मुसलमानों पर तीर-अन्दाज़ी की और आसिम (रज़ि०) को शहीद कर दिया। बाद में उनके वादे पर तीन सहाबा उतर आए। ये हज़रात ख़ुबैब ज़ैद-बिन-दसना और एक तीसरे सहाबी थे। क़बीला वालों ने जब उन तीनों सहाबियों पर क़ाबू पा लिया तो उन की कमान से ताँत निकाल कर उसी से उन्हें बाँध दिया। तीसरे सहाबी ने कहा, ये तुम्हारी पहली दग़ा बाज़ी है। मैं तुम्हारे साथ कभी नहीं जा सकता। मेरे लिये तो उन्हें की ज़िन्दगी नमूना है। आपका इशारा उन सहाबा की तरफ़ था जो अभी शहीद किये जा चुके थे। काफ़िरों ने उन्हें घसीटना शुरू किया और ज़बरदस्ती की लेकिन वो किसी तरह उन के साथ जाने पर तैयार न हुए। (तो उन्होंने उन को भी शहीद कर दिया) और ख़ुबैब (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-दसना (रज़ि०) को साथ ले गए और (मक्का मैं ले जा कर) उन्हें बेच दिया। ये बद्र की लड़ाई के बाद का वाक़िआ है। हारिस-बिन-आमिर-बिन- नौफ़ल के लड़कों ने ख़ुबैब (रज़ि०) को ख़रीद लिया। उन्होंने ही ने बद्र की लड़ाई में हारिस-बिन-आमिर को क़त्ल किया था। कुछ दिनों तक तो वो उन के यहाँ क़ैद रहे आख़िर उन्होंने उन के क़त्ल का इरादा किया। उन्ही दिनों हारिस की किसी लड़की से उन्होंने नाफ़ (नाभि) के नीचे के बाल साफ़ करने के लिये उस्तरा माँगा। उसने दे दिया। उस वक़्त उसका एक छोटा सा बच्चा उन के पास (खेलता हुआ) उस औरत की बे-ख़बरी मैं चला गया। फिर जब वो उन की तरफ़ आई तो देखा कि बच्चा उन की जाँघ पर बैठा हुआ है। और उस्तरा उन के हाथ में है उन्होंने बयान किया कि ये देखते ही वो इस दर्जा घबरा गई कि ख़ुबैब (रज़ि०) ने उसकी घबराहट को देख लिया और बोले क्या तुम्हें इसका ख़ौफ़ है कि मैं इस बच्चे को क़त्ल कर दूँगा? यक़ीन रखो कि ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकता। उस औरत ने बयान किया कि अल्लाह की क़सम ! मैंने कभी कोई क़ैदी ख़ुबैब (रज़ि०) से बेहतर नहीं देखा। अल्लाह की क़सम ! मैंने एक दिन अंगूर के एक गुच्छे से उन्हें अंगूर खाते देखा जो उन के हाथ में था हालाँकि वो लोहे की ज़ंजीरों मैं जकड़े हुए थे। और मक्का में उस वक़्त कोई फल भी नहीं था। वो बयान करती थीं कि वो तो अल्लाह की तरफ़ से भेजी हुई रोज़ी थी जो उसने ख़ुबैब (रज़ि०) के लिये भेजी थी। फिर बनू हारिसा उन्हें क़त्ल करने के लिये हरम से बाहर ले जाने लगे तो ख़ुबैब (रज़ि०) ने उन से कहा कि मुझे दो रकअत नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दो। उन्होंने उसकी इजाज़त दी तो उन्होंने दो रकअत नमाज़ पढ़ी और फ़रमाया : अल्लाह की क़सम ! अगर तुम्हें ये ख़याल न होने लगता कि मुझे घबराहट है (मौत से) तो और ज़्यादा देर तक पढ़ता। फिर उन्होंने दुआ की कि ऐ अल्लाह! उन में से हर एक को अलग अलग हलाक कर और एक को भी बाक़ी न छोड़ और ये अशआर पढ़े जब मैं इस्लाम पर क़त्ल किया जा रहा हूँ तो मुझे कोई परवाह नहीं कि अल्लाह की राह में मुझे किस पहलू पर पछाड़ा जाएगा और ये तो सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा हासिल करने के लिये है। अगर वो चाहेगा तो मेरे जिस्म के एक-एक जोड़ पर सवाब अता फ़रमाएगा।उसके बाद अबू-सरूआ अक़बा-बिन-हारिस उन की तरफ़ बढ़ा और उसने उन्हें शहीद कर दिया। ख़ुबैब (रज़ि०) ने अपने नेक अमल से हर उस मुसलमान के लिये जिसे क़ैद करके क़त्ल किया जाए (क़त्ल से पहले दो रकअत) नमाज़ की सुन्नत क़ायम की है। इधर जिस दिन उन सहाबा (रज़ि०) पर मुसीबत आई थी आप (सल्ल०) ने अपने सहाबा (रज़ि०) को उसी दिन उसकी ख़बर दे दी थी। क़ुरैश के कुछ लोगों को जब मालूम हुआ कि आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) शहीद कर दिये गए हैं तो उन के पास अपने आदमी भेजे ताकि उन के जिस्म का कोई ऐसा हिस्सा लाएँ जिससे उन्हें पहचाना जा सके। क्योंकि उन्होंने भी (बद्र में) उन के एक सरदार (अक़बा-बिन-अबी-मुऐत) को क़त्ल किया था लेकिन अल्लाह तआला ने उनकी लाश पर बादल की तरह भिड़ों की एक फ़ौज भेज दी और उन्होंने आपकी लाश को क़ुरैश के काफ़िरों के उन आदमियों से बचा लिया और वो उन के जिस्म का कोई हिस्सा भी न काट सके और कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) ने बयान किया कि मेरे सामने लोगों ने मुरारह-बिन-रबीअ उमरी (रज़ि०) और हिलाल-बिन-उमैया जान-पहचान (रज़ि०) का ज़िक्र किया। (जो ग़ज़वाए-तबूक में नहीं जा सके थे) कि वो सालेह सहाबियों में से हैं और बद्र की लड़ाई में शरीक हुए थे।
Sahih Bukhari:3989
जब (11 हिजरी) में यमामा की लड़ाई में (जो मुसैलमा झूटे से हुई थी।) बहुत से सहाबा मारे गए तो अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने मुझे बुलाया उन के पास उमर (रज़ि०) भी मौजूद थे। उन्होंने मुझसे कहा उमर (रज़ि०) मेरे पास आए और कहा कि जंगे-यमामा में बहुत ज़्यादा मुसलमान शहीद हो गए हैं और मुझे ख़तरा है कि ( काफ़िरों के साथ) लड़ाइयों में यूँ ही क़ुरआन के आलिम और क़ारी शहीद होंगे और इस तरह बहुत-सा क़ुरआन बर्बाद हो जाएगा। अब तो एक ही सूरत है कि आप क़ुरआन को एक जगह जमा करा दें और मेरी राय तो ये है कि आप ज़रूर क़ुरआन को जमा करा दें। अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा कि इस पर मैंने उमर (रज़ि०) से कहा ऐसा काम मैं किस तरह कर सकता हूँ जो ख़ुद रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने नहीं किया था। उमर (रज़ि०) ने कहा, अल्लाह की क़सम! ये तो सिर्फ़ एक नेक काम है। उसके बाद उमर (रज़ि०) मुझसे इस मामला पर बात करते रहे और आख़िर में अल्लाह तआला ने इस ख़िदमत के लिये मेरा भी सीना खोल दिया और मेरी भी राय वही हो गई जो उमर (रज़ि०) की थी। ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) ने बयान किया कि उमर (रज़ि०) वहीं ख़ामोश बैठे हुए थे। फिर अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा : तुम जवान और समझदार हो हमें तुम पर किसी क़िस्म का शुबह भी नहीं और तुम नबी करीम (सल्ल०) की वह्य लिखा भी करते थे इसलिये तुम ही क़ुरआन मजीद को जगह-जगह से तलाश करके उसे जमा कर दो। अल्लाह की क़सम! कि अगर अबू-बक्र (रज़ि०) मुझसे कोई पहाड़ उठा के ले जाने के लिये कहते तो ये मेरे लिये इतना भारी नहीं था जितना क़ुरआन की तरतीब का हुक्म। मैंने कहा आप लोग एक ऐसे काम के करने पर किस तरह आमादा हो गए जिसे रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने नहीं किया था तो अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा : अल्लाह की क़सम ! ये एक नेक काम है। फिर मैं उन से इस मसले पर बातचीत करता रहा यहाँ तक कि अल्लाह तआला ने इस ख़िदमत के लिये मेरा भी सीना खोल दिया। जिस तरह अबू-बक्र और उमर (रज़ि०) का सीना खोला था। चुनांचे मैं उठा और मैंने खाल हड्डी और खजूर की शाख़ों से (जिन पर क़ुरआन मजीद लिखा हुआ था इस दौर के रिवाज के मुताबिक़) क़ुरआन मजीद को जमा करना शुरू कर दिया और लोगों के (जो क़ुरआन के हाफ़िज़ थे) हाफ़िज़े से भी मदद ली और सूरा तौबा की दो आयतें ख़ुज़ैमा अंसारी (रज़ि०) के पास मुझे मिलीं। उन के अलावा किसी के पास मुझे नहीं मिली थी। (वो आयतें ये थीं) لقد جاءكم رسول من أنفسكم عزيز عليه ما عنتم حريص عليكم आख़िर तक। फिर मुसहफ़ (किताब) जिसमें क़ुरआन मजीद जमा किया गया था अबू-बक्र (रज़ि०) के पास रहा आपकी वफ़ात के बाद उमर (रज़ि०) के पास महफ़ूज़ रहा फिर आपकी वफ़ात के बाद आपकी बेटी (उम्मुल-मोमिनीन हफ़सा (रज़ि०) के पास महफ़ूज़ रहा)। शुऐब के साथ इस हदीस को उस्मान-बिन-उमर और लैस-बिन-सअद ने भी यूनुस से उन्होंने इब्ने-शहाब से रिवायत किया और लैस ने कहा, मुझसे अब्दुर-रहमान-बिन-ख़ालिद ने बयान किया उन्होंने इब्ने-शहाब से रिवायत किया उसमें ख़ुज़ैमा के बदले अबू-ख़ुज़ैमा अंसारी है और मूसा ने इब्राहीम से रिवायत की कहा हम से इब्ने-शहाब ने बयान किया इस रिवायत में भी अबू-ख़ुज़ैमा है। मूसा-बिन-इस्माईल के साथ इस हदीस को याक़ूब-बिन-इब्राहीम ने भी अपने वालिद इब्राहीम-बिन-सअद से रिवायत किया और अबू-साबित मुहम्मद-बिन-उबैदुल्लाह मदनी ने कहा हम से इब्राहीम ने बयान किया इस रिवायत में शक के साथ ख़ुज़ैमा या अबू-ख़ुज़ैमा मज़कूर है।
Sahih Bukhari:4679
नबी करीम (सल्ल०) की पाक बीवी आयशा (रज़ि०) पर तोहमत लगाने का वाक़िआ बयान किया। यानी जिसमें तोहमत लगाने वालों ने उन के मुताल्लिक़ अफ़वाह उड़ाई थी और फिर अल्लाह तआला ने उन को उस से बरी क़रार दिया था। उन तमाम रावियों ने पूरी हदीस का एक-एक टुकड़ा बयान किया और उन रावियों में से कुछ का बयान कुछ दूसरे के बयान की तस्दीक़ करता है। ये अलग बात है कि उनमें से कुछ रावी को कुछ दूसरे के मुक़ाबले में हदीस ज़्यादा बेहतर तरीक़े पर महफ़ूज़ याद थी। मुझसे ये हदीस उरवा ने आयशा (रज़ि०) से इस तरह बयान की कि नबी करीम (सल्ल०) की पाक बीवी आयशा (रज़ि०) ने कहा कि जब नबी करीम (सल्ल०) सफ़र का इरादा करते तो अपनी बीवियों में से किसी को अपने साथ ले जाने के लिये क़ुरआ डालते जिन का नाम निकल जाता उन्हें अपने साथ ले जाते। उन्होंने बयान किया कि एक ग़ज़वे के मौक़े पर इसी तरह आप ने क़ुरआ डाला और मेरा नाम निकला। मैं आपके साथ रवाना हुई। ये वाक़िआ परदे के हुक्म नाज़िल होने के बाद का है। मुझे होदज समेत ऊँट पर चढ़ा दिया जाता और इसी तरह उतार लिया जाता था। इस तरह हमारा सफ़र जारी रहा। फिर जब आप इस ग़ज़वा से फ़ारिग़ हो कर वापस लौटे और हम मदीना के क़रीब पहुँच गए तो एक रात जब कूच का हुक्म हुआ। मैं (ज़रूरत के लिये) पड़ाव से कुछ दूर गई और ज़रूरत के बाद अपने कजावे के पास वापस आ गई। उस वक़्त मुझे ख़याल हुआ कि मेरा ज़िफ़ार के नगीनों का बना हुआ हार कहीं रास्ते में गिर गया है। मैं उसे ढूँढने लगी और उसमें इतनी गुम हो गई कि कूच का ख़याल ही न रहा। इतने में जो लोग मेरे होदज को सवार किया करते थे, आए और मेरे होदज को उठा कर उस ऊँट पर रख दिया जो मेरी सवारी के लिये था। उन्होंने यही समझा कि मैं उसमें बैठी हुई हूँ। उन दिनों औरतें बहुत हलकी फुलकी हुआ करती थीं गोश्त से उन का जिस्म भारी नहीं होता था क्योंकि खाने-पीने को बहुत कम मिलता था। यही वजह थी कि जब लोगों ने होदज को उठाया तो उसके हलके पन में उन्हें कोई अजनबियत नहीं महसूस हुई। मैं वैसे भी उस वक़्त कम-उम्र लड़की थी। चुनांचे उन लोगों ने उस ऊँट को उठाया और चल पड़े। मुझे हार उस वक़्त मिला जब लशकर गुज़र चुका था। मैं जब पड़ाव पर पहुँची तो वहाँ न कोई पुकारने वाला था और न कोई जवाब देने वाला। मैं वहाँ जा कर बैठ गई जहाँ पहले बैठी हुई थी। मुझे यक़ीन था कि जल्द ही उन्हें मेरे न होने का इल्म हो जाएगा और फिर वो मुझे तलाश करने के लिये यहाँ आएँगे। मैं अपनी उसी जगह पर बैठी थी कि मेरी आँख लग गई और मैं सो गई। सफ़वान-बिन-मुअत्तल सुलमी ज़कवानी लशकर के पीछे पीछे आ रहे थे। (ताकि अगर लशकर वालों से कोई चीज़ छूट जाए तो उसे उठा लें सफ़र में ये दस्तूर था) रात का आख़िरी हिस्सा था जब मेरे मक़ाम पर पहुँचे, तो सुबह हो चुकी थी। उन्होंने (दूर से) एक इन्सानी साया देखा कि पड़ा हुआ है वो मेरे क़रीब आए और मुझे देखते ही पहचान गए। परदे के हुक्म से पहले उन्होंने मुझे देखा था। जब वो मुझे पहचान गए तो (इन्ना-लिल्लाह) पढ़ने लगे। मैं उन की आवाज़ पर जाग गई और चेहरा चादर से छिपा लिया। अल्लाह की क़सम ! उसके बाद उन्होंने मुझसे एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा और न मैंने (इन्ना-लिल्लाह) के सिवा उन की ज़बान से कोई कलिमा सुना। उसके बाद उन्होंने अपना ऊँट बिठा दिया और मैं इस पर सवार हो गई वो ( ख़ुद पैदल ) ऊँट को आगे से खींचते हुए ले चले। हम लशकर से उस वक़्त मिले जब वो भरी दोपहर में (धूप से बचने के लिये) पड़ाव किये हुए थे। इस तोहमत में पेश-पेश अब्दुल्लाह-बिन-उबई इब्ने-सलूल मुनाफ़िक़ था। मदीना पहुँच कर मैं बीमार पड़ गई और एक महीने तक बीमार रही। उस वक़्त में लोगों में तोहमत लगाने वालों की बातों का बराबर चर्चा रहा लेकिन मुझे उन बातों का कोई एहसास भी न था। सिर्फ़ एक मामले से मुझे शुबह सा होता था कि मैं अपनी बीमारी में रसूलुल्लाह (सल्ल०) की तरफ़ से लुत्फ़-व-मुहब्बत का इज़हार नहीं देखती थी जो पहली बीमारियों के दिनों में देख चुकी थी। नबी करीम (सल्ल०) अन्दर तशरीफ़ लाते सलाम करके सिर्फ़ इतना पूछ लेते कि क्या हाल है? और फिर वापस चले जाते। नबी करीम (सल्ल०) के उसी रवैये से शुबह होता था लेकिन सूरते-हाल का मुझे कोई एहसास नहीं था। एक दिन जब (बीमारी से कुछ फ़ायदा था) कमज़ोरी बाक़ी थी तो मैं बाहर निकली मेरे साथ उम्मे- मिस्तह (रज़ि०) भी थीं हम मनासेअ की तरफ़ गए। ज़रूरत के लिये हम वहीं जाया करते थे और ज़रूरत के लिये हम सिर्फ़ रात ही को जाया करते थे। ये इससे पहले की बात है जब हमारे घरों के क़रीब टॉयलेट नहीं बने थे। उस वक़्त तक हम पुराने अरब के दस्तूर के मुताबिक़ ज़रूरत से फ़ारिग़ होने के लिये आबादी से दूर जाया करते थे। उस से हमें बदबू से तकलीफ़ होती थी कि बैतुल-ख़ला (टॉयलेट) हमारे घर के क़रीब बना दिये जाएँ। ख़ैर मैं और उम्मे-मिस्तह ज़रूरत के लिये रवाना हुए। वो अबू-रुहुम-बिन-अब्द मनाफ़ की बेटी थीं और उन की माँ सख़र-बिन-आमिर की बेटी थीं। इस तरह वो अबू-बक्र (रज़ि०) की ख़ाला होती हैं। उन के लड़के मिस्तह-बिन-असासा हैं। ज़रूरत के बाद जब हम घर वापस आने लगे तो मिस्तह की माँ का पाँव उन्हें की चादर में उलझ कर फिसल गया। इस पर उन की ज़बान से निकला मिस्तह बर्बाद हो मैंने कहा तुमने बुरी बात कही तुम एक ऐसे शख़्स को बुरा कहती हो जो ग़ज़वाए-बद्र में शरीक रहा है। उन्होंने कहा, वाह उसकी बातें तूने नहीं सुनी? मैंने पूछा : उन्होंने क्या किया है? फिर उन्होंने मुझे तोहमत लगाने वालों की बातें बताईं; मैं पहले से बीमार थी ही उन बातों को सुन कर मेरा मर्ज़ और बढ़ गया फिर जब मैं घर पहुँची और रसूलुल्लाह (सल्ल०) अन्दर तशरीफ़ लाए तो आप ने सलाम किया और पूछा कि कैसी तबीअत है? मैंने कहा कि क्या आप मुझे अपने माँ-बाप के घर जाने की इजाज़त देंगे? मेरा मक़सद माँ-बाप के यहाँ जाने से सिर्फ़ ये था कि इस ख़बर की हक़ीक़त उन से पूरी तरह मालूम हो जाएगी। नबी करीम (सल्ल०) ने मुझे जाने की इजाज़त दे दी और मैं अपने माँ-बाप के घर आ गई। मैंने माँ से पूछा कि ये लोग किस तरह की बातें कर रहे हैं? उन्होंने फ़रमाया बेटी सब्र करो कम ही कोई ऐसी हसीन और ख़ूबसूरत औरत किसी ऐसे मर्द के निकाह में होगी जो उससे मुहब्बत रखता हो और उसकी सौकनें भी हों और फिर भी वो इस तरह उसे नीचा दिखाने की कोशिश न करें। बयान किया कि इस पर मैंने कहा : सुब्हान अल्लाह! क्या इस तरह का चर्चा लोगों ने भी कर दिया? उन्होंने बयान किया कि उसके बाद में रोने लगी और रात भर रोती रही। सुबह हो गई लेकिन मेरे आँसू नहीं थमते थे और न नींद का नाम और निशान था। सुबह हो गई और मैं रोए जा रही थी उसी वक़्त मैं नबी करीम (सल्ल०) ने अली-बिन-अबी-तालिब और उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) को बुलाया क्योंकि इस मामले में आप पर कोई वह्य नाज़िल नहीं हुई थी। आप उन से मेरे छोड़ देने के लिये मशवरा लेना चाहते थे। क्योंकि वह्य उतरने में देर हो गई थी। आयशा (रज़ि०) कहती हैं कि उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) ने नबी करीम (सल्ल०) को उसी के मुताबिक़ मशवरा दिया जिसका उन्हें इल्म था कि आपकी बीवी (यानी ख़ुद आयशा सिद्दीक़ा (रज़ि०)) इस तोहमत से बरी हैं। उसके अलावा वो ये भी जानते थे कि नबी करीम (सल्ल०) को उन से कितना ताल्लुक़ ख़ातिर है। उन्होंने कहा कि या रसूलुल्लाह! आपकी बीवी के बारे में ख़ैर और भलाई के सिवा और हमें किसी चीज़ का इल्म नहीं और अली ने कहा कि या रसूलुल्लाह! अल्लाह तआला ने आप पर कोई तंगी नहीं की है औरतें उन के सिवा और भी बहुत हैं उन की लौंडी (बरीरा) से भी आप इस मामले में दरयाफ़्त फ़रमा लें। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर नबी करीम (सल्ल०) ने बरीरा को बुलाया और पूछा : बरीरा ! क्या तुमने कोई ऐसी चीज़ देखी है जिससे तुझ को शुबह गुज़रा हो? उन्होंने कहा, नहीं हुज़ूर ! उस ज़ात की क़सम जिसने आप को हक़ के साथ भेजा है मैंने उनमें कोई ऐसी बात नहीं पाई जिस पर मैं ऐब लगा सकूँ एक बात ज़रूर है कि वो कम-उम्र की लड़की हैं आटा गूँधने में भी सो जाती हैं और इतने में कोई बकरी या परिन्दा वग़ैरा वहाँ पहुँच जाता है और उनका गूँधा हुआ आटा खा जाता है। उसके बाद रसूलुल्लाह (सल्ल०) खड़े हुए और उस दिन आप ने अब्दुल्लाह-बिन-उबई-बिन-सलूल की शिकायत की। बयान किया कि नबी करीम (सल्ल०) ने मिम्बर पर खड़े हो कर फ़रमाया कि ऐ मुसलमानो! एक ऐसे शख़्स के बारे में कौन मेरी मदद करता है जिसका तकलीफ़ देना अब मेरे घर पहुँच गया है। अल्लाह की क़सम कि मैं अपनी बीवी को नेक और पाक दामन होने के सिवा कुछ नहीं जानता। और ये लोग जिस मर्द का नाम ले रहे हैं उन के बारे में भी ख़ैर के सिवा मैं और कुछ नहीं जानता। वो जब भी मेरे घर में गए तो मेरे साथ ही गए हैं। इस पर सअद-बिन-मुआज़ अंसारी (रज़ि०) उठे और कहा कि या रसूलुल्लाह! मैं आपकी मदद करूँगा और अगर वो शख़्स क़बीला औस से ताल्लुक़ रखता है तो मैं उसकी गर्दन उड़ा दूँगा और अगर वो हमारे भाइयों यानी ख़ज़रज में का कोई आदमी है तो आप हमें हुक्म दें अमल में कोताही नहीं होगी। रावी ने बयान किया कि उसके बाद सअद-बिन-उबादा (रज़ि०) खड़े हुए वो क़बीला ख़ज़रज के सरदार थे, इससे पहले वो मर्दे-सालेह थे लेकिन आज उन पर क़ौमी हमीयत ग़ालिब आ गई थी। (अब्दुल्लाह-बिन-उबई इब्ने- सलूल मुनाफ़िक़ ) उन ही के क़बीले से ताल्लुक़ रखता था उन्होंने उठ कर सअद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) से कहा : अल्लाह की क़सम ! तुमने झूट कहा है तुम उसे क़त्ल नहीं कर सकते तुममें उसके क़त्ल की ताक़त नहीं है। फिर उसैद-बिन-हुज़ैर (रज़ि०) खड़े हुए वो सअद-बिन-मुआज़ के चचेरे भाई थे उन्होंने सअद-बिन-उबादा से कहा कि अल्लाह की क़सम ! तुम झूट बोलते हो हम उसे ज़रूर क़त्ल करेंगे क्या तुम मुनाफ़िक़ हो गए हो कि मुनाफ़िक़ों की तरफ़दारी में लड़ते हो? इतने में दोनों क़बीले औस और ख़ज़रज उठ खड़े हुए और नौबत आपस ही में लड़ने तक पहुँच गई। रसूलुल्लाह (सल्ल०) मिम्बर पर खड़े थे। आप लोगों को ख़ामोश करने लगे। आख़िर सब लोग चुप हो गए और नबी करीम (सल्ल०) भी ख़ामोश हो गए। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि उस दिन भी मैं बराबर रोती रही न आँसू थमता था और न नींद आती थी। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि जब (दूसरी) सुबह हुई तो मेरे माँ-बाप मेरे पास ही मौजूद थे दो रातें और एक दिन मुझे मुसलसल रोते हुए गुज़र गया था। उस वक़्त में न मुझे नींद आती थी और न आँसू थमते थे। माँ-बाप सोचने लगे कि कहीं रोते-रोते मेरा दिल न फट जाए। उन्होंने बयान किया कि अभी वो इसी तरह मेरे पास बैठे हुए थे। और मैं रोए जा रही थी कि क़बीला अंसार की एक औरत ने अन्दर आने की इजाज़त चाही मैंने उन्हें अन्दर आने की इजाज़त दे दी वो भी मेरे साथ बैठ कर रोने लगीं। हम उसी हाल में थे कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) अन्दर तशरीफ़ लाए और बैठ गए। उन्होंने कहा कि जब से मुझ पर तोहमत लगाई गई थी उस वक़्त से अब तक नबी करीम (सल्ल०) मेरे पास नहीं बैठे थे आप ने एक महीने तक इस मामले में इन्तिज़ार किया और आप (सल्ल०) पर इस सिलसिले में कोई वह्य नाज़िल नहीं हुई। उन्होंने बयान किया कि बैठने के बाद नबी करीम (सल्ल०) ने ख़ुतबा पढ़ा फिर फ़रमाया ऐ आयशा ! तुम्हारे बारे में मुझे इस इस तरह की ख़बरें पहुँची हैं इसलिये अगर तुम बरी हो तो अल्लाह तआला तुम्हारी बरअत ख़ुद कर देगा। लेकिन अगर तुम से ग़लती से गुनाह हो गया है तो अल्लाह से दुआए मग़फ़िरत करो और उसकी बारगाह में तौबा करो क्योंकि बन्दा जब अपने गुनाह का इक़रार कर लेता है और फिर अल्लाह से तौबा करता है तो अल्लाह तआला भी उसकी तौबा क़बूल कर लेता है। आयशा (रज़ि०) ने कहा कि जब नबी करीम (सल्ल०) अपनी बातचीत ख़त्म कर चुके तो यकबारगी मेरे आँसू इस तरह ख़ुश्क हो गए जैसे एक बूँद भी बाक़ी न रहा हो। मैंने अपने वालिद ( अबू-बक्र ) से कहा कि आप मेरी तरफ़ से रसूलुल्लाह (सल्ल०) को जवाब दीजिये। उन्होंने फ़रमाया कि “अल्लाह की क़सम ! मैं नहीं समझता कि मुझे रसूलुल्लाह (सल्ल०) से इस सिलसिले में क्या कहना है। फिर मैंने अपनी माँ से कहा कि नबी करीम (सल्ल०) की बातों का मेरी तरफ़ से आप जवाब दें। उन्होंने भी यही कहा कि अल्लाह की क़सम ! मुझे नहीं मालूम कि मैं आप से क्या बात करूँ। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर मैं ख़ुद ही बोली मैं उस वक़्त नई-उम्र की लड़की थी मैंने बहुत ज़्यादा क़ुरआन भी नहीं पढ़ा था (मैंने कहा कि) अल्लाह की क़सम ! मैं तो ये जानती हूँ कि उन अफ़वाहों के मुताल्लिक़ जो कुछ आप लोगों ने सुना है वो आप लोगों के दिल में जम गया है और आप लोग उसे सही समझने लगे हैं अब अगर मैं ये कहती हूँ कि मैं उन तोहमतों से बरी हूँ और अल्लाह ख़ूब जानता है कि मैं वाक़ई बरी हूँ तो आप लोग मेरी बात का यक़ीन नहीं करेंगे लेकिन अगर मैं तोहमत का इक़रार कर लूँ हालाँकि अल्लाह के इल्म में है कि मैं उस से क़तई बरी हूँ तो आप लोग मेरी तस्दीक़ करने लगेंगे। अल्लाह की क़सम ! मेरे पास आप लोगों के लिये कोई मिसाल नहीं है सिवा यूसुफ़ के वालिद के इस इरशाद के कि उन्होंने फ़रमाया था "इसलिये सब्र ही अच्छा है और तुम जो कुछ बयान करते हो इस पर अल्लाह ही मदद करेगा" बयान किया कि फिर मैंने अपना रुख़ दूसरी तरफ़ कर लिया। और अपने बिस्तर पर लेट गई। कहा कि मुझे पूरा यक़ीन था कि मैं बरी हूँ और अल्लाह तआला मेरी बरअत ज़रूर करेगा लेकिन अल्लाह की क़सम ! मुझे उसका वहम और गुमान भी नहीं था कि अल्लाह तआला मेरे बारे में ऐसी वह्य नाज़िल फ़रमाएगा जिसकी तिलावत की जाएगी। मैं अपनी हैसियत उस से बहुत कम तर समझती थी कि अल्लाह तआला मेरे बारे में (क़ुरआन मजीद की आयत ) नाज़िल फ़रमाए। अलबत्ता मुझे उसकी उम्मीद ज़रूर थी कि नबी करीम (सल्ल०) मेरे मुताल्लिक़ कोई ख़्वाब देखेंगे और अल्लाह तआला उसके ज़रिए मेरी बरअत कर देगा। बयान किया कि अल्लाह की क़सम रसूलुल्लाह (सल्ल०) अभी अपनी इसी मजलिस में तशरीफ़ रखते थे घर वालों में से कोई बाहर न था कि आप पर वह्य का नुज़ूल शुरू हुआ और वही कैफ़ियत आप (सल्ल०) पर तारी हुई थी। जो वह्य के नाज़िल होते हुए तारी होती थी यानी आप (सल्ल०) पसीने पसीने हो गए और पसीना मोतियों की तरह आप के जिस्म पाक से ढलने लगा हालाँकि सर्दी के दिन थे। ये कैफ़ियत आप पर इस वह्य की शिद्दत की वजह से तारी होती थी जो आप पर नाज़िल होती थी। बयान किया कि फिर जब नबी करीम (सल्ल०) की कैफ़ियत ख़त्म हुई तो आप (सल्ल०) मुस्कुरा रहे थे। और सबसे पहला कलिमा जो आपकी ज़बान मुबारक से निकला ये था कि आयशा ! अल्लाह ने तुम्हें बरी क़रार दिया है। मेरी माँ ने फ़रमाया कि नबी करीम (सल्ल०) के सामने (आपका शुक्र अदा करने के लिये) खड़ी हो जाओ। बयान किया कि मैंने कहा : अल्लाह की क़सम ! मैं हरगिज़ आप के सामने खड़ी नहीं होंगी और अल्लाह पाक के सिवा और किसी की तारीफ़ नहीं करूँगी। अल्लाह तआला ने जो आयत नाज़िल की थी वो ये थी कि "बेशक जिन लोगों ने तोहमत लगाई है वो तुममें से एक छोटा से गरोह है" मुकम्मल दस आयतों तक। जब अल्लाह तआला ने ये आयतें मेरी बरअत में नाज़िल कर दीं तो अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) जो मिस्तह-बिन-असासा (रज़ि०) के ख़र्चे उन से क़राबत और उन की मोहताजी की वजह से ख़ुद उठाया करते थे उन्होंने उन के मुताल्लिक़ कहा कि अल्लाह की क़सम! अब मिस्तह पर कभी कुछ भी ख़र्च नहीं करूँगा। उसने आयशा (रज़ि०) पर कैसी-कैसी तोहमतें लगा दी हैं। इस पर अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल की ''और जो लोग तुममें बुज़ुर्गी (पाकी) और वुसअत वाले हैं वो क़राबत वालों को और मिसकीनों को और अल्लाह के रास्ते में हिजरत करने वालों की मदद देने से क़सम न खा बैठें बल्कि चाहिये कि उन की ख़ताओं को माफ़ करते रहें और क्या तुम ये नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करता रहे बेशक अल्लाह बड़ा मग़फ़िरत वाला बड़ा ही रहमत वाला है।''अबू-बक्र (रज़ि०) बोले हाँ अल्लाह की क़सम ! मेरी तो यही ख़ाहिश है कि अल्लाह तआला मेरी मग़फ़िरत फ़रमा दे चुनांचे मिस्तह (रज़ि०) को वो तमाम ख़र्चे देने लगे जो पहले दिया करते थे और फ़रमाया कि “अल्लाह की क़सम ! अब कभी उन का ख़र्च बन्द नहीं करूँगा। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने उम्मुल-मोमिनीन ज़ैनब-बिन-जहश (रज़ि०) से भी मेरे मामला में पूछा था। आप ने पूछा कि ज़ैनब ! तुमने भी कोई चीज़ कभी देखी है? उन्होंने कहा : या रसूलुल्लाह! मेरे कान और मेरी आँख को अल्लाह सलामत रखे मैंने उन के अन्दर ख़ैर के सिवा और कोई चीज़ नहीं देखी। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि पाक बीवियों में वही एक थीं जो मुझसे भी ऊपर रहना चाहती थीं लेकिन अल्लाह तआला ने उन की परहेज़गारी की वजह से उन्हें तोहमत लगाने से महफ़ूज़ रखा। लेकिन उनकी बहन हमना उन के लिये लड़ी और तोहमत लगाने वालों के साथ वो भी हलाक हो गई।
Sahih Bukhari:4750
जब मेरे मुताल्लिक़ ऐसी बातें कही गईं जिनका मुझे गुमान भी नहीं था तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) मेरे मामला में लोगों को ख़ुतबा देने के लिये खड़े हुए। आप (सल्ल०) ने शहादत के बाद अल्लाह की हम्द और तारीफ़, उसकी शान के मुताबिक़ बयान की फिर फ़रमाया: तुम लोग मुझे ऐसे लोगों के बारे में मशवरा दो जिन्होंने मेरी बीवी को बदनाम किया है और अल्लाह की क़सम! मैंने अपनी बीवी में कोई बुराई नहीं देखी और तोहमत भी ऐसे शख़्स (सफ़वान-बिन-मुअत्तल) के साथ लगाई है कि अल्लाह की क़सम! उनमें भी मैंने कभी कोई बुराई नहीं देखी। वो मेरे घर में जब भी दाख़िल हुए तो मेरी मौजूदगी ही में दाख़िल हुए और अगर मैं कभी सफ़र की वजह से मदीना नहीं होता तो वो भी नहीं होते और वो मेरे साथ ही रहते हैं। उसके बाद सअद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) खड़े हुए और कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! हमें हुक्म फ़रमाइये कि हम ऐसे मरदूद (रद्द किये हुए) लोगों की गर्दनें उड़ा दें। उसके बाद क़बीला ख़ज़रज के एक साहिब (सअद-बिन-उबादा) खड़े हुए। हस्सान-बिन-साबित की माँ उसी क़बीला ख़ज़रज से थीं। उन्होंने खड़े होकर कहा कि तुम झूठे हो अगर वो लोग (तोहमत लगानेवाले) क़बीला औस के होते तो तुम कभी उन्हें क़त्ल करना पसन्द न करते। नौबत यहाँ तक पहुँची कि मस्जिद ही में औस और ख़ज़रज के क़बीलों में आपसी फ़साद का ख़तरा हो गया। इस फ़साद की मुझको कुछ ख़बर न थी। उसी दिन की रात में मैं ज़रूरत के लिये बाहर निकली, मेरे साथ उम्मे-मिस्तह भी थीं। वो (रास्ते में) फिसल गईं और उनकी ज़बान से निकला कि मिस्तह को अल्लाह ग़ारत करे। मैंने कहा: आप अपने बेटे को कोसती हैं! इसपर वो ख़ामोश हो गईं। फिर दोबारा वो फिसलीं और उनकी ज़बान से वही अलफ़ाज़ निकले कि मिस्तह को अल्लाह ग़ारत करे। मैंने फिर कहा कि अपने बेटे को कोसती हो! फिर वो तीसरी मर्तबा फिसलीं तो मैंने फिर उन्हें टोका। उन्होंने बताया कि अल्लाह की क़सम! मैं तो तेरी ही वजह से उसे कोसती हूँ। मैंने कहा कि मेरे किस मामले में उन्हें आप कोस रही हैं? बयान किया कि अब उन्होंने तूफ़ान का सारा क़िस्सा बयान किया। मैंने पूछा: क्या वाक़ई ये सब कुछ कहा गया है? उन्होंने कहा कि हाँ, अल्लाह की क़सम! फिर मैं अपने घर गई। लेकिन (उन वाक़िआत को सुनकर ग़म का ये हाल था कि) मुझे कुछ ख़बर नहीं कि किस काम के लिये मैं बाहर गई थी और कहाँ से आई हूँ, ज़र्रा बराबर भी मुझे इसका एहसास नहीं रहा। उसके बाद मुझे बुख़ार चढ़ गया और मैंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से कहा कि आप मुझे ज़रा मेरे वालिद के घर पहुँचवा दीजिये। आप (सल्ल०) ने मेरे साथ एक बच्चे को कर दिया। मैं घर पहुँची तो मैंने देखा कि उम्मे-रूमान नीचे के हिस्से में हैं और अबू-बक्र (रज़ि०) बाला-ख़ाने में क़ुरआन पढ़ रहे हैं। माँ ने पूछा: बेटी इस वक़्त कैसे आ गईं? मैंने वजह बताई और वाक़िए की तफ़सीलात सुनाईं। उन बातों से जितना ग़म मुझको था ऐसा मालूम हुआ कि उनको इतना ग़म नहीं है। उन्होंने फ़रमाया: बेटी! इतनी फ़िक्र क्यों करती हो! कम ही ऐसी कोई ख़ूबसूरत औरत किसी ऐसे मर्द के निकाह में होगी जो उससे मुहब्बत रखता हो और उसकी सौकनें भी हों और वो उससे हसद न करें और उसमें सौ ऐब न निकालें। उस तोहमत से वो इस दर्जे बिल्कुल भी मुतास्सिर नहीं मालूम होती थीं जितना मैं मुतास्सिर थी। मैंने पूछा: वालिद के इल्म में भी ये बातें आ गईं हैं? उन्होंने कहा कि हाँ। मैंने पूछा: और रसूलुल्लाह (सल्ल०) के? उन्होंने बताया कि नबी (सल्ल०) के भी इल्म में सब कुछ है। मैं ये सुनकर रोने लगी तो अबू-बक्र (रज़ि०) ने भी मेरी आवाज़ सुन ली। वो घर के ऊपरी हिस्से में क़ुरआन पढ़ रहे थे। उतरकर नीचे आए और माँ से पूछा कि इसे क्या हो गया है? उन्होंने कहा कि वो तमाम बातें उसे भी मालूम हो गई हैं जो उसके मुताल्लिक़ कही जा रही हैं। उनकी भी आँखें भर आईं और फ़रमाया: बेटी! तुम्हें क़सम देता हूँ अपने घर वापस चली जाओ। चुनांचे मैं वापस चली आई। (जब मैं अपने माँ-बाप के घर आ गई थी तो) रसूलुल्लाह (सल्ल०) मेरे हुजरे में तशरीफ़ लाए थे और मेरी ख़ादिमा (बरीरा) से मेरे मुताल्लिक़ पूछा था। उसने कहा था कि नहीं, अल्लाह की क़सम! मैं उनके अन्दर कोई ऐब नहीं जानती अलबत्ता ऐसा हो जाया करता था (कम उमरी की ग़फ़लत की वजह से) कि (आटा गूंधते हुए) सो जाया करतीं और बकरी आकर उनका गुंधा हुआ आटा खा जाती। रसूलुल्लाह (सल्ल०) के कुछ सहाबा ने डाँटकर उनसे कहा कि नबी (सल्ल०) को बात सही सही क्यों नहीं बता देती। फिर उन्होंने खोलकर साफ़ लफ़्ज़ों में उनसे वाक़िए की तस्दीक़ चाही। इसपर वो बोलीं कि सुब्हानल्लाह! मैं तो आयशा (रज़ि०) को इस तरह जानती हूँ जिस तरह सुनार खरे सोने को जानता है। उस तोहमत की ख़बर जब उन साहिब को मालूम हुई जिनके साथ तोहमत लगाई गई थी तो उन्होंने कहा कि सुब्हानल्लाह! अल्लाह की क़सम! मैंने आज तक किसी (ग़ैर) औरत का कपड़ा नहीं खोला। आयशा (रज़ि०) ने कहा कि फिर उन्होंने अल्लाह के रास्ते में शहादत पाई। बयान किया कि सुबह के वक़्त मेरे माँ-बाप मेरे पास आ गए और मेरे पास ही रहे। आख़िर अस्र की नमाज़ से फ़ारिग़ होकर रसूलुल्लाह (सल्ल०) भी तशरीफ़ लाए। मेरे माँ-बाप मुझे दाएँ और बाएँ तरफ़ से पकड़े हुए थे। नबी (सल्ल०) ने अल्लाह की हम्द और तारीफ़ की और फ़रमाया: ऐ आयशा! अगर तुमने वाक़ई कोई बुरा काम किया है और अपने ऊपर ज़ुल्म किया है तो फिर अल्लाह से तौबा करो क्योंकि अल्लाह अपने बन्दों की तौबा क़बूल करता है। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि एक अंसारी औरत भी आ गई थीं और दरवाज़े पर बैठी हुई थीं। मैंने कहा कि आप उन औरत का लिहाज़ नहीं फ़रमाते! कहीं ये (अपनी समझ के मुताबिक़ कोई उलटी-सीधी) बात बाहर कह दें। फिर नबी (सल्ल०) ने नसीहत फ़रमाई। उसके बाद मैं अपने वालिद की तरफ़ मुतवज्जेह हुई और उनसे कहा कि आप ही जवाब दीजिये। उन्होंने भी यही कहा कि मैं क्या कहूँ! जब किसी ने मेरी तरफ़ से कुछ नहीं कहा तो मैंने शहादत के बाद अल्लाह की शान के मुताबिक़ उसकी हम्द और तारीफ़ की और कहा: अल्लाह की क़सम! अगर मैं आप लोगों से ये कहूँ कि मैंने इस तरह की कोई बात नहीं की और शानवाला अल्लाह गवाह है कि मैं अपने इस दावे मैं सच्ची हूँ तो आप लोगों के ख़याल को बदलने में मेरी ये बात मुझे कोई नफ़ा नहीं पहुँचाएगी क्योंकि ये बात आप लोगों के दिल में रच बस गई है और अगर मैं ये कह दूँ कि मैंने हक़ीक़त में ये काम किया है हालाँकि अल्लाह ख़ूब जानता है कि मैंने ऐसा नहीं किया है तो आप लोग कहेंगे कि उसने तो जुर्म का इक़रार कर लिया है। अल्लाह की क़सम! मेरी और आप लोगों की मिसाल यूसुफ़ (अलैहि०) के वालिद की-सी है कि उन्होंने फ़रमाया था: (فصبر جميل والله المستعان على ما تصفون) "इसलिये सब्र ही अच्छा है और तुम लोग जो कुछ बयान करते हो उसपर अल्लाह ही मदद करे।" मैंने ज़हन पर बहुत ज़ोर दिया कि याक़ूब (अलैहि०) का नाम याद आ जाए लेकिन नहीं याद आया। उसी वक़्त रसूलुल्लाह (सल्ल०) पर वह्य का नुज़ूल शुरू हो गया और हम सब ख़ामोश हो गए। फिर आपसे ये कैफ़ियत ख़त्म हुई तो मैंने देखा कि ख़ुशी नबी (सल्ल०) के चेहरे से ज़ाहिर हो रही थी। नबी (सल्ल०) ने (पसीने से) अपनी पेशानी साफ़ करते हुए फ़रमाया कि आयशा! तुम्हें ख़ुशख़बरी हो अल्लाह ने तुम्हारी पाकी नाज़िल कर दी है। बयान किया कि उस वक़्त मुझे बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था। मेरे माँ-बाप ने कहा कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) के सामने खड़ी हो जाओ। मैंने कहा कि अल्लाह की क़सम! मैं नबी (सल्ल०) के सामने खड़ी नहीं होंगी न आपका शुक्रिया अदा करूँगी और न आप लोगों का शुक्रिया अदा करूँगी। मैं तो सिर्फ़ अल्लाह का शुक्र अदा करूँगी जिसने मेरी बरअत नाज़िल की है। आप लोगों ने तो ये अफ़वाह सुनी और उसका इनकार भी न कर सके, उसके ख़त्म करने की भी कोशिश नहीं की। आयशा (रज़ि०) फ़रमाती थीं कि ज़ैनब-बिन्ते-जहश को अल्लाह ने उनकी दीनदार की वजह से इस तोहमत में पड़ने से बचा लिया। मेरे बारे में उन्होंने ख़ैर के सिवा और कोई बात नहीं कही, अलबत्ता उनकी बहन हमना हलाक होनेवालों के साथ हलाक हुईं। उस तूफ़ान को फैलाने में मिस्तह और हस्सान और मुनाफ़िक़ अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने हिस्सा लिया था। अब्दुल्लाह-बिन-उबई मुनाफ़िक़ ही तो खोद-खोदकर उसको पूछता और उसपर हाशिया चढ़ाता। वही उस तूफ़ान की बुनियाद रखनेवाला था। (وهو الذي تولى كبره) से वो और हमना मुराद हैं। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर अबू-बक्र (रज़ि०) ने क़सम खाई कि मिस्तह को कोई फ़ायदा आइन्दा कभी वो नहीं पहुँचाएँगे। इसपर अल्लाह ने ये आयत नाज़िल की (ولا يأتل أولو الفضل منكم) ''और जो लोग तुममें बुज़ुर्गी (पाकी) वाले और कुशादा हाथ हैं" आख़िर आयत तक। उससे मुराद अबू-बक्र (रज़ि०) हैं। 'वो क़राबतवालों और मिसकीनों को' उससे मुराद मिस्तह हैं। (देने से क़सम न खा बैठें) अल्लाह के इरशाद (ألا تحبون أن يغفر الله لكم والله غفور رحيم) "क्या तुम ये नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हारे क़ुसूर माफ़ करता रहे? बेशक अल्लाह बड़ी मग़फ़िरत करनेवाला बड़ा ही मेहरबान है" तक। चुनांचे अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा कि हाँ, अल्लाह की क़सम! ऐ हमारे रब! हम तो इसी के ख़ाहिशमन्द हैं कि तू हमारी मग़फ़िरत फ़रमा। फिर वो पहले की तरह मिस्तह को जो दिया करते थे वो जारी कर दिया।
Sahih Bukhari:4757
बहुत दिनों तक मेरे दिल में ख़ाहिश रही कि मैं उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) से नबी करीम (सल्ल०) की उन दो बीवियों के मुताल्लिक़ पूछूँ जिनके बारे में अल्लाह ने ये आयत नाज़िल की थी। إن تتوبا إلى الله فقد صغت قلوبكما एक मर्तबा उन्होंने हज किया और उन के साथ मैंने भी हज किया। एक जगह जब वो रास्ते से हट कर (ज़रूरत के लिये) गए तो मैं भी एक बर्तन में पानी ले कर उन के साथ रास्ते से हट गया। फिर उन्होंने ज़रूरत से फ़ारिग़ हुए और वापस आए तो मैंने उन के हाथों पर पानी डाला। फिर उन्होंने वुज़ू किया तो मैंने उस वक़्त उन से पूछा कि या अमीरुल-मोमिनीन! नबी करीम (सल्ल०) की बीवियों में वो कौन हैं जिनके मुताल्लिक़ अल्लाह ने ये इरशाद फ़रमाया कि إن تتوبا إلى الله فقد صغت قلوبكما उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) ने इस पर कहा ऐ इब्ने-अब्बास! तुम पर ताज्जुब है। वो आयशा (रज़ि०) और हफ़सा (रज़ि०) हैं फिर उमर (रज़ि०) ने तफ़सील के साथ हदीस बयान करनी शुरू की। उन्होंने कहा कि मैं और मेरे एक अंसारी पड़ौसी जो बनू उमैया-बिन-ज़ैद से थे और अवाली मदीना में रहते थे। हमने (अवाली से) रसूलुल्लाह (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होने के लिये बारी मुक़र्रर कर रखी थी। एक दिन वो हाज़िरी देते और एक दिन में हाज़िरी देता जब मैं हाज़िर होता तो उस दिन की तमाम ख़बरें जो वह्य वग़ैरा से मुताल्लिक़ होतीं लाता (और अपने पड़ौसी से बयान करता) और जिस दिन वो हाज़िर होते तो वो भी ऐसे करते, हम क़ुरैशी लोग अपनी औरतों पर ग़ालिब थे लेकिन जब हम मदीना आए तो ये लोग ऐसे थे कि औरतों से मग़लूब थे हमारी औरतों ने भी अंसार की औरतों का तरीक़ा सीखना शुरू कर दिया। एक दिन मैंने अपनी बीवी को डाँटा तो उसने भी मेरा तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया। मैंने उसके इस तरह जवाब देने पर नागवारी का इज़हार किया तो उसने कहा कि मेरा जवाब देना तुम्हें बुरा क्यों लगता है अल्लाह की क़सम! नबी करीम (सल्ल०) की बीवियाँ भी उन को जवाबात दे देती हैं और कुछ तो नबी करीम (सल्ल०) से एक दिन रात तक अलग रहती हैं। मैं इस बात पर काँप उठा और कहा कि उन में से जिसने भी ये मामला किया यक़ीनन वो नामुराद हो गई। फिर मैंने अपने कपड़े पहने और (मदीना के लिये) रवाना हुआ फिर मैं हफ़सा के घर गया और मैंने उस से कहा : ऐ हफ़सा! क्या तुममें से कोई भी नबी करीम (सल्ल०) से एक-एक दिन रात तक ग़ुस्सा रहती है? उन्होंने कहा कि जी हाँ कभी (ऐसा हो जाता है) मैंने उस पर कहा कि फिर तुमने अपने आप को नुक़सान में डाल लिया और नामुराद हुई। क्या तुम्हें उसका कोई डर नहीं कि नबी करीम (सल्ल०) के ग़ुस्से की वजह से अल्लाह तुम पर ग़ुस्सा हो जाए और फिर तुम अकेले ही रह जाओगी। ख़बरदार! नबी करीम (सल्ल०) से माँगें न किया करो न किसी मामले में नबी करीम (सल्ल०) को जवाब दिया करो और न नबी करीम (सल्ल०) को छोड़ा करो। अगर तुम्हें कोई ज़रूरत हो तो मुझसे माँग लिया करो। तुम्हारी सौकन जो तुम से ज़्यादा ख़ूबसूरत है और नबी करीम (सल्ल०) को तुम से ज़्यादा प्यारी है उन की वजह से तुम किसी ग़लतफ़हमी में न मुब्तला हो जाना। उन का इशारा आयशा (रज़ि०) की तरफ़ था। उमर (रज़ि०) ने बयान किया कि हमें मालूम हुआ था कि मुल्क ग़स्सान हम पर हमले के लिये फ़ौजी तैयारियाँ कर रहा है। मेरे अंसारी साथी अपनी बारी पर मदीना मुनव्वरह गए हुए थे। वो रात गए वापस आए और मेरे दरवाज़े पर बड़ी ज़ोर-ज़ोर से दस्तक दी और कहा कि क्या उमर (रज़ि०) घर में हैं। मैं घबरा कर बाहर निकला तो उन्होंने कहा कि आज तो बड़ा हादिसा हो गया। मैंने कहा क्या बात हुई क्या ग़स्सानी चढ़ आए हैं? उन्होंने कहा कि नहीं हादिसा उस से भी बड़ा और उस से भी ज़्यादा ख़ौफ़नाक है। नबी करीम (सल्ल०) ने पाक बीवियों को तलाक़ दे दी है। मैंने कहा कि हफ़सा तो घाटे में रही और नामुराद हुई। मुझे तो उसका ख़तरा लगा ही रहता था कि इस तरह का कोई हादिसा जल्द ही होगा फिर मैंने अपने तमाम कपड़े पहने (और मदीना के लिये रवाना हो गया) मैंने फ़ज्र की नमाज़ नबी करीम (सल्ल०) के साथ पढ़ी (नमाज़ के बाद) नबी करीम (सल्ल०) अपने एक बाला ख़ाने में चले गए और वहाँ तन्हाई इख़्तियार कर ली। मैं हफ़सा के पास गया तो वो रो रही थी। मैंने कहा अब रोती क्या हो। मैंने तुम्हें पहले ही आगाह कर दिया था। क्या नबी करीम (सल्ल०) ने तुम्हें तलाक़ दे दी है? उन्होंने कहा कि मुझे मालूम नहीं। नबी करीम (सल्ल०) इस वक़्त बाला ख़ाने में अकेले तशरीफ़ रखते हैं। मैं वहाँ से निकला और मेम्बर के पास आया। उसके पास कुछ सहाबा किराम मौजूद थे और उन में से कुछ रो रहे थे। थोड़ी देर तक मैं उन के साथ बैठा रहा। उसके बाद मेरा ग़म मुझ पर ग़ालिब आ गया और मैं उस बाला ख़ाने के पास आया। जहाँ नबी करीम (सल्ल०) तशरीफ़ रखते थे। मैंने नबी करीम (सल्ल०) के एक हब्शी ग़ुलाम से कहा कि उमर (रज़ि०) के लिये अन्दर आने की इजाज़त ले लो। ग़ुलाम अन्दर गया और नबी करीम (सल्ल०) से बातचीत करके वापस आ गया। उसने मुझसे कहा कि मैंने नबी करीम (सल्ल०) से कहा कि और नबी करीम (सल्ल०) से आपका ज़िक्र किया लेकिन आप ख़ामोश रहे। चुनांचे मैं वापस चला आया और फिर उन लोगों के साथ बैठ गया जो मेम्बर के पास मौजूद थे। मेरा ग़म मुझ पर ग़ालिब आया और दोबारा आ कर मैंने ग़ुलाम से कहा कि उमर के लिये इजाज़त ले लो। उस ग़ुलाम ने वापस आ कर फिर कहा कि मैंने नबी करीम (सल्ल०) के सामने आपका ज़िक्र किया तो नबी करीम (सल्ल०) ख़ामोश रहे। मैं फिर वापस आ गया और मेम्बर के पास जो लोग मौजूद थे उन के साथ बैठ गया। लेकिन मेरा ग़म मुझ पर ग़ालिब आया और मैंने फिर आ कर ग़ुलाम से कहा कि उमर के लिये इजाज़त तलब करो। ग़ुलाम अन्दर गया और वापस आ कर जवाब दिया कि मैंने आपका ज़िक्र नबी करीम (सल्ल०) से किया और नबी करीम (सल्ल०) ख़ामोश रहे। मैं वहाँ से वापस आ रहा था कि ग़ुलाम ने मुझको पुकारा और कहा नबी करीम (सल्ल०) ने तुम्हें इजाज़त दे दी है। मैं नबी करीम (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ तो आप उस बान की चारपाई पर जिससे चटाई बनी जाती है लेटे हुए थे। उस पर कोई बिस्तर नहीं था। बान के निशानात आप के पहलू मुबारक पर पड़े हुए थे। जिस तकिये पर आप टेक लगाए हुए थे। उसमें छाल भरी हुई थी। मैंने नबी करीम (सल्ल०) को सलाम किया और खड़े ही खड़े कहा : या रसूलुल्लाह! क्या आप ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है? नबी करीम (सल्ल०) ने मेरी तरफ़ निगाह उठाई और फ़रमाया नहीं। मैं (ख़ुशी की वजह से) कह उठा। अल्लाहु-अकबर। फिर मैंने खड़े ही खड़े नबी करीम (सल्ल०) को ख़ुश करने के लिये कहा कि या रसूलुल्लाह! आप को मालूम है हम क़ुरैश के लोग औरतों पर ग़ालिब रहा करते थे। फिर जब हम मदीना आए तो यहाँ के लोगों पर उन की औरतें ग़ालिब थीं। नबी करीम (सल्ल०) इस पर मुस्कुरा दिये। फिर मैंने कहा : या रसूलुल्लाह! आप को मालूम है। मैं हफ़सा के पास एक मर्तबा गया था और उस से कह आया था कि अपनी सौकन की वजह से जो तुम से ज़्यादा ख़ूबसूरत और तुम से ज़्यादा रसूलुल्लाह (सल्ल०) को अज़ीज़ है धोखे में मत रहना। उन का इशारा आयशा (रज़ि०) की तरफ़ था। इस पर नबी करीम (सल्ल०) दोबारा मुस्कुरा दिये। मैंने नबी करीम (सल्ल०) को मुस्कुराते देखा तो बैठ गया फिर नज़र उठा कर मैं नबी करीम (सल्ल०) के घर का जायज़ा लिया। अल्लाह की क़सम ! मैंने नबी करीम (सल्ल०) के घर में कोई ऐसी चीज़ नहीं देखी जिस पर नज़र रुकती। सिवा तीन चमड़ों के (जो वहाँ मौजूद थे) मैंने कहा : या रसूलुल्लाह! अल्लाह से दुआ फ़रमाएँ कि वो आपकी उम्मत को कुशादगी अता फ़रमाए। फ़ारस और रोम को कुशादगी और वुसअत हासिल है और उन्हें दुनिया दी गई है हालाँकि वो अल्लाह की इबादत नहीं करते, नबी करीम (सल्ल०) अभी तक टेक लगाए हुए थे। लेकिन अब सीधे बैठ गए और फ़रमाया : इब्ने-ख़त्ताब! तुम्हारी नज़र में भी ये चीज़ें अहमियत रखती हैं ये तो वो लोग हैं जिन्हें जो कुछ भलाई मिलने वाली थी सब इसी दुनिया में दे दी गई है। मैंने कहा : या रसूलुल्लाह! मेरे लिये अल्लाह से मग़फ़िरत की दुआ कर दीजिये (कि मैंने दुनियावी शान और शौकत के मुताल्लिक़ ये ग़लत ख़याल दिल में रखा) चुनांचे नबी करीम (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को इसी वजह से उन्तीस दिन तक अलग रखा कि हफ़सा ने नबी करीम (सल्ल०) का राज़ आयशा से कह दिया था। नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया था कि एक महीने तक मैं अपनी बीवियों के पास नहीं जाऊँगा। क्योंकि जब अल्लाह तआला ने नबी करीम (सल्ल०) पर ग़ुस्सा किया तो नबी करीम (सल्ल०) को उसका बहुत रंज हुआ (और आप ने बीवियों से अलग रहने का फ़ैसला किया) फिर जब उन्तीसवीं रात गुज़र गई तो नबी करीम (सल्ल०) आयशा (रज़ि०) के घर तशरीफ़ ले गए और आप से शुरू की। आयशा (रज़ि०) ने कहा कि या रसूलुल्लाह! आप ने क़सम खाई थी कि हमारे यहाँ एक महीने तक तशरीफ़ नहीं लाएँगे और अभी तो उन्तीस ही दिन गुज़रे हैं मैं तो एक-एक दिन गिन रही थी। नबी करीम (सल्ल०) ने फ़रमाया कि ये महीना उन्तीस का है। वो महीना उन्तीस ही का था। आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर अल्लाह तआला ने आयत (तख़यीर) नाज़िल की और नबी करीम (सल्ल०) अपनी तमाम बीवियों में सबसे पहले मेरे पास तशरीफ़ लाए (और मुझसे अल्लाह की वह्य का ज़िक्र किया) तो मैंने नबी करीम (सल्ल०) को ही पसन्द किया। उसके बाद नबी करीम (सल्ल०) ने अपनी तमाम दूसरी बीवियों को इख़्तियार दिया और सबने वही कहा जो आयशा (रज़ि०) कह चुकी थीं।
Sahih Bukhari:5191
मैं कई मुहाजिरीन को (क़ुरआन) पढ़ाया करता था। अब्दुर-रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) भी उनमें से एक थे। अभी मैं मिना में उनके मकान पर था और वो उमर (रज़ि०) के आख़िरी हज में (सन 23 हिजरी) उनके साथ थे कि वो मेरे पास लौटकर आए और कहा कि काश तुम उस शख़्स को देखते जो आज अमीरुल-मोमिनीन के पास आया। था! उसने कहा कि ऐ अमीरुल-मोमिनीन! क्या आप फ़ुलाँ साहिब से ये पूछ गच्छ करेंगे जो ये कहते हैं कि अगर उमर का इंतिक़ाल हो गया तो मैं फुलाँ साहिब तलहा-बिन-उबैदुल्लाह से बैअत करूँगा। क्योंकि अल्लाह की क़सम! अबू-बक्र (रज़ि०) की बग़ैर सोचे-समझे बैअत तो अचानक हो गई और फिर वो मुकम्मल हो गई थी। इसपर उमर (रज़ि०) बहुत ग़ुस्सा हुए और कहा: मैं इन शाअल्लाह शाम के वक़्त लोगों से ख़िताब करूँगा और उन्हें उन लोगों से डराऊँगा जो ज़बरदस्ती इस मामले में दख़लन्दाज़ी करना चाहते हैं। अब्दुर-रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) ने कहा कि इसपर मैंने कहा: ऐ अमीरुल-मोमिनीन! ऐसा न कीजिये। हज के मौसम में कमसमझी और बुरे-भले हर ही क़िस्म के लोग जमा हैं और जब आप ख़िताब के लिये खड़े होंगे तो आपके क़रीब यही लोग ज़्यादा होंगे और मुझे डर है कि आप खड़े होकर कोई बात कहें और वो चारों तरफ़ फैल जाए लेकिन फैलानेवाले उसे सही तौर पर याद न रख सकेंगे और उसके ग़लत मआनी फैलाने लगेंगे इसलिये मदीना पहुँचने तक का इन्तिज़ार कर लीजिये क्योंकि वो हिजरत और सुन्नत का मक़ाम है। वहाँ आपको ख़ालिस दीनी समझ-बूझ रखनेवाले और शरीफ़ लोग मिलेंगे। वहाँ आप जो कुछ कहना चाहते हैं भरोसे के साथ ही फ़रमा सकेंगे और इल्मवाले आपकी बातों को याद भी रखेंगे और जो सही मतलब है वही बयान करेंगे। उमर (रज़ि०) ने कहा: हाँ अच्छा अल्लाह की क़सम! मैं मदीना पहुँचते ही सबसे पहले लोगों को इसी मज़मून का ख़ुतबा दूँगा। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने बयान किया कि फिर हम ज़िल-हिज्जा के महीने के आख़िर में मदीना पहुँचे। जुमे के दिन सूरज ढलते ही हमने (मस्जिदे-नबवी) पहुँचने में जल्दी की और मैंने देखा कि सईद-बिन-ज़ैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ैल मिम्बर की जड़ के पास बैठे हुए थे। मैं भी उनके पास बैठ गया। मेरा टख़ना उनके टख़ने से लगा हुआ था। थोड़ी ही देर में उमर (रज़ि०) भी बाहर निकले। जब मैंने उन्हें आते देखा तो सईद-बिन-ज़ैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ैल (रज़ि०) से मैंने कहा कि आज उमर (रज़ि०) ऐसी बात कहेंगे जो उन्होंने इससे पहले ख़लीफ़ा बनाए जाने के बाद कभी नहीं कही थी। लेकिन उन्होंने उसको न माना और कहा कि मैं तो नहीं समझता कि आप कोई ऐसी बात कहेंगे जो पहले कभी नहीं कही थी। फिर उमर (रज़ि०) मिम्बर पर बैठे और जब मुअज़्ज़िन अज़ान देकर ख़ामोश हुआ तो आप खड़े हुए और अल्लाह की तारीफ़, उसकी शान के मुताबिक़ बयान करने के बाद फ़रमाया: आज मैं तुमसे एक ऐसी बात कहूँगा जिसका कहना मेरी तक़दीर में लिखा हुआ था। मुझको नहीं मालूम कि शायद मेरी ये बातचीत मौत के क़रीब की आख़िरी बातचीत हो। इसलिये जो कोई उसे समझे और महफ़ूज़ रखे उसे चाहिये कि इस बात को उस जगह तक पहुँचा दे जहाँ तक उसकी सवारी उसे ले जा सकती है और जिसे ख़ौफ़ हो कि उसने बात नहीं समझी है तो उसके लिये जाइज़ नहीं है कि मेरी तरफ़ ग़लत बात मंसूब करे। बेशक अल्लाह ने मुहम्मद (सल्ल०) को हक़ के साथ भेजा और आपपर किताब नाज़िल की किताबुल्लाह की सूरत में। जो कुछ आपपर नाज़िल हुआ उनमें आयते-रज्म (संगसार) भी थी। हमने उसे पढ़ा था, समझा था और याद रखा था। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने ख़ुद (अपने ज़माने में) रज्म (संगसार) कराया। फिर आपके बाद हमने भी रज्म (संगसार) किया लेकिन मुझे डर है कि अगर वक़्त इस तरह ही आगे बढ़ता रहा तो कहीं कोई ये न दावा कर बैठे कि रज्म (संगसार) की आयत हम किताबुल्लाह में नहीं पाते और इस तरह वो उस फ़रीज़े को छोड़कर गुमराह हों जिसे अल्लाह ने नाज़िल किया था। यक़ीनन रज्म (संगसार) का हुक्म अल्लाह की किताब से उस शख़्स के लिये साबित है जिसने शादी होने के बाद ज़िना किया हो। चाहे मर्द हों या औरतें बशर्ते कि शहादत मुकम्मल हो जाए या हमल ज़ाहिर हो या वो ख़ुद इक़रार कर ले। फिर अल्ला की किताब की आयतों में हम ये भी पढ़ते थे कि अपने हक़ीक़ी बाप-दादों के सिवा दूसरों की तरफ़ अपने-आपको मंसूब न करो। क्योंकि ये तुम्हारा कुफ़्र और इनकार है कि तुम अपने अस्ल बाप-दादों के सिवा दूसरों की तरफ़ अपनी निस्बत करो। हाँ और सुन लो कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने ये भी फ़रमाया था कि मेरी तारीफ़ हद से बढ़ाकर न करना जिस तरह ईसा-बिन-मरयम (अलैहि०) की हद से बढ़ाकर तारीफ़ें की गईं (उनको अल्लाह का बेटा बना दिया गया) बल्कि (मेरे लिये सिर्फ़ ये कहो कि) मैं अल्लाह का बन्दा और उसका रसूल हूँ और मुझे ये भी मालूम हुआ है कि तुममें से किसी ने इस तरह कहा है कि अल्लाह की क़सम! अगर उमर का इंतिक़ाल हो गया तो मैं फ़ुलाँ से बैअत करूँगा। देखो तुममें से किसी को ये धोखा न हो कि अबू-बक्र (रज़ि०) की बैअत नागाह हुई और अल्लाह ने नागहानी बैअत में जो बुराई हुई है उससे तुमको बचाए रखा। उसकी वजह ये हुई कि तुमको अल्लाह ने उसके शर से महफ़ूज़ रखा और तुममें कोई शख़्स ऐसा नहीं जो अबू-बक्र (रज़ि०) जैसा मुत्तक़ी ख़ुदा तरस हो। तुममें कौन है जिससे मिलने के लिये ऊँट चलाए जाते हों। देखो ख़याल रखो कोई शख़्स किसी से बग़ैर मुसलमानों के सलाह मशवरा (इत्तिफ़ाक़ और कसरते-राय) के बग़ैर बैअत न करे। जो कोई ऐसा करेगा उसका नतीजा यही होगा कि बैअत करनेवाला और बैअत लेनेवाला दोनों अपनी जान गँवा देंगे। और सुन लो बेशक जिस वक़्त नबी (सल्ल०) की वफ़ात हुई तो अबू-बक्र (रज़ि०) हम सबसे बेहतर थे। अलबत्ता अंसार ने हमारी मुख़ालफ़त की थी और वो सब लोग सक़ीफ़ा बनी-साइदा में जमा हो गए थे। इसी तरह अली और ज़ुबैर (रज़ि०) और उनके साथियों ने भी हमारी मुख़ालफ़त की थी और बाक़ी मुहाजिरीन अबू-बक्र (रज़ि०) के पास जमा हो गए थे। उस वक़्त मैंने अबू-बक्र (रज़ि०) से कहा: ऐ अबू-बक्र! हमें अपने उन अंसारी भाइयों के पास ले चलिये। चुनांचे हम उनसे मुलाक़ात के इरादे से चल पड़े। जब हम उनके क़रीब पहुँचे तो हमारी उन्हीं के दो नेक लोगों से मुलाक़ात हुई और उन्होंने हमसे बयान किया कि अंसारी आदमियों ने ये फ़ैसला किया है कि (सअद-बिन-उबादा को ख़लीफ़ा बनाएँ) और उन्होंने पूछा: हज़रात मुहाजिरीन! आप लोग कहाँ जा रहे हैं? हमने कहा कि हम अपने उन अंसारी भाइयों के पास जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आप लोग हरगिज़ वहाँ न जाएँ बल्कि ख़ुद जो करना है कर डालें। लेकिन मैंने कहा कि ख़ुदा की क़सम! हम ज़रूर जाएँगे। चुनांचे हम आगे बढ़े और अंसार के पास सक़ीफ़ा बनी-साइदा में पहुँचे, मजलिस में एक साहिब (सरदार ख़ज़रज) चादर अपने सारे जिस्म पर लपेटे बीच में बैठे थे। मैंने पूछा कि ये कौन साहिब हैं तो लोगों ने बताया कि सअद-बिन-उबादा (रज़ि०) हैं। मैंने पूछा कि उन्हें क्या हो गया है? लोगों ने बताया कि बुख़ार आ रहा है। फिर हमारे थोड़ी देर तक बैठने के बाद उनके ख़तीब ने कलिमा-ए-शहादत पढ़ा और अल्लाह की उसकी शान के मुताबिक़ तारीफ़ की। फिर कहा: हम अल्लाह के दीन के मददगार (अंसार) और इस्लाम के लशकर हैं और तुम ऐ गरोह मुहाजिरीन! कम तादाद में हो। तुम्हारी ये थोड़ी-सी तादाद अपनी क़ौम क़ुरैश से निकलकर हम लोगों में आ रहे हो। तुम लोग ये चाहते हो कि हमारी जड़ उखाड़ दो और हमको ख़िलाफ़त से महरूम करके आप ख़लीफ़ा बन बैठो, ये कभी नहीं हो सकता। जब वो ख़ुतबा पूरा कर चुके तो मैंने बोलना चाहा। मैंने एक उम्दा तक़रीर अपने ज़हन में तरतीब दे रखी थी। मेरी बड़ी ख़ाहिश थी कि अबू-बक्र (रज़ि०) के बात करने से पहले ही में उसको शुरू कर दूँ और अंसार की तक़रीर से जो अबू-बक्र (रज़ि०) को ग़ुस्सा पैदा हुआ है उसको दूर कर दूँ। जब मैंने बात करनी चाही तो अबू-बक्र (रज़ि०) ने कहा: ज़रा ठहरो! मैंने उनको नाराज़ करना बुरा जाना। आख़िर उन्होंने ही तक़रीर शुरू की और अल्लाह की क़सम! वो मुझसे ज़्यादा अक़्लमन्द और मुझसे ज़्यादा संजीदा और मतीन थे। मैंने जो तक़रीर अपने दिल में सोच ली थी उसमें से उन्होंने कोई बात नहीं छोड़ी। बिना देर किये वही कही बल्कि उससे भी बेहतर। फिर वो ख़ामोश हो गए। अबू-बक्र (रज़ि०) की तक़रीर का ख़ुलासा ये था कि अंसारी भाइयो! तुमने जो अपनी फ़ज़ीलत और बुज़ुर्गी (पाकी) बयान की है वो सब सही है और तुम बेशक उसके लिये क़ाबिल हो मगर ख़िलाफ़त क़ुरैश के सिवा और किसी ख़ानदानवालों के लिये नहीं हो सकती। क्योंकि क़ुरैश नसब और ख़ानदान के लिहाज़ से तमाम अरब क़ौमों में बढ़-चढ़कर हैं। अब तुम लोग ऐसा करो कि इन दो आदमियों में से किसी से बैअत कर लो। अबू-बक्र (रज़ि०) ने मेरा और अबू-उबैदा-बिन-जर्राह का हाथ थामा। वो हमारे बीच में बैठे हुए थे। उन सारी बातचीत में सिर्फ़ यही एक बात मुझसे मेरे सिवा हुई। अल्लाह की क़सम! मैं आगे कर दिया जाता और बेगुनाह मेरी गर्दन मार दी जाती तो ये मुझे उससे ज़्यादा पसन्द था कि मुझे एक ऐसी क़ौम का अमीर बनाया जाता जिसमें अबू-बक्र (रज़ि०) ख़ुद मौजूद हों। मेरा अब तक यही ख़याल है ये और बात है कि वक़्त पर नफ़्स मुझे बहका दे और मैं कोई दूसरा ख़याल करूँ जो अब नहीं करना। फिर अंसार में से एक कहनेवाला हुबाब-बिन-मुन्ज़िर इस तरह कहने लगा: सुनो! सुनो! मैं एक लकड़ी हूँ कि जिससे ऊँट अपना बदन रगड़कर खुजली की तकलीफ़ दूर करते हैं और मैं वो बाड़ हूँ जो पेड़ों के आसपास हिफ़ाज़त के लिये लगाई जाती है। मैं एक उम्दा तदबीर बताता हूँ। ऐसा करो दो ख़लीफ़ा रहें (दोनों मिलकर काम करें)। एक हमारी क़ौम का और एक क़ुरैशवालों का। मुहाजिरीन क़ौम में अब ख़ूब शोरग़ुल होने लगा। कोई कुछ कहता, कोई कुछ कहता। मैं डर गया कि कहीं मुसलमानों में फूट न पड़ जाए। आख़िर मैं कह उठा: अबू-बक्र! अपना हाथ बढ़ाओ। उन्होंने हाथ बढ़ाया। मैंने उनसे बैअत की और मुहाजिरीन जितने वहाँ मौजूद थे उन्होंने भी बैअत कर ली। फिर अंसारियों ने भी बैअत कर ली (चलो झगड़ा तमाम हुआ जो मंज़ूर इलाही था वही ज़ाहिर हुआ)। उसके बाद हम सअद-बिन-उबादा की तरफ़ बढ़े (उन्होंने बैअत नहीं की)। एक शख़्स अंसार में से कहने लगा: भाइयो! बेचारे सअद-बिन-उबादा का तुमने ख़ून कर डाला। मैंने कहा: अल्लाह उसका ख़ून करेगा। उमर (रज़ि०) ने इस ख़ुत्बे में ये भी फ़रमाया: उस वक़्त हमको अबू-बक्र (रज़ि०) की ख़िलाफ़त से ज़्यादा कोई चीज़ ज़रूरी मालूम नहीं होती क्योंकि हमको डर पैदा हुआ कहीं ऐसा न हो हम लोगों से जुदा रहें और अभी उन्होंने किसी से बैअत न की हो वो किसी और शख़्स से बैअत कर बैठें। तब दो सूरतों से ख़ाली नहीं होता या तो हम भी ज़ोर-ज़बरदस्ती उसी से बैअत कर लेते या लोगों की मुख़ालफ़त करते तो आपस में फ़साद पैदा होता (फूट पड़ जाती)। देखो फिर यही कहता हूँ जो शख़्स किसी से बिन सोचे-समझे, बिन सलाह और मशवरा बैअत कर ले तो दूसरे लोग बैअत करनेवाले की पैरवी न करें, न उसकी जिससे बैअत की गई है क्योंकि वो दोनों अपनी जान गंवाएँगे।
Sahih Bukhari:6830
बिश्र-बिन-हकम से रिवायत है, वो कहते हैं मैंने सुना है कि यहया-बिन-सईद क़त्तान ने हकीम-बिन-जुबैर और अब्दुल-आला को ज़ईफ़ क़रार दिया है। और (उसी तरह) उन्होंने मूसा-बिन-दीनार को भी ज़ईफ़ क़रार देते हुए कहा कि इसकी (बयान की हुई) हदीस बस हवा के जैसी है। (यानी उसकी कोई हैसियत ही नहीं है)। (फिर उन्होंने) मूसा-बिन-दह्क़ान और ईसा-बिन-अबू-ईसा मदनी को भी ज़ईफ़ क़रार दिया और कहा, "मैंने हसन-बिन-ईसा से सुना, वो कह रहे थे कि मुझसे इब्ने-मुबारक ने फ़रमाया कि तुम जब जरीर के पास पहुँचो तो उसका सारा इल्म लिख लेना सिवाय तीन रावियों, उबैदा-बिन-मोअतब, सिरी-बिन-इस्माइल और मुहम्मद-बिन-सालिम, के। (यानी इन तीन रावियों की हदीसें न लिखना) इमाम मुस्लिम (रह०) ने फ़रमाया कि जिस तरह ऊपर ज़िक्र किया गया अहले-इल्म के कलाम में ऐसा बहुत कुछ है। जिसमें हदीस रिवायत करनेवालों पर इलज़ाम लगाए गए और उनकी बयान की हुई हदीसों की कमियाँ बयान की गई हैं। अगर उन सब बातों को जमा किया जाए तो किताब लम्बी हो जाएगी। जो समझदार लोग हैं उन्हें मुहद्देसीन के तरीक़े को समझने के लिये बस उतना काफ़ी है। जितना हमने ज़िक्र कर दिया है। मैंने और हदीस के इमामों ने रावियों का ऐब खोल देना ज़रूरी समझा और इस बात का फ़तवा दिया, जब उन से पूछा गया। इसलिये कि ये बड़ा अहम काम है, क्योंकि दीन की बात जब नक़ल की जाएगी तो वो किसी बात के हलाल होने के लिये होगी या हराम होने के लिये या इस में किसी बात का हुक्म होगा या किसी बात की मनाही होगी या किसी काम की तरफ़ दिलचस्पी दिलाई जाएगी या किसी काम से डराया जाएगा। बहरहाल जब रावी सच्चा और अमानतदार न हो फिर उससे कोई रिवायत करे जो उसके हाल को जानता हो और वो हाल दूसरे से बयान न करे जो न जानता हो तो गुनाहगार होगा और आम मुसलमानों को धोखा देने वाला होगा। क्योंकि कुछ लोग उन्हीं हदीसों को सुनेंगे और उन पर या उनमें से कुछ पर अमल करेंगे, जबकि मुमकिन है। कि उनमें से अक्सर झूटी हों। या उनमें कुछ तो ऐसी भी होंगी जिन की कोई असल ही न हो। हालाँकि भरोसेमन्द लोगों की सही हदीसें, जिन की रिवायत को काफ़ी समझा जा सकता है, क्या कुछ कम हैं कि जो बे-भरोसा रावियों, जिन की रिवायत पर भरोसा नहीं किया जा सकता, की रिवायतों को लेने की ज़रूरत पड़े। और मैं समझता हूँ कि जिन लोगों ने इस क़िस्म की ज़ईफ़ हदीसें और नामालूम सनदें नक़ल की हैं और उनमें मसरूफ़ हैं और वो उनकी कमज़ोरी को भी जानते हैं तो उन की ग़रज़ ये है कि अवाम के नज़दीक अपना कसरते-इल्म साबित करें और इसलिये कि लोग कहें कि सुब्हानल्लाह! फ़ुलाँ शख़्स ने कितनी ज़्यादा हदीसें जमा की हैं। और जिस शख़्स की ये चाल है। और उसका ये तरीक़ा है। तो समझ लो उसको कुछ भी इल्मे- हदीस नहीं और वो आलिम कहलाने के मुक़ाबले जाहिल कहलाने के ज़्यादा क़ाबिल है। इमाम मुस्लिम (रह०) फ़रमाते हैं कि हमारे ज़माने में कुछ ऐसे लोगों ने जिन्होंने झूट-मूट अपने-आपको मुहद्दिस क़रार दिया है, सनदों की सेहत और कमज़ोरी में एक बात बयान की है। अगर हम बिल्कुल उसको नक़ल न करें और उसका रद्द न लिखें तो बेहतर मशवरा और ठीक रास्ता होगा। इसलिये कि ग़लत बात की तरफ़ तवज्जोह न करना उसको मिटाने के लिये और उसके कहने वाले का नाम खोदने के लिये बेहतर है। और मुनासिब है। जाहिलों के लिये ताकि उनको ख़बर भी नहीं हो उस ग़लत बात की मगर इस वजह से कि हम अंजाम की बुराई से डरते हैं और ये बात देखते हैं कि जाहिल नई बात पर आशिक़ हो जाते हैं और ग़लत बात पर जल्द यक़ीन कर लेते हैं जो आलिमों के नज़दीक नाक़ाबिले-भरोसा होती है। हम ने इस बात की ग़लती को बयान करना और उसको रद्द करना, उसका बिगाड़, रद्द और ख़राबियाँ ज़िक्र करना लोगों के लिये बेहतर और फ़ायदेमन्द जाना। और इस बात का अंजाम भी नेक होगा अगर शानवाला अल्लाह चाहे। और उस शख़्स ने जिसके क़ौल से हमने बातचीत शुरू की और जिसकी बात और ख़याल को हमने झूटा कहा, इस तरह गुमान किया है कि जो सनदें ऐसी हों जिसमें हो कि 'फ़ुलाँ ने फ़ुलाँ से बयान किया' और ये बात भी मालूम हो गई कि वो दोनों एक ज़माने में थे और मुमकिन भी हो कि ये हदीस एक ने दूसरे से सुनी हो और उससे मिला भी हो मगर हमको ये मालूम न हुआ कि उसने उससे सुना है। और न ही हम ने किसी रिवायत में इस बात की वज़ाहत पाई कि वो दोनों मिले थे और उनमें आमने-सामने बातचीत हुई थी तो ऐसी सनदों से जो हदीस रिवायत की जाए वो हुज्जत नहीं है। जब तक ये बात मालूम न हो कि कम से कम वो दोनों अपनी उम्र में एक बार मिले थे और एक ने दूसरे से बातचीत की थी। या ऐसी कोई हदीस रिवायत की जाए जिस में इस बात का बयान हो कि उन दोनों की मुलाक़ात एक या ज़्यादा बार हुई थी। अगर इस बात का इल्म न हो और न ही कोई हदीस ऐसी रिवायत की जाए जिससे मुलाक़ात और समअ (सुनना) साबित हो तो ऐसी हदीस नक़ल करना जिस से मुलाक़ात का इल्म न हो ऐसी हालत में हुज्जत नहीं है। और वो हदीस मौक़ूफ़ रहेगी, यहाँ तक कि उन दोनों का सुनना, थोड़ा या बहुत, दूसरी रिवायत से मालूम हो। और सनदों के सिलसिले में ये बात, "अल्लाह आप पर रहम करे।" एक नई खोज है जो पहले किसी ने नहीं की, न हदीस के आलिमों ने इसकी हिमायत की है। इसलिये कि मशहूर मज़हब जिस पर इत्तिफ़ाक़ है। अहले-इल्म का अगले और पिछलों का, वो ये है कि जब कोई भरोसेमन्द शख़्स किसी भरोसेमन्द शख़्स से रिवायत करे एक हदीस को और उन दोनों की मुलाक़ात जायज़ और मुमकिन हो (साल और उम्र के एतिबार से) इस वजह से कि वो दोनों एक ज़माने में मौजूद थे हालाँकि किसी हदीस में इस बात की वज़ाहत न हो कि वो दोनों मिले थे या उनमें आमने-सामने बात चीत हुई थी तो वो हदीस हुज्जत है। और वो रिवायत साबित है। अलबत्ता अगर इस बात की वहाँ कोई खुली दलील हो कि हक़ीक़त में ये रावी दूसरे रावी से नहीं मिला या उससे कुछ नहीं सुना तो वो हदीस हुज्जत न होगी, लेकिन जब तक ये बात मुबहम रहे (यानी बात गोल-मोल हो और न सुनने की कोई दलील मौजूद न हो और न कोई दलील न मिलने की हो) तो सिर्फ़ मुलाक़ात का मुमकिन होना काफ़ी होगा और उस रिवायत का गुमान सुनने पर किया जाएगा। फिर जिस शख़्स ने ये बात निकाली है या इसकी हिमायत करता है उससे इस तरह बातचीत करेंगे कि ख़ुद तेरे ही सारे कलाम से ये बात निकली कि एक भरोसेमन्द शख़्स की रिवायत दूसरे भरोसेमन्द शख़्स से हुज्जत है, जिस पर अमल करना वाजिब है। फिर तूने ख़ुद एक शर्त बाद में बढ़ा दी कि जब ये बात मालूम हो जाए कि वो दोनों अपनी उम्र में एक बार मिले थे या ज़्यादा बार और एक ने दूसरे से सुना था, तो अब इस शर्त का सुबूत किसी ऐसे शख़्स के क़ौल से पाना है जिसका मानना ज़रूरी हो।अगर ऐसा क़ौल नहीं है तो और कोई दलील अपने दावे पर लाना। अगर वो ये कहे कि इस सिलसिले में सुबूत के लिये बुज़ुर्गों का क़ौल मौजूद है, तो पूछा जाएगा कि कहाँ है? ला! फिर न उसको कोई क़ौल मिलेगा और न किसी और को। और अगर वो और कोई दलील क़ायम करना चाहे तो पूछेंगे वो दलील क्या है? फिर अगर वो शख़्स ये कहे कि मैंने ये मज़हब इसलिये इख़्तियार किया है कि मैंने हदीस के सभी अगले और पिछले रावियों को देखा कि एक दूसरे से हदीस रिवायत करते हैं हालाँकि इस एक ने दूसरे को देखा है न उससे सुना तो जब मैंने देखा कि उन्होंने मुरसल रिवायत बग़ैर सुने जायज़ रखा है। और मुरसल रिवायत हमारे और अहले-इल्म के नज़दीक हुज्जत नहीं है तो मुझे इस बात की ज़रूरत पेश आई कि ये देखा जाए कि रावी ने हदीस किस दूसरे रवी से सुनी है? फिर अगर ये साबित हो जाए कि इस ने किसी दूसरे (ऐसे) रावी से सुना है। (जिसकी रिवायात दुरुस्त हैं) तो इस की सभी रिवायतें दुरुस्त हो गईं। अगर बिल्कुल मुझे मालूम न हुआ कि इसने (किसी दूसरे सही रावी से) सुना है तो मैं रिवायत को मौक़ूफ़ रखूँगा और मेरे नज़दीक वो रिवायत हुज्जत नहीं होगी इसलिये कि मुमकिन है इसका मुरसल होना मुख़ालिफ़ की दलील हो। (अब इस का जवाब आगे ज़िक्र किया जाता है) तो उस से कहा जाएगा कि अगर तेरे नज़दीक हदीस को ज़ईफ़ करने की और इसको हुज्जत न समझने की वजह सिर्फ़ इसका मुरसल होना है। (जैसे उस ने ख़ुद कहा कि जब समअ (सुनना) साबित न हो तो वो रिवायत हुज्जत न होगी क्योंकि मुमकिन है कि वो मुरसल हो) तो लाज़िम आता है। कि तू किसी मुअनअन सनद को न माने, जब तक अव्वल से लेकर आख़िर तक इस में समअ की पूरी वज़ाहत न हो (यानी हर रावी दूसरे से इस तरह रिवायत करे कि मैंने उससे सुना) जैसे कि जो हदीस हम को हिशाम की रिवायत से पहुँची, उस ने रिवायत किया अपने बाप उरवा से, उन्होंने रिवायत किया सैयदा आयशा (रज़ि०) से। अब हम इस बात को ज़रूर जानते हैं कि सैयदा आयशा (रज़ि०) ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से सुना होगा, लेकिन इसके बावजूद इस बात का इमकान है कि अगर किसी रिवायत में हिशाम इस तरह न कहे कि मैंने उरवा से सुना है, या उरवा ने मुझे ख़बर दी (बल्कि सिर्फ़ ‘उरवा से’ कहे) तो हिशाम और उरवा के बीच में एक और शख़्स हो जिस ने उरवा से सुन कर हिशाम को ख़बर दी हो और ख़ुद हिशाम ने अपने बाप से इस रिवायत को न सुना हो, लेकिन हिशाम ने इसको मुरसलन (वो हदीस जिसमें ताबई से ऊपर रावी का नाम न मिलता हो) रिवायत करना चाहा और जिसके ज़रिए से सुना उसका ज़िक्र मुनासिब नहीं जाना। अब जिस तरह ये गुमान हिशाम और उरवा के बीच में है वैसे ही उरवा और सैयदा आयशा (रज़ी०) के बीच में हो सकता है। उसी तरह का मामला सनद के हर सिलसिले में है। जिसमें समअ की वज़ाहत न हो, भले ही ये बात मालूम हो जाए कि एक ने दूसरे से बहुत सी रिवायतें सुनी हैं। मगर ये हो सकता है कि कुछ रिवायतें उससे न सुनी हों बल्कि किसी और के ज़रिए से सुनकर उसको मुरसलन (वो हदीस जिसमें ताबई से ऊपर रावी का नाम न मिलता हो) नक़ल किया हो पर जिसके ज़रिए से सुना उस का नाम नहीं लिया और कभी इस आम सहमति को दूर करने के लिये उसका नाम भी ले दिया और उसके ‘मुर्सल’ होने को तर्क कर दिया। इमाम मुस्लिम (रह०) फ़रमाते हैं कि ये इमकान जो हम ने बयान किया (सिर्फ़ फ़र्ज़ी और ख़याली नहीं है। बल्कि) हदीस में मौजूद है और बहुत से भरोसेमन्द मुहद्दिसों की रिवायतों में जारी भी है। हम यहाँ कुछ ऐसी रिवायतें बयान करते हैं अल्लाह ने चाहा तो इनसे दलील पूरी होगी बहुत सी रिवायतों पर। पहली रिवायत वो है। जो अय्यूब सख़्तियानी और इब्ने-मुबारक और वकीअ और इब्ने-नुमैर और एक जमाअत ने सिवाए उनके हिशाम से नक़ल की, उस ने अपने बाप उरवा से, उसने सैयदा आयशा (रज़ि०) से कि मैं रसूलुल्लाह (सल्ल०) के एहराम खोलते और बाँधते वक़्त ख़ुशबू लगाती जो सब से उम्दा मुझको मिलती। अब इसी रिवायत को बिलकुल वैसे ही लैस-बिन-सअद और दाऊद अत्तार और हुमैद-बिन-असवद और वहैब-बिन-ख़ालिद और अबू-उसामा ने हिशाम से रिवायत की है। हिशाम ने कहा : ख़बर दी मुझ को उस्मान-बिन-उरवा ने, उस ने उरवा से, उस ने सैयदा आयशा (रज़ि०) से और उन्होंने नबी (सल्ल०) से। दूसरी रिवायत हिशाम की है, उन्होंने अपने बाप उरवा से, उस ने आयशा (रज़ि०) से रिवायत की कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) जब ऐतिकाफ़ में होते तो अपना सिर मेरी तरफ़ झुका देते। मैं आप के सिर में कंघी कर देती हालाँकि मैं हायज़ा होती। अब इसी रिवायत को बिलकुल वैसे ही इमाम मालिक (रह०) ने ज़ोहरी से रिवायत किया है, उस ने उरवा से,उस ने उमरा से,उस ने आयशा (रज़ि०) से और हज़रत आयशा ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से। तीसरी रिवायत वो है। जो ज़ोहरी और सालेह-बिन-अबी हस्सान ने अबू-सलमा से नक़ल की है, उसने सैयदा आयशा (रज़ि०) से कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) बोसा लेते थे और आप रोज़ादार होते। यहया-बिन-अबी कसीर ने बोसे की हदीस को इस तरह रिवायत किया कि ख़बर दी मुझे अबू-सलमा-बिन-अब्दुर-रहमान ने, उन को ख़बर दी उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ ने, उन को ख़बर दी उरवा ने, उनको आयशा सिद्दीक़ा (रज़ि०) ने कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) उनका बोसा लेते और आप रोज़ादार होते। चौथी रिवायत वो है। जो सुफ़ियान-बिन-उएना वग़ैरा ने अम्र-बिन-दीनार से रिवायत की, उन्होंने जाबिर (रज़ि०) से कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने हम को खिलाया घोड़ों का गोश्त और मना किया पालतू गधों के गोश्त से। इसी हदीस को रिवायत किया हम्माद-बिन-ज़ैद ने अम्र से, उन्होंने मुहम्मद-बिन-अली (यानी इमाम बाक़र) से, उन्होंने जाबिर से (तो हम्माद-बिन-ज़ैद ने अम्र-बिन-दीनार और जाबिर के बीच में एक वास्ता और नक़ल किया मुहम्मद-बिन-अली का जो पहली सनदों में नहीं है) और इसी तरह की हदीसें बहुत हैं जिनकी तादाद बहुत ज़्यादा है। और जितनी हमने बयान कीं वो समझने वालों के लिये काफ़ी हैं। फिर जब उस शख़्स के नज़दीक, जिसका क़ौल हमने ऊपर बयान किया, हदीस की ख़राबी और तौहीन की वजह ये है कि एक रावी का समअ (सुनना) जब दूसरे रावी से मालूम न हो तो उसका मुरसल होना मुमकिन है। अब उसके क़ौल के मुताबिक़ उसको तर्क करना लाज़िम हो जाता है। हुज्जत का तर्क करना उन रिवायतों के साथ जिन के रावी का सुनना दूसरे से मालूम हुआ हो (लेकिन ख़ास तौर से इस रिवायत में समअ (सुनना) की वज़ाहत नहीं है) अलबत्ता उस शख़्स के नज़दीक सिर्फ़ वही रिवायत हुज्जत होगी जिसमें समअ की वज़ाहत है। क्योंकि ऊपर हम बयान कर चुके हैं कि हदीस रिवायत करने वाले इमामों का हाल अलग-अलग होता है। कभी तो वो मुर्सल रिवायत करते हैं और जिससे उन्होंने सुना हो उसका नाम नहीं लेते और कभी ख़ुश होते और हदीस की पूरी असनाद जिस तरह से उन्होंने सुना है, बयान कर देते। फिर अगर ऊपर से नीचे की कोई चेन होती तो उस चेन को बताते इसी तरह नीचे से ऊपर की चेन को भी बताते जैसे की हम ऊपर साफ़ बयान कर चुके हैं। और हमने बुज़ुर्ग इमामों में से, जो हदीस को इस्तेमाल करते थे और सनदों की सेहत और कमज़ोरी को पूछा करते थे जैसे अय्यूब सख़्तियानी और इब्ने-औन और मालिक-बिन-अनस और शोबा-बिन-हुज्जाज और यहया-बिन-सईद क़त्तान और अब्दुर-रहमान-बिन-महदी और जो उन के बाद हैं, किसी को नहीं सुना कि वो सनदों में ‘समअ’ की तहक़ीक़ करते हों जैसे ये शख़्स दावा करता है। जिस का क़ौल ऊपर हमने बयान किया। अलबत्ता जिन्होंने उनमें से रावियों के ‘समअ’ की तहक़ीक़ की है तो वो उन रावियों के जो ख़ियानत में मशहूर हैं तदलीस में इस वक़्त बेशक ऐसे रावियों के ‘समअ’ से बहस करते हैं और उसकी पूछगच्छ करते हैं ताकि उनसे ख़ियानत का मर्ज़ दूर हो जाए। लेकिन ‘समअ’ की तहक़ीक़ उस रावी में जो मुदल्लिस (हदीस का वो रावी जो इस बात का ज़िक्र न करे कि उसने वो रिवायत किससे सुनी है) न हो जिस तरह इस शख़्स ने बयान किया तो ये हमने उन इमामों में से किसी इमाम से नहीं सुना जिन का ज़िक्र हमने किया और जिनका नहीं किया। इस क़िस्म की रिवायत में से अब्दुल्लाह-बिन-यज़ीद अंसारी (रज़ि०) की रिवायत है। (जो ख़ुद सहाबी हैं) जिन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) को देखा है। और हुज़ैफ़ा-बिन-अल-यमान और अबू-मसऊद (अक़बा-बिन-अम्र अंसारी बद्री) से हदीसें रिवायत की हैं। इन में हरेक की हदीसों की सनद रसूलुल्लाह (सल्ल०) तक पहुँचती है। मगर उन रिवायतों में इस बात की वज़ाहत नहीं है कि अब्दुल्लाह-बिन-यज़ीद ने उन दोनों (यानी हुज़ैफ़ा और अबू-मसऊद) से सुना और न किसी रिवायत में हमने ये बात पाई कि अब्दुल्लाह, हुज़ैफ़ा और अबू-मसऊद (रज़ि०) से आमने-सामने मिले और उनसे कोई हदीस सुनी। और न कहीं हमने ये पाया कि अब्दुल्लाह ने उन दोनों को देखा किसी ख़ालिस रिवायत में (मगर चूँकि अब्दुल्लाह ख़ुद सहाबी थे) और उम्र इतनी थी कि उनकी हुज़ैफ़ा (रज़ि०) और अबू-मसऊद (रज़ि०) से मुलाक़ात मुमकिन है। इस लिये ‘फ़ुलाँ से’ रिवायत का गुमान मुलाक़ात पर है। तो सिर्फ़ मुलाक़ात का इमकान काफ़ी हुआ। जैसे इमाम मुस्लिम का मसलक है। और किसी अहले-इल्म से नहीं सुना गया। न अगले लोगों से, और न उन से जिन से हम मिले हैं कि उन्होंने मलामत की हो उन दोनों हदीसों में जिन को अब्दुल्लाह ने हुज़ैफ़ा और अबी-मसऊद (रज़ि०) से रिवायत किया कि ये ज़ईफ़ हैं, बल्कि ये हदीसें और जो उन के जैसी हैं सही हदीसों में से हैं और उन इमामों के नज़दीक मज़बूत हैं जिन से हम मिले हैं और वो उनका इस्तेमाल जायज़ रखते हैं और उन से हुज्जत लेते हैं। हालाँकि यही हदीसें उस शख़्स के नज़दीक, जिसका क़ौल हमने ऊपर बयान किया (जो मुलाक़ात के सुबूत की शर्त लगाता है) बकवास और बेकार हैं जब तक अब्दुल्लाह का हुज़ैफ़ा और अबू-मसऊद से सुनना साबित न हो। और अगर हम सब ऐसी हदीसों को, जो अहले-इल्म के नज़दीक सही हैं और इस शख़्स के नज़दीक ज़ईफ़ हैं, बयान करें तो उनका ज़िक्र करते-करते हम थक जाएँगे। (यानी इतनी ज़्यादा हैं) लेकिन हम चाहते हैं कि थोड़ी उन में से बयान करें ताकि बाक़ी के लिये वो नमूना हों। अबू-उस्मान नह्दी (अब्दुर-रहमान-बिन-मिल जो एक सो तीस बरस के हो कर मरे) और अबू-राफ़ेअ साइग़ (नक़ीअ मदनी) उन दोनों ने जाहिलियत का ज़माना पाया है। (लेकिन रसूलुल्लाह (सल्ल०) की सोहबत नहीं मिली, ऐसे लोगों को मख़ज़रिम कहते हैं) और रसूलुल्लाह (सल्ल०) के बड़े-बड़े बद्री सहाबियों से मिले हैं और रिवायतें की हैं। फिर उन से हट कर और सहाबा से यहाँ तक कि अबू-हुरैरा और इब्ने-उमर और उन के जैसे सहाबियों में से हर एक ने एक हदीस उबई-बिन-कअब से रिवायत की है। और उन्होंने ने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से। हालाँकि किसी रिवायत से ये बात साबित नहीं हुई कि उन दोनों ने उबई-बिन-कअब को देखा या उन से कुछ सुना। और अबू-अम्र शैबानी (सअद-बिन-अयास) ने, जिसने जाहिलियत का ज़माना पाया है। और वो रसूलुल्लाह (सल्ल०) के ज़माने में जवान मर्द था। और अबू-मअमर अब्दुल्लाह-बिन-सख़बरा ने, यानी हर एक ने इनमें से दो-दो हदीसें अबू-मसऊद अंसारी से रिवायत कीं। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और उबैद-बिन-उमैर ने उम्मुल-मोमिनीन उम्मे-सलमा (रज़ि०) से एक हदीस रिवायत की। और उबैद पैदा हुए रसूलुल्लाह (सल्ल०) के ज़माने में। क़ैस-बिन-अबी हाज़िम ने, जिसने रसूलुल्लाह (सल्ल०) का ज़माना पाया है, अबू-मसऊद अंसारी से तीन हदीसें रिवायत कीं। और अब्दुर-रहमान-बिन-अबी लैला ने, जिसने सैयदना उमर (रज़ि०) से सुना है। और सैयदना अली (रज़ि०) की सोहबत में रहा, एक हदीस अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) से रिवायत की और रबई-बिन-हराश ने इमरान-बिन-हुसैन से दो हदीसें रिवायत कीं। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और अबू-बकरह से एक हदीस, उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और रबई ने सैयदना अली (रज़ि०) से सुना है। औरउन से रिवायत की है। और नाफ़ेअ-बिन-जुबैर-बिन-मुतइम ने अबू-शुरैह ख़ुज़ाई से एक हदीस रिवायत की। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और नौमान-बिन-अबी अयाश ने अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से तीन हदीसें रिवायत कीं। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और अता-बिन-यज़ीद लैसी ने तमीम दारी से एक हदीस रिवायत की। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और सुलेमान-बिन-यसार ने राफ़ेअ-बिन-ख़दीज से एक हदीस रिवायत की। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और उबैद-बिन-अब्दुर-रहमान हिमयरी ने अबू-हुरैरा (रज़ि०) से कई हदीसें रिवायत कीं। उन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से। फिर ये सब ताबेईन (रह०) जिन्होंने सहाबा (रज़ि०) से रिवायत की है। जिनका ज़िक्र हमने ऊपर किया, उन का ‘समाअ’ उन सहाबा (रज़ि०) से किसी तयशुदा रिवायत में मालूम नहीं हुआ। न मुलाक़ात ही उन सहाबा (रज़ि०) के साथ रिवायत से ज़ाहिर हुई। इस सबके बावजूद ये सब रिवायतें हदीस और रिवायत के पहचानने वालों के नज़दीक (यानी हदीस के इमामों के नज़दीक) सही सनद की हैं और हम नहीं जानते कि किसी ने इनमें से किसी रिवायत को ज़ईफ़ कहा हो या इस में ‘समअ’ की तलाश की हो। इसलिये कि ‘समअ’ मुमकिन है, इसका इनकार नहीं हो सकता। क्योंकि वो दोनों एक ज़माने में मौजूद थे और ये बात जिसको उस शख़्स ने निकाला है। जिसका बयान ऊपर हमने किया इस हदीस के ज़ईफ़ होने के लिये इस इल्लत की वजह से ज़िक्र हुई इस लायक़ भी नहीं कि इसकी तरफ़ तवज्जोह करें या इसका ज़िक्र भी करें। इसलिये कि ये क़ौल नया निकाला हुआ है और ग़लत और फ़ासिद है। कोई अहले-इल्म बुज़ुर्ग में से इसका क़ायल नहीं हुआ। और जो लोग उन बुज़ुर्गों के बाद गुज़रे उन्होंने इसका इनकार किया तो इससे इसके रद्द करने की ज़रूरत नहीं। जब इस बात की और इसके कहने वाले की ये क़द्र है जैसे बयान हुई और अल्लाह मदद करने वाला है इस बात को रद्द करने के लिये जो आलिमों के मज़हब के ख़िलाफ़ है। और उसी पर भरोसा है। यहाँ मुस्लिम का मुक़द्दमा ख़त्म होता है। और अब बयान शुरू होता है ईमान का जो सभी कामों की असल है। और जिस पर आख़िरत के दिन अज़ाब से नजात का दारोमदार है।
Sahih Muslim:92
इब्ने-शहाब ने हज़रत अनस -बिन-मालिक (रज़ि०) से रिवायत की। उन्होंने कहा : हज़रत अबू-ज़र (रज़ि०) बयान फ़रमाते हैं कि रसूलुल्लाह ﷺ ने बताया : "मैं मक्का में था तो मेरे घर की छत खोली गई, जिब्रील उतरे, मेरा सीना चाक किया, फिर उसे ज़मज़म के पानी से धोया, फिर सोने का थाल लाए जो हिकमत और ईमान से भरा हुआ था। उसे मेरे सीने में उंडेल दिया। फिर उसको जोड़ दिया, फिर मेरा हाथ पकड़ा और मुझे लेकर आसमान की तरफ़ बुलन्द हुए। जब हम सबसे निचले (पहले) आसमान पर पहुँचे तो जिब्राईल ने (इस) निचले आसमान के दरबान से कहा : दरवाज़ा खोलो। उसने पूछा : ये कौन हैं? कहा : ये जिब्रील (अलैहि०) है। पूछा : क्या तेरे साथ कोई है? कहा हाँ, मेरे साथ मुहम्मद ﷺ हैं। उसने पूछा : क्या उनको बुलाया गया है? कहा हाँ, फिर उसने दरवाज़ा खोला। आप ﷺ ने फ़रमाया : जब हम आसमाने-दुनिया पर पहुँचे तो देखा कि एक आदमी है उसके दाएँ तरफ़ भी बहुत सी मख़लूक़ है। और उसके बाएँ तरफ़ भी बहुत सी मख़लूक़ है। जब वो आदमी अपने दाएँ तरफ़ देखता है तो हँसता है। और अपने बाएँ तरफ़ देखता है तो रोता है। उसने कहा : स्वागत है! नेक नबी और नेक बेटे को। मैंने जिब्रील (अलैहि०) से कहा कि ये कौन हैं ? हज़रत जिब्रील (अलैहि०) ने कहा कि ये आदम (अलैहि०) हैं और उनके दाएँ तरफ़ जन्नती और बाएँ तरफ़ वाले दोज़ख़ी हैं इस लिये जब दाएँ तरफ़ देखते हैं तो हँसते हैं और बाएँ तरफ़ देखते हैं तो रोते हैं। फिर हज़रत जिब्रील (अलैहि०) मुझे दूसरे आसमान की तरफ़ ले गए और उसके पहरेदार से कहा : दरवाज़ा खोलो। उसके ख़ज़ान्ची ने भी पहले आसमान वाले की तरह बात की और दरवाज़ा खोल दिया। हज़रत अनस -बिन- मालिक फ़रमाते हैं : रसूलुल्लाह ﷺ ने बताया कि मुझे आसमानों पर आदम, इदरीस, मूसा और इब्राहीम (अलैहि०) मिले (इख़्तिसार से बताते हुए) उन्होंने (अबू-ज़र (रज़ि०)) ने ये बात साफ़ तौर से नहीं बताई कि उन की मंज़िलें कैसे थीं? अलबत्ता ये बताया कि आदम (अलैहि०) आप को पहले आसमान पर मिले और इब्राहीम (अलैहि०) छ्टे आसमान पर (ये किसी रावी का वहम है। हज़रत इब्राहीम (अलैहि०) से आप ﷺ की मुलाक़ात सातवें आसमान पर हुई, फ़रमाया : जब जिब्रील (अलैहि०) और रसूलुल्लाह ﷺ इदरीस (अलैहि०) के पास से गुज़रे तो उन्होंने कहा : सालेह नबी और सालेह भाई का ख़ुश-आमदीद है, फिर वो आगे चले तो मैंने पूछा : ये कौन हैं? तो (जिब्रील ने) कहा : ये इदरीस (अलैहि०) हैं, फिर मैं मूसा (अलैहि०) के पास से गुज़रा तो उन्होंने ने कहा : सालेह नबी और सालेह भाई का स्वागत। मैं ने पूछा : ये कौन हैं? उन्होंने कहा : ये मूसा (अलैहि०) हैं, फिर मैं ईसा (अलैहि०) के पास से गुज़रा। उन्होंने कहा : सालेह नबी और सालेह भाई का स्वागत है। मैं ने पूछा : ये कौन हैं? कहा : ईसा-बिन-मरयम हैं। आप ने फ़रमाया : फिर मैं इब्राहीम (अलैहि०) के पास से गुज़रा तो उन्होंने कहा : सालेह नबी और सालेह बेटे, मरहबा! मैं ने पूछा : ये कौन हैं? कहा : ये इब्राहीम (अलैहि०) हैं।” इब्ने- शहाब ने कहा : मुझे इब्ने- हज़म ने बताया कि इब्ने-अब्बास और अबू- हिबा अंसारी (रज़ि०) कहा करते थे कि रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : “फिर जिब्रील (अलैहि०) मुझे (और) ऊपर ले गए यहाँ तक कि कि मैं एक ऊँची जगह के सामने नमूदार हुआ, मैं उसके अन्दर से क़लमों की आवाज़ सुन रहा था।” इब्ने- हज़म और अनस -बिन-मालिक (रज़ि०) ने कहा : रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : “अल्लाह ने मेरी उम्मत पर पचास नमाज़ें फ़र्ज़ कीं, मैं ये (हुक्म) लेकर वापस हुआ यहाँ तक कि मूसा (अलैहि०) के पास से गुज़रा तो मूसा (अलैहि०) ने पूछा : आप के रब ने आप की उम्मत पर क्या फ़र्ज़ किया है? आप ने फ़रमाया : मैंने जवाब दिया : उन पर पचास नमाज़ें फ़र्ज़ की है। मूसा (अलैहि०) 3 ने मुझ से कहा : अपने रब की तरफ़ वापस जाएँ, क्योंकि आप की उम्मत इस की ताक़त नहीं रखेगी। फ़रमाया : इस पर मैंने अपने रब से रुजू क्या तो इस ने इस का एक हिस्सा मुझ से कम कर दिया। आपने फ़रमाया : मैं मूसा (अलैहि०) की तरफ़ वापस आया और उन्हें बताया कि अपने रब की तरफ़ वापस जाएँ क्योंकि आप की उम्मत इस की (भी) ताक़त नहीं रखेगी। आपने फ़रमाया : मैं ने अपने रब की तरफ़ वापस गया तो उसने फ़रमाया : ये पाँच हैं और यही पचास हैं, मेरे हाँ हुक्म बदला नहीं करता। आपने फ़रमाया : मैं लौटकर मूसा (अलैहि०) की तरफ़ आया तो उन्होंने कहा : अपने रब की तरफ़ वापस जाएँ तो मैं ने कहा : (बार बार सवाल करने पर) मैं अपने रब से शर्मिन्दा हुआ हूँ। आप ने फ़रमाया : फिर जिब्रील (अलैहि०) मुझे लेकर चले यहाँ तक कि हम सिदरतुल-मुन्तहा पर पहुँच गए तो उस को (ऐसे-ऐसे) रंगों ने ढाँप लिया कि मैं नहीं जानता वो क्या थे? फिर मुझे जन्नत के अन्दर ले जाया गया, इस में गुंबद मोतियों के थे और उसकी मिट्टी कस्तूरी थी।”
Sahih Muslim:415
सुलेमान-बिन-बिलाल ने कहा : मुझे यहया ने उबैद-बिन-हुनैन से ख़बर दी कि उन्होंने अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से सुना वो हदीस बयान कर रहे थे, उन्होंने कहा : मैंने साल भर इन्तिज़ार किया, मैं हज़रत उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) से एक आयत के बारे में पूछना चाहता था, मगर उनकी हैबत की वजह से उनसे सवाल करने की हिम्मत नहीं पाता था, यहाँ तक कि वो हज करने के लिये रवाना हुए, मैं भी उनके साथ निकला, जब लौटे तो हम रास्ते में किसी जगह थे कि वो ज़रूरत से फ़ारिग़ होने के लिये पीलू के पेड़ की तरफ़ चले गए, मैं उनके इन्तिज़ार में ठहर गया, यहाँ तक कि वो फ़ारिग़ हो गए, फिर मैं उन के साथ चल पड़ा, मैंने कहा कि अमीरुल-मोमिनीन! रसूलुल्लाह (सल्ल०) की बीवियों में से वो कौन सी दो औरतें थीं जिन्होंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) के ख़िलाफ़ एका कर लिया था? उन्होंने जवाब दिया : वो हफ़सा और आयशा (रज़ि०) थीं। मैंने कहा : अल्लाह की क़सम! मैं एक साल से इसके बारे में आपसे पूछना चाहता था। मगर आपके रौब की वजह से हिम्मत नहीं पाता था। उन्होंने कहा : ऐसा नहीं करना, जो बात भी तुम समझो कि मुझे इल्म है, उसके बारे में मुझसे पूछ लिया करो, अगर मैं जानता हूँगा तो तुम्हें बता दूँगा। कहा : और हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा : अल्लाह की क़सम! जब हम जाहिलियत के ज़माने में थे तो औरतों को किसी गिनती में नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अल्लाह ने उनके बारे में जो नाज़िल किया सो नाज़िल किया, और जो (बार) उन्हें देना था। सो दिया। उन्होंने कहा : एक बार मैं किसी मामले में लगा हुआ था, इसके मुताल्लिक़ सोच विचार कर रहा था कि मुझे मेरी बीवी ने कहा : अगर आप ऐसा ऐसा कर लें (तो बेहतर होगा।) मैंने उसे जवाब दिया : तुम्हें इससे क्या सरोकार? और यहाँ (इस मामले में) तुम्हें क्या दिलचस्पी है? और एक काम जो मैं करना चाहता हूँ उस में तुम्हारा तकल्लुफ़ (ज़बरदस्ती टाँग अड़ाना) कैसा? उसने मुझे जवाब दिया : इब्ने-ख़त्ताब! आप पर हैरत है! आप ये नहीं चाहते कि आपके आगे बात की जाए, जबकि आप की बेटी रसूलुल्लाह (सल्ल०) को ऐसे पलट कर जवाब देती है कि आप (सल्ल०) दिन भर उससे नाराज़ रहते है। हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा : मैं (उसी वक़्त) अपनी चादर पकड़ता हूँ और अपनी जगह से निकल खड़ा होता हूँ, यहाँ तक कि हफ़सा के पास पहुँचता हूँ। जा कर मैंने उससे कहा : बिटिया ! तुम रसूलुल्लाह (सल्ल०) को ऐसे जवाब देती हो कि वो सारा दिन नाराज़ रहते है। हफ़सा (रज़ि०) ने जवाब दिया : अल्लाह की क़सम! हम आप (सल्ल०) को जवाब दे लेती है। मैंने कहा : जान लो मैं तुम्हें अल्लाह की सज़ा और उसके रसूल (सल्ल०) की नाराज़ी से डरा रहा हूँ, मेरी बेटी! तुम्हें वो (आयशा (रज़ि०) अपने रवैये की वजह से) धोके में न डाल दे जिसे अपने हुस्न और रसूलुल्लाह (सल्ल०) की अपने से मुहब्बत पर नाज़ है। फिर मैं निकला यहाँ तक कि उम्मे-सलमा (रज़ि०) के यहाँ आया, क्योंकि मेरी उनसे क़राबतदारी थी। मैंने उन से बात की तो उम्मे-सलमा (रज़ि०) ने मुझे जवाब दिया : इब्ने-ख़त्ताब आप पर ताज्जुब है! आप हर काम में दख़ल अन्दाज़ी करते हो यहाँ तक कि आप चाहते हो कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) और उनकी बीवियों के बीच में भी दख़ल दो? उन्होंने मुझे इस तरह आड़े हाथों लिया कि जो (पक्का इरादा) मैं (दिल में) पा रहा था। (कि मैं रसूलुल्लाह (सल्ल०) की बीवियों को आपके सामने जवाब देने से रोक लूँगा) मुझे तोड़ कर इस से अलग कर दिया। चुनांचे मैं उनके यहाँ से निकल आया। मेरा एक अंसारी साथी था, जब मैं (आप की मजलिस से) ग़ैर हाज़िर होता तो वो मेरे पास (वहाँ की) ख़बर लाता और जब वो ग़ैर हाज़िर होता तो मैं उसके पास ख़बर ले आता। हम उस ज़माने में ग़स्सान के बादशाहों में से एक बादशाह से डर रहे थे। हमें बताया गया था कि वो हम पर चढ़ाई करना चाहते है। इस (की वजह) से हमारे सीने (अन्देशों से) भरे हुए थे। (अचानक एक दिन) मेरा अंसारी दोस्त आ कर दरवाज़ा खटखटाने लगा और कहने लगा : खोलो, खोलो! मैंने पूछा : ग़स्सानी आ गया है? उसने कहा : इस से भी ज़्यादा संगीन मामला है, रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने अपनी बीवियों से अलाहिदगी इख़्तियार कर ली है। मैंने कहा : हफ़सा और आयशा (रज़ि०) की नाक ख़ाक आलूद हो! फिर मैं अपने कपड़े लेकर निकल खड़ा हुआ, यहाँ तक कि (रसूलुल्लाह (सल्ल०) की ख़िदमत में) हाज़िर हुआ। रसूलुल्लाह (सल्ल०) अपनी ऊपर वाली मंज़िल में थे जिस पर सीढ़ी के ज़रिए चढ़ कर जाना होता था, और रसूलुल्लाह (सल्ल०) का एक काला ग़ुलाम सीढ़ी के सिरे पर बैठा हुआ था। मैंने कहा : ये उमर है। (ख़िदमत में हाज़िरी की इजाज़त चाहता है), तो मुझे इजाज़त दी गई हुई। उमर (रज़ि०) ने कहा : मैंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) के सामने ये सारी बात बयान की, जब मैं उम्मे-सलमा (रज़ि०) की बात पर पहुँचा तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) मुस्कुरा दिये। आप एक चटाई पर (लेटे हुए) थे, आप के (जिस्म मुबारक) और इस (चटाई) के बीच कुछ नहीं था। आप के सिर के नीचे चमड़े का एक तकिया था। जिस में खजूर की छाल भरी हुई थी। आप के पाँव के क़रीब कीकर की छाल का छोटा सा गट्ठा पड़ा था। और आप के सिर के क़रीब कुछ कच्चे चमड़े लटके हुए थे। मैंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) के पहलू पर चटाई के निशान देखे तो रो पड़ा। आपने पूछा : तुम्हें क्या रुला रहा है? कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! किसरा और क़ैसर दोनों (कुफ़्र के बावजूद) उस नाज़ और नेमत में हैं जिस में हैं और आप तो अल्लाह के रसूल हैं? तो रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया : क्या तुम्हें पसन्द नहीं कि उनके लिये (सिर्फ़) दुनिया हो और तुम्हारे लिये आख़िरत हो?
Sahih Muslim:3692
सैयदना इब्ने-अकवअ (रज़ि०) से रिवायत है, जब हम हुदैबिया में पहुँचे तो हम चौदह सो आदमी थे (यही मशहूर रिवायत है। और एक रिवायत में तेरह सो और एक रिवायत में पन्द्रह सो आए हैं) और वहाँ पचास बकरियाँ थीं जिनको कूँए का पानी सैर नहीं कर सकता था। (यानी ऐसा कम पानी था। कूँए में) फिर रसूलुल्लाह ﷺ कूँए की मेंढ़ पर बैठे तो आप ﷺ ने दुआ की या कूँए में थूका, वो उस वक़्त उबल आया। फिर हमने जानवरों को पानी पिलाया और ख़ुद भी पिया। उस के बाद नबी ﷺ ने हमको बैअत के लिये पेड़ की नीचे बुलाया (उसी पेड़ को शजरे-रिज़वान कहते हैं और उस पेड़ का ज़िक्र क़ुरआन की सूरा फ़तह आयत-10 में है।) मैं ने सबसे पहले लोगों में आप ﷺ से बैअत की। फिर आप ﷺ बैअत लेते रहे, लेते रहे, यहाँ तक कि आधे आदमी बैअत कर चुके। उस वक़्त आप ﷺ ने फ़रमाया : "ऐ सलमा बैअत कर। मैंने कहा या रसूल अल्लाह! मैं तो आप से पहले ही बैअत कर चुका। आप ﷺ ने फ़रमाया : "फिर से" और आप ﷺ ने मुझे निहत्ता (बे हथियार) देखा तो एक बड़ी सी ढाल या छोटी सी ढाल दी, फिर आप ﷺ बैअत लेने लगे, यहाँ तक कि लोग ख़त्म होने लगे, उस वक़्त आप ﷺ ने फ़रमाया : "ऐ सलमा! मुझसे बैअत नहीं करता।" मैंने कहा या रसूल-अल्लाह! मैं तो पहले लोगों के साथ ही आप की बैअत कर चुका; फिर बीच के लोगों के साथ भी कर चुका हूँ। आप ﷺ ने फ़रमाया : "फिर से कर लो" ग़रज़ मैंने तीसरी बार आप ﷺ से बैअत की। फिर आप ﷺ ने फ़रमाया : "ऐ सलमा! तेरी वो बड़ी ढाल या छोटी ढाल कहाँ है। जो मैंने तुझे दी थी।" मैंने कहा : या रसूल अल्लाह! मेरा चचा आमिर मुझे मिला, वो निहत्ता था। मैंने वो फिर उसको दे दी। ये सुन कर आप ﷺ ने फ़रमाया : "तेरी मिसाल उस अगले शख़्स की सी हुई जिसने दुआ की थी या अल्लाह! मुझे ऐसा दोस्त दे जिसको मैं अपनी जान से ज़्यादा चाहूँ।" फिर मुशरिकों ने सुलह के पयाम भेजे, यहाँ तक कि हर एक तरफ़ के आदमी दूसरी तरफ़ जाने लगे और हमने सुलह कर ली, सलमा ने कहा : मैं तलहा-बिन-उबैदुल्लाह की ख़िदमत में था, उनके घोड़े को पानी पिलाता, उनकी पीठ खुजाता, उनकी ख़िदमत करता, उन्ही के साथ खाना खाता और मैंने अपना घर-बार, धन-दौलत सब छोड़ दिया था, अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ हिजरत की, जब हमारी और मक्का वालों की सुलह हो गई और हम में हर एक-दूसरे से मिलने लगा तो मैं एक पेड़ के पास आया और उस के नीचे से काँटे झाड़े और जड़ के पास लेटा। इतने में चार आदमी मुशरिकों में से आए; मक्का वालों में से और लगे रसूलुल्लाह ﷺ को बुरा कहने। मुझे ग़ुस्सा आया, मैं दूसरे पेड़ के नीचे चला गया, उन्होंने अपने हथियार लटकाए और लेट रहे, वो उसी हाल में थे कि यकायक वादी के नीचे की तरफ़ से किसी ने आवाज़ दी, दौड़ो मुहाजरीन! इब्ने-ज़ुनैम (सहाबी) मारे गए। ये सुनते ही मैंने अपनी तलवार सूँती और उन चारों आदमियों पर हमला किया, वो सो रहे थे, उनके हथियार मैंने ले लिये और गट्ठा बना कर एक हाथ में रखे फिर मैंने कहा : क़सम उसकी जिसने इज़्ज़त दी मुहम्मद ﷺ के को, तुम में से जिसने सिर उठाया, मैं उसका सर उड़ा दूँगा। फिर मैं उनको खींचता हुआ रसूलुल्लाह ﷺ के पास लाया। और मेरे चचा आमिर भी अबलात (एक शाख़ है। क़ुरैश की) में से एक शख़्स को घोड़े पर खींचते हुए ले आए, जिस को मिकरज़ कहते थे, ये शख़्स सत्तर आदमियों मुशरिकों बीच ऐसे घोड़े पर सवार था। जिस पर ज़िरह पड़ी हुई थी। रसूलुल्लाह ﷺ ने देखा। फिर फ़रमाया : "छोड़ दो इनको। अहद तोड़ने की शुरुआत मुशरिकों की तरफ़ से ही होने दो।" (यानी हम अगर इन लोगों को मारें तो सुलह के बाद हमारी तरफ़ से अहद तोड़ने की शुरुआत होगी, और ये मुनासिब नहीं। अहद तोड़ने की पहल अगर काफ़िरों की तरफ़ से हो और वो भी एक बार नहीं, दो बार; तब हमारे लिये बदला लेना बुरा नहीं) आख़िर रसूलुल्लाह ﷺ ने उन लोगों को माफ़ कर दिया। तब अल्लाह ने ये आयत उतारी (وَهُوَ الَّذِي كَفَّ أَيْدِيَهُمْ عَنكُمْ وَأَيْدِيَكُمْ عَنْهُم بِبَطْنِ مَكَّةَ مِن بَعْدِ أَنْ أَظْفَرَكُمْ عَلَيْهِمْ ( ۴۸ / الفتح : ۲۴ ) ) अख़ीर तक। यानी उस अल्लाह ने उनके हाथों को रोका तुमसे और तुम्हारे हाथों को रोका उनसे मक्का की सरहद में जब फ़तह दे चुका था। तुमको उन पर। फिर हम मदीना को लौटे, रास्ते में एक मंज़िल पर उतरे, जहाँ हमारे और बनी-लह्यान के मुशरिकों के बीच में एक पहाड़ था। रसूलुल्लाह ﷺ ने दुआ की उस शख़्स के लिये जो उस पहाड़ पर चढ़ जाए रात को और पहरा दे, आप का और आप के साथियों का। सलमा ने कहा : मैं रात को उस पहाड़ पर दो या तीन बार चढ़ा (और पहरा देता रहा), फिर हम मदीना में पहुँचे तो रसूलुल्लाह ﷺ ने अपनी ऊँटनियाँ अपने रिबाह ग़ुलाम को दीं और मैं भी उस के साथ था, तलहा का घोड़ा लिये हुए चारागाह में पहुँचाने के लिये उन ऊँटनियों के साथ। जब सुबह हुई तो अब्दुर-रहमान फ़ज़ारी ( मुशरिक ) ने आप ﷺ की ऊँटनियों को लूट लिया और सब को हाँक ले गया और चरवाहे को मार डाला। मैंने कहा : ऐ रिबाह! तू ये घोड़ा ले और तलहा के पास पहुँचा दे और रसूलुल्लाह ﷺ को ख़बर कर कि काफ़िरों ने आप की ऊँटनियाँ लूट लीं; फिर मैं एक टीले पर खड़ा हुआ और मदीना की तरफ़ मुँह कर के मैंने तीन बार आवाज़ दी! उसके बाद मैं उन लुटेरों के पीछे रवाना हुआ तीर मारता हुआ और हौसला बढ़ानेवाला कलाम पढ़ता हुआ कि "मैं अकवअ का बेटा हूँ और आज कमीनों की तबाही का दिन है।" फिर मैं किसी के क़रीब होता और एक तीर उसकी काठी में मारता जो उसके काँधे तक पहुँच जाता (काठी को चीर कर) और कहता ये ले और मैं अकवअ का बेटा हूँ और आज कमीनों की तबाही का दिन है, फिर क़सम अल्लाह की मैं बराबर तीर मारता रहा और ज़ख़्मी करता रहा, जब उन में से कोई सवार मेरी तरफ़ लौटता तो मैं पेड़ के तले आ कर उसकी जड़ में बैठ जाता और एक तीर मारता वो सवार ज़ख़्मी हो जाता यहाँ तक कि वो पहाड़ के तंग रास्ते में घुसे और मैं पहाड़ पर चढ़ गया। और वहाँ से पत्थर मारना शुरू किये और बराबर उनका पीछा करता रहा यहाँ तक कि कोई ऊँट जिसको अल्लाह ने पैदा किया था। और वो रसूलुल्लाह ﷺ की सवारी का था। न बचा जो मेरे पीछे न रह गया और लुटेरों ने उसको न छोड़ दिया हो (तो सब ऊँट सैयदना सलमा-बिन अकवअ (रज़ि०) ने उन से छीन लिये) सलमा ने कहा : फिर मैं उनके पीछे चला, तीर मारता हुआ यहाँ तक कि तीस चादरों में से ज़्यादा और तीस भालों से ज़्यादा उनसे छीने वो अपने तईं हलका करते थे। (भागने के लिये) और जो चीज़ वो फेंकते मैं उस पर एक निशान रख देता पत्थर का ताकि रसूलुल्लाह ﷺ और आप ﷺ के साथी उसको पहचान लें (कि ये ग़नीमत का माल है। और उस को ले लें) यहाँ तक कि वो एक तंग घाटी में आए और वहाँ उनको बद्र फ़ज़ारी का बेटा मिला, वो सब बैठे सुबह का नाश्ता करने लगे और मैं एक छोटी टीकरी की चोटी पर बैठा। फ़ज़ारी ने कहा : ये कौन शख़्स है। वो बोले इस शख़्स ने हमको तंग कर दिया। क़सम अल्लाह की अँधेरी रात से हमारे साथ है। बराबर तीर मारे जाता है। यहाँ तक कि जो कुछ हमारे पास था। सब छीन लिया। फ़ज़ारी ने कहा : तुम में से चार आदमी इसको जा कर मार लें। ये सुन कर चार आदमी मेरी तरफ़ चढ़े पहाड़ पर जब वो इतने दूर आ गए कि मेरी बात सुन सकें तो मैंने कहा : तुम मुझे जानते हो। उन्होंने कहा : नहीं, मैंने कहा : मैं सलमा हूँ, अकवअ का बेटा (अकवअ इनके दादा थे लेकिन दादा की तरफ़ अपने को मंसूब करने की वजह से इनकी शोहरत थी और सलमा के बाप का नाम अम्र था। और आमिर उन के चचा थे क्यों कि वो अकवअ के बेटे थे) क़सम उस ज़ात की जिसने बुज़ुर्गी दी मुहम्मद ﷺ को मैं आप में से जिसको चाहूँगा तीर से मार डालूँगा और आप में से कोई मुझे नहीं मार सकता, उन में एक शख़्स बोला। ये ऐसा ही मालूम होता है, फिर वो सब लौटे। मैं वहाँ से नहीं चला था कि रसूलुल्लाह ﷺ के सवार नज़र आए जो पेड़ों में घुस रहे थे। सबसे आगे अख़रम असदी थे, उनके पीछे अबू-क़तादा उनके पीछे मिक़दाद-बिन-असवद किन्दी। मैंने अख़रम के घोड़े की बाग थाम ली, ये देख कर वो लुटेरे भागे। मैंने कहा : ऐ अख़रम तुम उनसे बचे रहना, ऐसा न हो कि ये आप को मार डालें, जब तक रसूलुल्लाह ﷺ और आप ﷺ के साथी न आ जाएँ। उन्होंने कहा : ऐ सलमा ! अगर तुझको यक़ीन है। अल्लाह का और आख़िरत के दिन का और तू जानता है कि जन्नत सच है। और जहन्नम सच है। तो मत रोक मुझको गवाही से, (यानी बहुत होगा तो यही कि मैं उन लोगों के हाथ शहीद होंगा इस से क्या बेहतर है) मैंने उनको छोड़ दिया, उनका मुक़ाबला हुआ अब्दुर-रहमान फ़ज़ारी से, अख़रम ने उसके घोड़े को ज़ख़्मी किया और अब्दुर-रहमान ने बरछी से अख़रम को शहीद किया और के घोड़े पर चढ़ बैठा, इतने मैं सैयदना अबू-क़तादा रसूलुल्लाह ﷺ के शहसवार आन पहुँचे और उन्होंने अब्दुर-रहमान को बरछी मार कर क़त्ल किया तो क़सम उस की जिसने बुज़ुर्गी दी मुहम्मद ﷺ को मैं उन का पीछा किये गया, मैं अपने पाँव से ऐसा दौड़ रहा था कि मुझे अपने पीछे आपका कोई सहाबी नहीं दिखलाई दिया न उनका ग़ुबार, यहाँ तक कि वो लुटेरे सूरज डूबने से पहले एक घाटी में पहुँचे जहाँ पानी था। और उसका नाम ज़ी-क़रद था, वो उतरे पानी पीने को कि वो प्यासे थे, फिर मुझे देखा, मैं उन के पीछे दौड़ता चला आता था। आख़िर मैंने उनको पानी पर से हटा दिया। वो एक बूँद भी न पी सके। अब वो दौड़ते चले किसी घाटी की तरफ़। मैं भी दौड़ा और उन में से किसी को पाकर एक तीर लगा दिया उसके कन्धे की हड्डी में। और मैंने कहा : ले इसको और मैं बेटा हूँ अकवअ का और ये दिन कमीनों की तबाही का है। वो बोला (अल्लाह करे अकवअ का बेटा मरे और) उसकी माँ उस पर रोए। क्या वही अकवअ है। जो सुबह को मेरे साथ था। मैंने कहा : हाँ ऐ अपनी जान के दुश्मन वही अकवअ है। जो सुबह को तेरे साथ था। सलमा-बिन अकवअ ने कहा : उन लुटेरों के दो घोड़े गुम हो गए (दौड़ते दौड़ते ) उन्होंने उनको छोड़ दिया एक घाटी में, मैं उन घोड़ों को खींचता हुआ रसूलुल्लाह ﷺ के पास लाया। वहाँ मुझ को आमिर मिले एक छागल दूध की और एक छागल पानी की लिये हुए, मैंने वुज़ू किया और दूध पिया; फिर रसूलुल्लाह ﷺ के पास आया आप ﷺ उस चश्मे (पानी के स्रोत) पर थे जहाँ से मैंने लुटेरों को भगाया था। मैंने देखा कि आप ﷺ ने सब ऊँट ले लिये हैं और सब चीज़ें जो मैंने मुशरिकों से छीनी थीं सब बरछी और चादरें और सैयदना बिलाल (रज़ि०) ने उन ऊँटों में से जो मैंने छीनी थी एक ऊँट नहर क्या और वो रसूलुल्लाह ﷺ के लिये इस की कलेजी और कोहान भून रहे हैं। मैंने कहा : या रसूल-अल्लाह! मुझ को लशकर में से सो आदमी चुन लेने की इजाज़त दीजिये। फिर मैं लुटेरों का पीछा करता हूँ और उन में से कोई शख़्स बाक़ी नहीं रहे जो ख़बर दे अपनी क़ौम को जा कर (यानी सब को मार डालूँगा)। ये सुन कर आप ﷺ हँसने लगे, यहाँ तक दाढ़ें आप ﷺ की खुल गईं। आप ﷺ ने फ़रमाया : "ऐ सलमा! तू ये कर सकता है। "मैंने कहा : हाँ! क़सम उसकी जिसने आपको बुज़ुर्गी दी। आप ﷺ ने फ़रमाया : "वो तो अब ग़तफ़ान की सरहद में पहुँच गए वहाँ उनकी मेहमानी हो रही है।" इतने में एक शख़्स आया ग़तफ़ान में से, वो बोला : फ़ुलाँ शख़्स ने उनके लिये एक ऊँट काटा था। वो उसकी खाल निकाल रहे थे। इतने में उनको धूल मालूम हुई। वो कहने लगे लोग आ गए, तो वहाँ से भी भाग खड़े हुए। जब सुबह हुई तो आप ﷺ ने फ़रमाया : "आज के दिन हमारे सवारों में बेहतर सवार अबू-क़तादा हैं और पियादों में सबसे बढ़ कर सलमा-बिन अकवअ हैं।" सलमा ने कहा : फिर रसूलुल्लाह ﷺ ने मुझको दो हिस्से दिये। एक हिस्सा सवार का और एक हिस्सा पियादे का और दोनों मुझ ही को दे दिये। इस के बाद आप ﷺ ने मुझे अपने साथ बिठाया अपनी ऊँटनी पर मदीना को लौटते वक़्त। हम चल रहे थे कि एक अंसारी जो दौड़ने में किसी से पीछे नहीं रहता था। कहने लगा, कोई है। जो मदीना को मुझसे आगे दौड़ जाए और बार-बार यही कहता था। जब मैंने उसका कहना सुना तो उससे कहा तू बुज़ुर्ग की बुज़ुर्गी नहीं करता और बुज़ुर्ग से नहीं डरता। वो बोला : नहीं, अलबत्ता रसूलुल्लाह ﷺ की बुज़ुर्गी करता हूँ। मैंने कहा या रसूल-अल्लाह! मेरे माँ बाप आप पर फ़िदा हों, मुझे छोड़ दीजिये मैं इस मर्द से आगे बढ़ूँगा दौड़ में। आप ﷺ ने फ़रमाया : "अच्छा अगर तेरा जी चाहे तो तू जा सकता है।" तब मैंने कहा मैं तेरी तरफ़ आता हूँ और मैंने अपना पाँव टेढ़ा किया और कूद पड़ा, फिर मैं दौड़ा और जब एक या दो चढ़ाव बाक़ी रहे तो अपने-आपको सँभाला, फिर जो दौड़ा तो उससे मिल गया। यहाँ तक कि उसके कन्धों के बीच हाथ मारकर मैंने कहा : अल्लाह की क़सम तुम हार गए, उसने कहा कि मेरा भी यही ख़याल है।और इस तरह मैं उससे पहले मदीना पहुँच गया। फिर क़सम अल्लाह की हम सिर्फ़ तीन रात ठहरे इस के बाद रसूलुल्लाह ﷺ के साथ ख़ैबर की तरफ़ निकले। तो मेरे चचा आमिर ने हौसला बढ़ानेवाला कलाम पढ़ना शुरू किया।” क़सम अल्लाह की अगर अल्लाह हिदायत न करता तो हम रास्ता न पाते और न सदक़ा देते, न नमाज़ पढ़ते और हम तेरे फ़ज़ल से बे परवा नहीं हुए तो जमा रख हमारे पाँव को, अगर काफ़िरों से मिलें और अपनी रहमत और सकीनत उतार हमारे ऊपर। रसूलुल्लाह ﷺ ने फ़रमाया : 'ये कौन है?' लोगों ने कहा : आमिर। आप ﷺ ने फ़रमाया : "अल्लाह बख़्शे तुझ को।" सलमा (रज़ि०) ने कहा : रसूलुल्लाह ﷺ जब किसी के लिये ख़ास तौर पर इस्तग़फ़ार करते तो वो ज़रूर शहीद होता, तो सैयदना उमर-बिन-ख़त्ताब (रज़ि०) ने पुकारा और वो अपने ऊँट पर थे। या नबी अल्लाह! आपने हमको फ़ायदा क्यों नहीं उठाने दिया आमिर से, सैयदना सलमा (रज़ि०) ने कहा : फिर जब हम ख़ैबर में आए तो उसका सरदार मरहब तलवार हिलाता हुआ निकला और ये हौसला बढ़ानेवाला कलाम पढ़ता था "ख़ैबर को मालूम है कि मैं मरहब हूँ, पूरा हथियार बन्द बहादुर आज़माया हुआ जब लड़ाइयाँ आएँ शोले उड़ाती हुई।" ये सुन कर मेरे चचा आमिर निकले उसके मुक़ाबले के लिये और उन्होंने ये हौसला बढ़ानेवाला कलाम पढ़ा "ख़ैबर जानता है कि मैं आमिर हूँ। पूरी हथियार बन्द लड़ाई मैं घुसने वाला। फिर दोनों का एक-एक वार हुआ तो मरहब की तलवार मेरे चचा आमिर की ढाल पर पड़ी और आमिर ने नीचे से वार करना चाहा तो उनकी तलवार इन्ही को आ लगी और शःरग कट गई, उसी से मर गए। सैयदना सलमा (रज़ि०) ने कहा : फिर मैं निकला तो रसूलुल्लाह ﷺ के कुछ साथियों को देखा वो कह रहे हैं आमिर का अमल फ़ुज़ूल और बेकार हो गया उसने अपने-आपको ख़ुद ही मार डाला। ये सुन कर मैं रसूलुल्लाह ﷺ के पास आया रोता हुआ। मैंने कहा : या रसूल-अल्लाह! आमिर का अमल फ़ुज़ूल और बेकार हो गया। आप ﷺ ने फ़रमाया : "कौन कहता है।" मैं ने कहा : आप के साथी कहते है। आप ﷺ ने फ़रमाया : "झूट कहा जिसने कहा, बल्कि उसको दोहरा सवाब है।" फिर रसूलुल्लाह ﷺ ने मुझको सैयदना अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०) के पास भेजा उनकी आँखें दुःख रही थीं। आप ﷺ ने फ़रमाया : "मैं ऐसे शख़्स को झन्डा दूँगा जो दोस्त रखता है। अल्लाह और उसके रसूल को, या अल्लाह और रसूल उसको दोस्त रखते हैं।" फिर मैं सैयदना अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०) के पास गया और हाथ पकड़कर उनको ले आया क्योंकि उनकी आँखें दुःख रही थीं। आप ﷺ ने उनकी आँखों में अपना लुआब मुँह में डाल दिया, वो उसी वक़्त अच्छे हो गए। फिर आप ﷺ ने उनको झन्डा दिया और मरहब निकला और उसी तरह कहने लगा जैसे कि पहले कहा था। सैयदना अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०) ने उसके जवाब में, ये कहा कि "यानी मैं वो हूँ कि मेरी माँ ने मेरा नाम हैदर रखा। उस शेर की तरह कि जो जंगलों में होता है। (यानी बबर शेर), बहुत ही डरावनी सूरत (कि उसके देखने से ख़ौफ़ पैदा हो) मैं लोगों को एक साअ तीरों के बदले तीरों का पूरा पेड़ देता हूँ । (यानी वो तो मेरे ऊपर एक छोटा हमला करते हैं और मैं उन का काम ही तमाम कर देता हूँ) फिर सैयदना अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०) ने मरहब के सिर पर एक चोट लगाई और वो उसी वक़्त जहन्नम को रवाना हुआ। इसके बाद अल्लाह ने उनके हाथों फ़तह दी। एक और सनद के साथ सैयदना इकरिमा-बिन-अम्मार (रज़ि०) ने ये हदीस उस हदीस से भी ज़्यादा तफ़सील से नक़ल की है। और दूसरी में उसी तरह है।
Sahih Muslim:4678
यूनुस ने मुझे इब्ने-शहाब से ख़बर दी, कहा : फिर रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने तबूक के मैदान में जिहाद किया और आप (सल्ल०) का इरादा था। इससे आपका मक़सद रोम और शाम (सीरिया) अरब नसारा को धमकाने का था। इब्ने-शहाब (रह०) ने कहा : मुझ से बयान क्या अब्दुर्रहमान-बिन-अब्दुल्लाह-बिन कअब बिन-मालिक ने, उन से बयान किया अब्दुल्लाह-बिन-कअब ने जो कअब को पकड़ कर चलाया करते थे, उन के बेटों में से जब कअब अन्धे हो गए थे। उन्होंने कहा : मैंने सुना कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) तबूक की जंग में पीछे रह जाने का हाल बयान किया करते थे। सैयदना कअब बिन-मालिक (रज़ि०) ने कहा : मैं किसी जिहाद में रसूलुल्लाह (सल्ल०) के पीछे नहीं रहा, सिवाए तबूक की जंग के। अलबत्ता बद्र में पीछे रहा पर आप (सल्ल०) ने किसी पर ग़ुस्सा नहीं किया जो पीछे रह गया था। और बद्र में तो आप (सल्ल०) मुसलमानों के साथ क़ुरैश का क़ाफ़िला लूटने के लिये निकले थे लेकिन अल्लाह ने मुसलमानों को उन के दुश्मनों से भिड़ा दिया (और क़ाफ़िला निकल गया) बे वक़्त और मैं रसूलुल्लाह (सल्ल०) के साथ मौजूद था। लैलतुल-उक़बा में(लैलतुल-उक़बा वो रात है, जब आप (सल्ल०) ने अंसार से बैअत ली थी, इस्लाम पर और आप (सल्ल०) की मदद करने पर और ये बैअत जमरा अक़बा के पास जो मिना में है, दो बारह हुई। पहली बार में बारह अंसारी थे और दूसरी बार में सत्तर अंसारी थे) और मैं नहीं चाहता कि उस रात के बदले मैं बद्र की जंग में शरीक होता, मानो बद्र की जंग लोगों में उस रात से ज़्यादा मशहूर है। (यानी लोग उस को बेहतर कहते हैं) और मेरा क़िस्सा तबूक की जंग से पीछे रहने का ये है कि जब ये ग़ज़वा हुआ तो मैं सबसे ज़्यादा ताक़तवर और मालदार था। अल्लाह की क़सम इस से पहले मेरे पास दो ऊँटनियाँ कभी नहीं हुईं और इस लड़ाई के वक़्त मेरे पास दो ऊँटनियाँ थीं। आप (सल्ल०) इस लड़ाई के लिये चले सख़्त गर्मी के दिनों में और सफ़र भी लम्बा था। और रास्ते में जंगल थे (बियाबान जंगल, जिन में पानी कम मिलता और हलाकत का ख़ौफ़ होता) और मुक़ाबला था बहुत दुश्मनों से, इस लिये आप (सल्ल०) ने मुसलमानों से वाज़ेह तौर पर फ़रमा दिया कि मैं इस लड़ाई को जाता हूँ। (हालाँकि आप (सल्ल०) की ये आदत थी कि और लड़ाइयों में अपना इरादा साफ़-साफ़ नहीं फ़रमाते मस्लिहत से ताकि ख़बर मशहूर न हो) ताकि वो अपनी तैयारी कर लें। फिर उनसे कह दिया कि फ़ुलाँ तरफ़ उनको जाना पड़ेगा, उस वक़्त आप (सल्ल०) के साथ बहुत से मुसलमान थे और कोई दफ़्तर नहीं था, जिस में उन के नाम लिखे होते। सैयदना कअब (रज़ि०) ने कहा : तो ऐसे शख़्स कम थे जो ग़ायब रहना चाहते और गुमान करते कि ये बात छिपी रहेगी जब तक अल्लाह पाक की तरफ़ से कोई वह्य न उतरे और ये जिहाद रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने उस वक़्त किया जब फल पक गए थे और साया ख़ूब था, और मुझे इन चीज़ों का बहुत शौक़ था। आख़िर रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने तैयारी की और मुसलमानों ने भी; आप (सल्ल०) के साथ तैयारी की मैंने भी। सुबह को निकलना शुरू किया इस इरादे से कि मैं भी उन के साथ तैयारी करूँ लेकिन हर दिन मैं लौट आता और कुछ फ़ैसला न करता और अपने दिल में ये कहता कि मैं जब चाहूँ जा सकता हूँ, (क्योंकि सामान सफ़र का मेरे पास मौजूद था।) इस तरह ही होता रहा, यहाँ तक कि लोग बराबर कोशिश करते रहे और रसूलुल्लाह (सल्ल०) भी सुबह के वक़्त निकले और मुसलमान भी आप (सल्ल०) के साथ निकले और मैंने कोई तैयारी नहीं की। फिर सुबह को मैं निकला और लौट कर आ गया और कोई फ़ैसला नहीं किया, यही हाल रहा यहाँ तक कि लोगों ने जल्दी की और सब मुजाहिदीन आगे निकल गए। उस वक़्त मैंने भी कूच का इरादा किया कि उनसे मिल जाऊँ तो काश! मैं ऐसा करता लेकिन मेरी तक़दीर में नहीं था। बाद इसके जब बाहर निकलता रसूलुल्लाह (सल्ल०) के जाने के बाद तो मुझ को रंज होता क्योंकि मैं कोई पैरवी के लायक़ नहीं पाता मगर ऐसा शख़्स जिस पर मुनाफ़िक़ होने का गुमान था। या माज़ूर, ज़ईफ़ और नातवाँ लोगों में से, ख़ैर रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने रास्ते में मेरा ज़िक्र नहीं किया यहाँ तक कि आप (सल्ल०) तबूक मैं पहुँचे, आप (सल्ल०) लोगों में बैठे हुए थे उस वक़्त फ़रमाया : कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) कहाँ गया? एक शख़्स बोला : बनी सलमा में से या रसूल अल्लाह? उसकी चादरों ने उसको रोक रखा, वो अपने दोनों किनारों को देखता है। (यानी अपने लिबास और नफ़्स में मशग़ूल और मसरूफ़ है)। सैयदना मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०) ने ये सुन कर कहा : तूने बुरी बात कही, अल्लाह की क़सम या रसूल अल्लाह! हम तो कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) को अच्छा समझते हैं। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ये सुन कर चुप हो रहे, इतने में आप (सल्ल०) ने एक शख़्स को देखा जो सफ़ेद कपड़े पहने हुए आ रहा था। और रेत को उड़ा रहा था। (चलने की वजह से) आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : अबू-ख़ैसमा है। फिर वो अबू-ख़ैसमा ही था। और अबू-ख़ैसमा वो शख़्स था, जिसने एक साअ खजूर सदक़ा दी थी जब मुनाफ़िक़ों ने उस पर ताना किया था। सैयदना कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) ने कहा : जब मुझे ख़बर पहुँची कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) तबूक से लौटे मदीना की तरफ़ तो मेरा रंज बढ़ गया। मैंने झूट बातें बनाना शुरू कीं कि कोई बात ऐसी कहूँ जिससे आप (सल्ल०) का ग़ुस्सा मिट जाए, कल के दिन और इस बात के लिये मैंने हर एक अक़लमन्द शख़्स से मदद लेना शुरू की अपने घर वालों में से यानी उनसे भी सलाह ली (कि क्या बात बताऊँ) जब लोगों ने मुझ से बयान किया कि रसूलुल्लाह (सल्ल०) क़रीब आ पहुँचे उस वक़्त सारा झूट काफ़ूर हो गया और मैं समझ गया कि अब कोई झूट बना कर मैं आप (सल्ल०) से नजात नहीं पाने का, आख़िर मैंने नीयत कर ली सच बोलने की, और सुबह को रसूलुल्लाह (सल्ल०) आए और जब आप (सल्ल०) सफ़र से आते तो पहले मस्जिद में जाते और दो रकअतें पढ़ते, फिर लोगों से मिलने के लिये बैठते। जब आप (सल्ल०) ये कर चुके तो जो लोग पीछे रह गए थे, उन्होंने अपने उज़्र बयान करने शुरू किये और क़समें खाने लगे ऐसे अस्सी (80) से ज़्यादा कुछ आदमी थे। आप (सल्ल०) ने उन की ज़ाहिर की; बात को मान लिया और उन से बैअत की और उन के लिये दुआ की मग़फ़िरत की और उन की नीयत (यानी दिल की बात को) अल्लाह के सिपुर्द किया; यहाँ तक कि मैं भी आया जब मैंने सलाम किया तो आप (सल्ल०) ने मुस्कुराए लेकिन वो मुस्कुराहट ग़ुस्से की थी, फिर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : आ! मैं चलता हुआ आया और आप (सल्ल०) के सामने बैठा आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : तू क्यों पीछे रह गया तू ने तो सवारी भी ख़रीद ली थी। मैंने कहा : या रसूल अल्लाह! अगर मैं आप के सिवा किसी और शख़्स के पास दुनिया के लोगों में से बैठता तो मैं ये ख़याल करता कि कोई उज़्र बयान करके उसके ग़ुस्से से निकल जाऊँगा और मुझे अल्लाह ने ज़बान की क़ुव्वत दी है। (यानी मैं उम्दा तक़रीर कर सकता हूँ और ख़ूब बात बना सकता हूँ) लेकिन क़सम अल्लाह की मैं जानता हूँ कि अगर मैं कोई झूट बात आप से कह दूँ और आप ख़ुश हो जाएँ मुझ से तो क़रीब है अल्लाह आप को मेरे ऊपर ग़ुस्सा कर देगा (यानी अल्लाह आप (सल्ल०) को बता देगा कि मेरा उज़्र ग़लत और झूट था। और आप (सल्ल०) नाराज़ हो जाएँगे) और अगर मैं आप से सच सच कहूँगा तो बेशक आप ग़ुस्सा होंगे लेकिन मुझे उम्मीद है कि अल्लाह उसका अंजाम बख़ैर करेगा। अल्लाह की क़सम! मुझे कोई उज़्र नहीं था। अल्लाह की क़सम! मैं कभी न इतना ताक़तवर था, न इतना मालदार था, जितना उस वक़्त था, जब आप से पीछे रह गया। रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने फ़रमाया : कअब ने सच कहा। फिर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : अच्छा जा! यहाँ तक कि अल्लाह हुक्म दे तेरे बारे मैं। मैं खड़ा हुआ और कुछ लोग बनी-सलमा के दौड़ कर मेरे पीछे हुए और मुझ से कहने लगे : अल्लाह की क़सम! हम नहीं जानते कि तूने इससे पहले कोई क़सूर किया हो, तो तुम मजबूर क्यों हो गए और कोई उज़्र क्यों नहीं कर दिया रसूलुल्लाह (सल्ल०) के सामने जैसे और लोगों ने जो पीछे रह गए थे उज़्र बयान किये और तेरा गुनाह मिटाने के लिये रसूलुल्लाह (सल्ल०) का इस्तग़फ़ार काफ़ी था, अल्लाह की क़सम! वो लोग मुझ को मलामत करने लगे, यहाँ तक कि मैंने इरादा किया फिर लौटूँ रसूलुल्लाह (सल्ल०) के पास और अपने तईं झूटा करूँ और कोई उज़्र बयान करूँ, फिर मैंने उन लोगों से कहा : किसी और का भी ऐसा हाल हुआ है। जो मेरा हुआ है। उन्होंने कहा : हाँ दो शख़्स और हैं, उन्होंने भी वही कहा : जो तूने कहा : और रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने उन से भी वही फ़रमाया जो तुझसे फ़रमाया। मैं ने पूछा : वो दो शख़्स कौन हैं? उन्होंने कहा : मुरारह-बिन-रबीआ और हिलाल-बिन-उमैया वाक़िफ़ी (रज़ि०)। उन लोगों ने ऐसे दो लोगों का नाम लिया जो नेक थे और बद्र की लड़ाई में मौजूद थे और पैरवी के क़ाबिल थे जब उन लोगों ने उन दोनों लोगों का नाम लिया तो मैं चला गया। और रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने मुसलमानों को मना कर दिया था कि हम तीनों आदमियों से कोई बात न करे, उन लोगों में से जो पीछे रह गए थे; तो लोगों ने हम से परहेज़ शुरू किया और उनका हाल हमारे साथ बिल्कुल बदल गया, यहाँ तक कि ज़मीन भी मानो बदल गई वो ज़मीन ही नहीं रही जिसको में पहचानता था। पचास रातों तक हमारा यही हाल रहा मेरे दोनों साथी तो आजिज़ हो गए और अपने मकानों में बैठ रहे, रोते हुए लेकिन मैं तो सब लोगों में कम-उम्र और ज़ोरदार था, मैं निकला करता था। और नमाज़ के लिये भी आता और बाज़ारों में भी फिरता, पर कोई शख़्स मुझ से बात न करता और रसूलुल्लाह (सल्ल०) के पास आता और आप (सल्ल०) को सलाम करता और आप (सल्ल०) अपनी जगह बैठे होते नमाज़ के बाद और दिल में ये कहता कि आप (सल्ल०) ने अपने लबों को हिलाया, सलाम का जवाब देने के लिये या नहीं हिलाया, फिर आप (सल्ल०) के क़रीब नमाज़ पढ़ता और चोरी-छिपी नज़र से (कनखियों से) आप (सल्ल०) को देखता, तो जब मैं नमाज़ में होता तो आप (सल्ल०) मेरी तरफ़ देखते और जब मैं आप (सल्ल०) की तरफ़ देखता तो आप (सल्ल०) मुँह फेर लेते यहाँ तक कि जब मुसलमानों की सख़्ती मुझ पर लम्बी हुई तो मैं चला और अबू-क़तादा (रज़ि०) के बाग़ की दीवार पर चढ़ा। अबू-क़तादा (रज़ि०) मेरे चचा ज़ाद भाई थे और सब लोगों से ज़्यादा मुहब्बत मुझे उन से थी, उनको सलाम किया, तो अल्लाह की क़सम उन्होंने सलाम का जवाब तक नहीं दिया (सुब्हानल्लाह! रसूलुल्लाह (सल्ल०) के मातहत ऐसे होते हैं कि आप (सल्ल०) के इरशाद के सामने भाई बेटे की मुरव्वत भी नहीं करते जब तक रसूलुल्लाह (सल्ल०) से ऐसी मुहब्बत न हो तो ईमान किस काम का है? आप (सल्ल०) की हदीस जब मालूम हो जाए कि सही है। तो मुज्तहिद और मौलवियों का क़ौल जो उस के ख़िलाफ़ हो दीवार पर मारना चाहिये और हदीस पर चलना चाहिये) मैंने उन से कहा : ऐ अबू-क़तादा! मैं आपको क़सम देता हूँ अल्लाह की आप ये नहीं जानते कि मैं अल्लाह और उसके रसूल से मुहब्बत रखता हूँ, वो ख़ामोश रहे, फिर तीसरी बार क़सम दी तो बोले : अल्लाह और उसका रसूल ख़ूब जानता है। ये भी कअब (रज़ि०) से नहीं बोले बल्कि ख़ुद अपने में बात की; आख़िर मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े और मैं पीठ मोड़ कर चला और दीवार पर चढ़ा। मैं मदीना के बाज़ार में जा रहा था। तो एक किसान शाम के किसानों में से जो मदीना में अनाज बेचने के लिये आया था, कहने लगा : कअब-बिन-मालिक (रज़ि०) का घर मुझ को कौन बताएगा? लोगों ने उसको इशारा शुरू किया यहाँ तक कि वो मेरे पास आया और मुझे एक ख़त दिया, ग़स्सान के बादशाह का, मैं मुंशी था, मैंने उसको पढ़ा, उस में ये लिखा था: बाद हम्द के कअब (रज़ि०) को मालूम हो कि हम को ये ख़बर पहुँची है कि तुम्हारे साहिब ने यानी रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने आप पर जफ़ा की है और अल्लाह ने आपको ज़िल्लत के घर में महबूस कर दिया है लिहाज़ा तुम हम से मिल जाओ, हम तुम्हारी ख़ातिर दारी करेंगे। मैंने जब ये ख़त पढ़ा तो कहा : ये भी एक बला है। और उस ख़त को मैंने चूल्हे में जला दिया। जब पचास दिन में से चालीस दिन गुज़र गए और वह्य नहीं आई तो अचानक रसूलुल्लाह (सल्ल०) का पैग़ाम लाने वाला मेरे पास आया और कहने लगा : रसूलुल्लाह (सल्ल०) तुमको हुक्म करते हैं कि अपनी बीवी से अलग रहो मैंने कहा : मैं उसको तलाक़ दे दूँ या क्या करूँ? वो बोला : नहीं तलाक़ मत दो सिर्फ़ अलग रहो और उससे सोहबत मत करो और मेरे दोनों साथियों के पास भी यही पयाम गया। मैंने अपनी बीवी से कहा : तू अपने अज़ीज़ों में चली जा और वहीं रह यहाँ तक कि अल्लाह इस सिलसिले में कोई हुक्म दे। हिलाल-बिन-उमैया (रज़ि०) की बीवी ये सुन कर रसूलुल्लाह (सल्ल०) के पास गई और कहा : या रसूल अल्लाह! हिलाल-बिन-उमैया (रज़ि०) एक बूढ़ा बेकार शख़्स है। उस के पास कोई ख़ादिम भी नहीं तो क्या आप बुरा समझते हैं अगर मैं इस की ख़िदमत किया करूँ? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : मैं ख़िदमत को बुरा नहीं समझता लेकिन वो तुझ से सोहबत न करे। वो बोली : अल्लाह की क़सम! उसको किसी काम का ख़याल नहीं और अल्लाह की क़सम! वो उस दिन से अब तक रो रहा है। मेरे घर वालों ने कहा : काश तुम भी रसूलुल्लाह (सल्ल०) से अपनी बीवी के पास रहने की इजाज़त ले लो क्योंकि आप (सल्ल०) ने हिलाल-बिन-उमैया (रज़ि०) की औरत को उसकी ख़िदमत करने की इजाज़त दी। मैंने कहा : मैं कभी इजाज़त नहीं लूँगा आप (सल्ल०) से अपनी बीवी के लिये और मालूम नहीं रसूलुल्लाह (सल्ल०) क्या फ़रमा देंगे अगर मैं इजाज़त लूँ अपनी बीवी के लिये और मैं जवान आदमी हूँ। फिर दस रातों तक मैं इसी हाल में रहा यहाँ तक कि पचास रातें पूरी हुईं, उस तारीख़ से जबसे आप (सल्ल०) ने मना किया था हमसे बात करने से। फिर पचासों रात को सुबह के वक़्त मैंने नमाज़ पढ़ी अपने घर की छत पर। मैं इसी हाल में बैठा था। जो अल्लाह ने हमारा हाल बयान किया कि मेरा जी तंग हो गया था। और ज़मीन मुझ पर तंग हो गई थी बावजूद ये कि इतनी कुशादा है। इतने में मैंने एक पुकारने वाले की आवाज़ सुनी जो मदीना की एक पहाड़ी पर चढ़ा और बुलन्द आवाज़ से पुकारा : ऐ कअब-बिन-मालिक! ख़ुश हो जा। ये सुन कर मैं सजदे में गिरा और मैं ने पहचाना कि ख़ुशी आई, फिर रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने लोगों को ख़बर की कि अल्लाह ने हम को माफ़ किया, जब आप (सल्ल०) फ़ज्र की नमाज़ पढ़ चुके। लोग चले हम को ख़ुशख़बरी देने के लिये तो मेरे दोनों साथियों के पास कुछ ख़ुशख़बरी देने वाले गए और एक शख़्स ने मेरे पास घोड़ा दौड़ाया और एक दौड़ने वाला दौड़ा असलम के क़बीले से मेरी तरफ़ और उस की आवाज़ घोड़े से जल्द मुझ को पहुँची। जब वो शख़्स आया जिसकी आवाज़ मैंने सुनी थी ख़ुशख़बरी की तो मैंने अपने दोनों कपड़े उतारे और इसको पहना दिये, इस की ख़ुशख़बरी के इनाम में। अल्लाह की क़सम! उस वक़्त मेरे पास वही दो कपड़े थे। मैंने दो कपड़े उधार लिये और उनको पहना और चला रसूलुल्लाह (सल्ल०) से मिलने की नीयत से, लोग मुझ से मिलते जाते थे गरोह दर-गरोह और मुझ को मुबारकबाद देते जाते थे माफ़ी की और कहते थे : मुबारक हो तुमको अल्लाह की माफ़ी की तुम्हारे लिये यहाँ तक कि मैं मस्जिद मैं पहुँचा। रसूलुल्लाह (सल्ल०) मस्जिद में बैठे थे और आप (सल्ल०) के पास लोग थे। तलहा-बिन उबैदुल्लाह (रज़ि०) मुझ को देखते ही खड़े हुए और दौड़े यहाँ तक कि मुसाफ़ा किया मुझ से और मुझ को मुबारकबाद दी। अल्लाह की क़सम! मुहाजरीन में से उनके सिवा कोई शख़्स खड़ा नहीं हुआ तो कअब (रज़ि०) तलहा (रज़ि०) के इस एहसान को नहीं भूलते थे। सैयदना कअब (रज़ि०) ने कहा : जब मैंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) को सलाम किया तो आप (सल्ल०) का चेहरा ख़ुशी से चमक दमक रहा था। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : ख़ुश हो जा! आज का दिन जो तेरे लिये बेहतर दिन है, जबसे तेरी माँ ने तुझको जाना। मैंने कहा : या रसूल अल्लाह! ये माफ़ी आप की तरफ़ से है या अल्लाह की तरफ़ से? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : अल्लाह की तरफ़ से और रसूलुल्लाह (सल्ल०) जब ख़ुश हो जाते तो आप (सल्ल०) का चेहरा चमक जाता मानो चाँद का एक टुकड़ा है। और हम इस बात को पहचान लेते (यानी आप (सल्ल०) की ख़ुशी को) जब मैं आप (सल्ल०) के सामने बैठा तो मैं ने कहा : या रसूल अल्लाह! मेरी माफ़ी की ख़ुशी में मैं अपने माल को सदक़ा कर दूँ, अल्लाह और इस के रसूल के लिये? आप (सल्ल०) ने फ़रमाया : थोड़ा माल अपना रख ले। मैंने कहा : तो मैं अपना ख़ैबर का हिस्सा रख लेता हूँ और मैंने कहा : या रसूलअल्लाह! आख़िर सच्चाई ने मुझे नजात दी और मेरी तौबा में ये भी दाख़िल है कि हमेशा सच कहूँगा जब तक ज़िन्दा रहूँ। कअब (रज़ि०) ने कहा : अल्लाह की क़सम! मैं नहीं जानता कि अल्लाह ने किसी मुसलमान पर ऐसा एहसान किया हो सच बोलने में जैसा एहसान मेरे साथ किया अल्लाह की क़सम! मैंने उस वक़्त से कोई झूट जानबूझ कर नहीं बोला : जब से ये रसूलुल्लाह (सल्ल०) से कहा, आज के दिन तक और मुझे उम्मीद है कि अल्लाह बाक़ी ज़िन्दगी में भी मुझको झूट से बचाएगा। कअब ने कहा : अल्लाह ने ये आयतें उतारीं لَّقَد تَّابَ اللَّهُ عَلَى النَّبِيِّ وَالْمُهَاجِرِينَ وَالْأَنصَارِ الَّذِينَ اتَّبَعُوهُ فِي سَاعَةِ الْعُسْرَةِ مِن بَعْدِ مَا كَادَ يَزِيغُ قُلُوبُ فَرِيقٍ مِّنْهُمْ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ إِنَّهُ بِهِمْ رَءُوفٌ رَّحِيمٌ . وَعَلَى الثَّلَاثَةِ الَّذِينَ خُلِّفُوا حَتَّىٰ إِذَا ضَاقَتْ عَلَيْهِمُ الْأَرْضُ بِمَا رَحُبَتْ وَضَاقَتْ عَلَيْهِمْ أَنفُسُهُمْ وَظَنُّوا أَن لَّا مَلْجَأَ مِنَ اللَّـهِ إِلَّا إِلَيْهِ ثُمَّ تَابَ عَلَيْهِمْ لِيَتُوبُوا إِنَّ اللَّهَ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ . يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّہَ وَكُونُوا مَعَ الصَّادِقِينَ ( तौबा : 117-119) यानी बेशक अल्लाह ने माफ़ किया नबी और मुहाजरीन और अंसार को जिन्होंने साथ दिया नबी का मुफ़लिसी के वक़्त। यहाँ तक कि फ़रमाया : वो मेहरबान है। रहम वाला, और अल्लाह ने माफ़ किया उन तीन लोगों को जो पीछे डाले गए यहाँ तक कि जब ज़मीन उन पर तंग हो गई बावजूद कुशादगी के और उनके जी भी तंग हो गए और समझे कि अब कोई बचाव नहीं अल्लाह से मगर उसी की तरफ़; फिर अल्लाह ने माफ़ किया उनको ताकि वो तौबा करें। बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है। ऐ ईमान वालो! डरो अल्लाह से और साथ रहो सच्चों के।"कअब (रज़ि०) ने कहा : अल्लाह की क़सम! अल्लाह ने इस से बढ़ कर कोई एहसान मुझ पर नहीं किया बाद इस्लाम के जो इतना बड़ा हो मेरे नज़दीक इस बात से कि मैंने सच बोल दिया रसूलुल्लाह (सल्ल०) से और झूट नहीं बोला, वरना तबाह होता जैसे झूठे तबाह हुए। अल्लाह ने झूटों की जब वह्य उतारी तो ऐसी बुराई की कि किसी की नहीं की तो फ़रमाया : سَيَحْلِفُونَ بِاللَّهِ لَكُمْ إِذَا انقَلَبْتُمْ إِلَيْهِمْ لِتُعْرِضُوا عَنْهُمْ فَأَعْرِضُوا عَنْهُمْ إِنَّهُمْ رِجْسٌ وَمَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ جَزَاءً بِمَا كَانُوا يَكْسِبُونَ. يَحْلِفُونَ لَكُمْ لِتَرْضَوْا عَنْهُمْ فَإِن تَرْضَوْا عَنْهُمْ فَإِنَّ اللَّهَ لا يَرْضَىٰ عَنِ الْقَوْمِ الْفَاسِقِينَ. (तौबा : 95-96) जब आप लौट कर आए तो क़स्में खाने लगे ताकि तुम कुछ न बोलो उनसे, सो न बोलो उनसे वो नापाक हैं, उनका ठिकाना जहन्नम है। ये बदला है उनकी कमाई की क़समें खाते हैं तुमसे कि तुम ख़ुश हो जाओ उन से, सो अगर तुम ख़ुश हो जाओ उनसे तब भी अल्लाह ख़ुश नहीं होगा बदकारों से; सैयदना कअब (रज़ि०) ने कहा : हम पीछे डाले गए तीनों आदमी उन लोगों से जिन का उज़्र रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने क़बूल किया जब उन्होंने क़सम खाई तो बैअत की उनसे और इस्तग़फ़ार किया उनके लिये और हम को रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने डाल रखा (यानी हमारा मुक़द्दमा डाल रखा) यहाँ तक कि अल्लाह ने फ़ैसला किया, इसी वजह से अल्लाह ने फ़रमाया कि माफ़ किया उन तीनों को जो पीछे रह गए और इस लफ़्ज़ "خُلِّفُوْا" से ये मुराद नहीं है कि हम जिहाद से पीछे रह गए बल्कि मुराद वही है। हमारे मुक़द्दमा पीछे रहना और डाल रखना आप (सल्ल०) का; उसको बनिस्बत उन लोगों के जिन्होंने क़सम खाई और उज़्र किया आप (सल्ल०) से और आप (सल्ल०) ने क़बूल किया उन के उज़्र को।
Sahih Muslim:7016
लगभग 350 हादसे हैं-इससे ज्यादा है.. जिसमें अंसारी का नाम भी आता है। 360 तो मैं पड़ी है और बाकी साथ हूं।